अगर हम अपने सौरमंडल को ब्रह्मांड में तैरता एक विशाल बुलबुला मानें, तो मानवनिर्मिंत दो उपग्रहों, वॉयजर-1 और वॉयजर-2 के बारे में कह सकते हैं कि वे इस बुलबुले की कैद से छूट रहे हैं। खास तौर से वॉयजर-1 इस मामले में उल्लेखनीय है क्योंकि इसके बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने हाल में घोषणा की है कि यह हमारे सौरमंडल की हदों के पार चला गया है। इंसान के हाथों बनी किसी चीज का इतनी दूर पहुंचना साइंस की दुनिया में एक ऐतिहासिक घटना है, ठीक वैसे ही जैसे, चंद्रमा पर इंसान का पहुंचना। करीब 36 साल पहले 1977 में नासा ने ये दो यान इस मकसद से रवाना किए थे कि इनसे सोलर सिस्टम के साथ- साथ अंतरतारकीय स्पेस के बारे में हमारी जानकारियों में विस्तार हो सके। इन्होंने अभी तक यह काम बखूबी किया भी है। वॉयजर-1 ने इस दौरान बृहस्पति और शनि जैसे बड़े ग्रहों और उनके चंद्रमाओं की बारीक पड़ताल की है, तो उधर वॉयजर-2 ने 2003 में पहले तो विशालकाय सौर ज्वालाओं का अता-पता दिया और फिर 2004 में इन ज्वालाओं के कारण पैदा होने वाली शॉक वेव्स के सोलर सिस्टम में भ्रमण की जानकारी दी। फिलहाल वॉयजर-1 यान हमसे करीब 19 अरब किलोमीटर दूर है। पिछले लंबे अरसे तक यह सूरज के बेइंतहा असर वाले ऐसे क्षेत्र में रहा है जिसे हेलियोस्फीयर कहा जाता है। इस इलाके में सूरज से छिटके हुए तेज रफ्तार से आते विद्युत आवेशित कणों की भरमार होती है और वे दूसरे सितारों से आए पदार्थ के खिलाफ घर्षण करते हैं। टर्मिंनेशन शॉक कहलाने वाले इस इलाके में सौर हवाएं औसतन 300-700 किमी प्रति सेकंड की भीषण गति से चलती हैं और बेहद घनी और गर्म होती हैं। इस इलाके में वॉयजर यान पिछले करीब 10 साल तक रहे हैं। इस क्षेत्र को पार करने के बाद वॉयजर-1 सौरमंडल के अंतिम सिरे यानी हेलियोपॉज में मौजूद रहा है। यह वह सरहद है, जहां सौर हवाएं और बाहरी स्पेस से आने वाली अंतरतारकीय हवाएं (तारों के बीच मौजूद गैस और धूल का समूह) एक-दूसरे से टकराती और दबाव बनाती हैं। इस टकराहट और परस्पर दबाव से ही वहां संतुलन कायम होता है। अब वॉयजर-1 की आगे की यात्रा बेहद महत्व की है। सौरमंडल से बाहर निकलने पर यह ऐसे स्पेस में पहुंच रहा है, जहां उसका सामना तूफानी सौर हवाओं और वैसी आवेशित गैसों से हो सकता है जो सूर्य को भी सुपरसॉनिक गति से भगा ले जाती हैं। वैसे तो विज्ञानियों के मुताबिक वॉयजर यानों का यह मिशन 2020 के बाद शायद ही कायम रह सके, क्योंकि तब तक ये यान वह जरूरी ऊर्जा खो चुके होंगे, जिसके बूते वे अभी पृथ्वी तक संकेत भेजने में सफल हो रहे हैं। वॉयजर अभियान की शुरु आत काफी दिलचस्प रही है। इसके पीछे 70 के दशक के अंत में घटित एक खगोलीय घटना है। असल में उस वक्त बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि तब कोई अंतरिक्ष यान एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजर सकता था। इस तरह किसी ग्रह के करीब से गुजरने को साइंस की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों की यह स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी बात खोज निकाली थी। गैरी ने गणित की मदद से समझाया था कि अगर कोई अंतरिक्ष यान एक खास कोण से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बल उसे एक ऐसी जबरदस्त अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वह अंतरिक्ष यान बिना ईधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा। बृहस्पति की तरह शनि के गुरु त्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और उससे भी आगे निकल जाने में मदद मिलेगी। यह बिल्कुल नया विचार था क्योंकि इससे नाममात्र के ईधन के खर्च से और केवल गुरु त्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूरदराज का सफर मुमकिन हो रहा था। इस तरह नासा ने वॉयजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत वॉयजर-1 और वॉयजर-2 को बृहस्पति और शनि के लिए भेजना तय हुआ। उल्लेखनीय है कि वॉयजर-1 और इसका जुड़वां अंतरिक्ष यान वॉयजर- 2 अंतरिक्ष में अब दो अलग-अलग दिशाओं में हैं और एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि वॉयजर- 1 की रफ्तार वॉयजर-2 के मुकाबले 10 फीसद ज्यादा है। बहरहाल, अब 722 किलो वजनी अंतरिक्ष यान वॉयजर-1 हेलियोस्फीयर (सूर्य किरणों की पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष) और सूर्य के नजदीकी इलाके- हेलियोशीथ को पीछे छोड़कर इंटरस्टेलर स्पेस कहलाने वाले गहन ब्रह्मांड में प्रवेश कर चुका है। आगे इससे हमें क्या जानकारी मिलेगी, इस पर अभी वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। पर आगे अगर किसी अन्य सभ्यता से वॉयजरों की कोई मुलाकात होती है, तो इस संभावना से अंतहीन जिज्ञासाओं का कोई ठोस जवाब पाने का इंतजाम भी इन यानों में किया गया है। परग्रही एलियंस को हैलो कहने वाला एक ग्रीटिंग (संदेश) इसमें साथ है। करीब 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क के रूप में एक ऐसा फोनोग्राफ इसमें मौजूद है, जो मौका आने पर कुछ ध्वनियां सुना सकता है और पृथ्वी के जीवन व संस्कृति की छवियां बिखेर सकता है। खास बात यह है कि इस कॉपर डिस्क में भारतीय गायिका केसरबाई केरकर का एक गीत- जात कहां हो भी दर्ज है जिसका चयन प्रख्यात खगोल विज्ञानी कार्ल सगॉन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने किया था। वॉयजर की यह यात्रा अचंभित करने वाली है। आश्र्चय है कि कैसे इसकी संचार पण्रालियां और यंत्र पृथ्वी से इतनी दूर होने पर काम कर पा रहे हैं और कैसे यह हम तक संकेत भेज पा रहा है। नासा के मुताबिक वॉयजर-1 में तीन रेडियोआइसोटॉप र्थमोइलेक्ट्रिक जेनरेटर लगे हैं, जो इसकी तमाम पण्रालियों/उपकरणों को जीवित रखे हुए हैं।
Wednesday, October 2, 2013
सूरज की हदों से पार निकले हम
अगर हम अपने सौरमंडल को ब्रह्मांड में तैरता एक विशाल बुलबुला मानें, तो मानवनिर्मिंत दो उपग्रहों, वॉयजर-1 और वॉयजर-2 के बारे में कह सकते हैं कि वे इस बुलबुले की कैद से छूट रहे हैं। खास तौर से वॉयजर-1 इस मामले में उल्लेखनीय है क्योंकि इसके बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने हाल में घोषणा की है कि यह हमारे सौरमंडल की हदों के पार चला गया है। इंसान के हाथों बनी किसी चीज का इतनी दूर पहुंचना साइंस की दुनिया में एक ऐतिहासिक घटना है, ठीक वैसे ही जैसे, चंद्रमा पर इंसान का पहुंचना। करीब 36 साल पहले 1977 में नासा ने ये दो यान इस मकसद से रवाना किए थे कि इनसे सोलर सिस्टम के साथ- साथ अंतरतारकीय स्पेस के बारे में हमारी जानकारियों में विस्तार हो सके। इन्होंने अभी तक यह काम बखूबी किया भी है। वॉयजर-1 ने इस दौरान बृहस्पति और शनि जैसे बड़े ग्रहों और उनके चंद्रमाओं की बारीक पड़ताल की है, तो उधर वॉयजर-2 ने 2003 में पहले तो विशालकाय सौर ज्वालाओं का अता-पता दिया और फिर 2004 में इन ज्वालाओं के कारण पैदा होने वाली शॉक वेव्स के सोलर सिस्टम में भ्रमण की जानकारी दी। फिलहाल वॉयजर-1 यान हमसे करीब 19 अरब किलोमीटर दूर है। पिछले लंबे अरसे तक यह सूरज के बेइंतहा असर वाले ऐसे क्षेत्र में रहा है जिसे हेलियोस्फीयर कहा जाता है। इस इलाके में सूरज से छिटके हुए तेज रफ्तार से आते विद्युत आवेशित कणों की भरमार होती है और वे दूसरे सितारों से आए पदार्थ के खिलाफ घर्षण करते हैं। टर्मिंनेशन शॉक कहलाने वाले इस इलाके में सौर हवाएं औसतन 300-700 किमी प्रति सेकंड की भीषण गति से चलती हैं और बेहद घनी और गर्म होती हैं। इस इलाके में वॉयजर यान पिछले करीब 10 साल तक रहे हैं। इस क्षेत्र को पार करने के बाद वॉयजर-1 सौरमंडल के अंतिम सिरे यानी हेलियोपॉज में मौजूद रहा है। यह वह सरहद है, जहां सौर हवाएं और बाहरी स्पेस से आने वाली अंतरतारकीय हवाएं (तारों के बीच मौजूद गैस और धूल का समूह) एक-दूसरे से टकराती और दबाव बनाती हैं। इस टकराहट और परस्पर दबाव से ही वहां संतुलन कायम होता है। अब वॉयजर-1 की आगे की यात्रा बेहद महत्व की है। सौरमंडल से बाहर निकलने पर यह ऐसे स्पेस में पहुंच रहा है, जहां उसका सामना तूफानी सौर हवाओं और वैसी आवेशित गैसों से हो सकता है जो सूर्य को भी सुपरसॉनिक गति से भगा ले जाती हैं। वैसे तो विज्ञानियों के मुताबिक वॉयजर यानों का यह मिशन 2020 के बाद शायद ही कायम रह सके, क्योंकि तब तक ये यान वह जरूरी ऊर्जा खो चुके होंगे, जिसके बूते वे अभी पृथ्वी तक संकेत भेजने में सफल हो रहे हैं। वॉयजर अभियान की शुरु आत काफी दिलचस्प रही है। इसके पीछे 70 के दशक के अंत में घटित एक खगोलीय घटना है। असल में उस वक्त बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि तब कोई अंतरिक्ष यान एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजर सकता था। इस तरह किसी ग्रह के करीब से गुजरने को साइंस की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों की यह स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी बात खोज निकाली थी। गैरी ने गणित की मदद से समझाया था कि अगर कोई अंतरिक्ष यान एक खास कोण से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बल उसे एक ऐसी जबरदस्त अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वह अंतरिक्ष यान बिना ईधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा। बृहस्पति की तरह शनि के गुरु त्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और उससे भी आगे निकल जाने में मदद मिलेगी। यह बिल्कुल नया विचार था क्योंकि इससे नाममात्र के ईधन के खर्च से और केवल गुरु त्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूरदराज का सफर मुमकिन हो रहा था। इस तरह नासा ने वॉयजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत वॉयजर-1 और वॉयजर-2 को बृहस्पति और शनि के लिए भेजना तय हुआ। उल्लेखनीय है कि वॉयजर-1 और इसका जुड़वां अंतरिक्ष यान वॉयजर- 2 अंतरिक्ष में अब दो अलग-अलग दिशाओं में हैं और एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि वॉयजर- 1 की रफ्तार वॉयजर-2 के मुकाबले 10 फीसद ज्यादा है। बहरहाल, अब 722 किलो वजनी अंतरिक्ष यान वॉयजर-1 हेलियोस्फीयर (सूर्य किरणों की पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष) और सूर्य के नजदीकी इलाके- हेलियोशीथ को पीछे छोड़कर इंटरस्टेलर स्पेस कहलाने वाले गहन ब्रह्मांड में प्रवेश कर चुका है। आगे इससे हमें क्या जानकारी मिलेगी, इस पर अभी वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। पर आगे अगर किसी अन्य सभ्यता से वॉयजरों की कोई मुलाकात होती है, तो इस संभावना से अंतहीन जिज्ञासाओं का कोई ठोस जवाब पाने का इंतजाम भी इन यानों में किया गया है। परग्रही एलियंस को हैलो कहने वाला एक ग्रीटिंग (संदेश) इसमें साथ है। करीब 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क के रूप में एक ऐसा फोनोग्राफ इसमें मौजूद है, जो मौका आने पर कुछ ध्वनियां सुना सकता है और पृथ्वी के जीवन व संस्कृति की छवियां बिखेर सकता है। खास बात यह है कि इस कॉपर डिस्क में भारतीय गायिका केसरबाई केरकर का एक गीत- जात कहां हो भी दर्ज है जिसका चयन प्रख्यात खगोल विज्ञानी कार्ल सगॉन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने किया था। वॉयजर की यह यात्रा अचंभित करने वाली है। आश्र्चय है कि कैसे इसकी संचार पण्रालियां और यंत्र पृथ्वी से इतनी दूर होने पर काम कर पा रहे हैं और कैसे यह हम तक संकेत भेज पा रहा है। नासा के मुताबिक वॉयजर-1 में तीन रेडियोआइसोटॉप र्थमोइलेक्ट्रिक जेनरेटर लगे हैं, जो इसकी तमाम पण्रालियों/उपकरणों को जीवित रखे हुए हैं।
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