Sunday, September 22, 2013

कई निशाने साधेगी यह मिसाइल



यकीनन यह बड़ी कामयाबी है। बैलिस्टिक के बाद भारत ने अब अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल तैयार कर इस क्षेत्र में महारत हासिल कर ली है, वह भी स्वदेशी तकनीक से। हालांकि, इसके कुछ कल-पुर्जे दूसरे देशों से खरीदे गए हैं और उनकी मदद से बनाए भी गए हैं। लेकिन अग्नि-पांच का सफल प्रक्षेपण यह बताता है कि साल 1983 में एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम की जो पहल हुई थी, वह आज सही दशा और दिशा में है। इसी के बूते भारत में 'पृथ्वीÓ से लेकर 'अग्निÓ तक कई मिसाइलों की श्रृंखला बनी और मिसाइल शोध तथा विकास के क्षेत्र में भारत को कई बेमिसाल उपलब्धियां हासिल हुईं।
आज भारत अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल संपन्न देशों की सूची में छठे सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका है। अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल की जमीन से जमीन मारक क्षमता 5,000 किलोमीटर से 13,000 किलोमीटर तक होती है। इस हिसाब से देखें, तो अमेरिका अपने यहां से ग्लोब के किसी भी हिस्से में मिसाइल दाग सकता है। यह भी सच है कि चीन अपनी मिसाइलों की क्षमता के कारण अमेरिका को अक्सर घुड़की देता रहता है। ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के पास भी लगभग इतनी ही मारक क्षमता की मिसाइलें हैं। गौर करने वाली बात यह भी है कि ये पांचों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, जबकि छठे देश भारत को अभी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। इसके बावजूद, वह 5,000-8,000 किलोमीटर दूर तक अब मिसाइलें दाग सकता है। इसे ऐसे समझों कि अग्नि-पांच पूरे चीन को अपनी गिरफ्त में ले सकता है, पूरा एशिया इसकी जद में आ गया है, बल्कि यूरोप के कुछ हिस्से भी। इसलिए इसे दुनिया भर में भारत की बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है और नए तरीके से इस क्षेत्र में भू-सामरिक तथा भू-कूटनीतिक समीकरण पर प्रकाश डालने की शुरुआत हो चुकी है।
यह मिसाइल डेढ़ टन के परमाणु हथियार को ले जाने में सक्षम है। एक ही मिसाइल में कई परमाणु हथियारों के तकनीकी प्रयोग की बात भी कही जा रही है। ऐसा अनुमान है कि साल 2016 में इसे भारतीय सेना में शामिल कर लिया जाएगा और जरूरत पडऩे पर राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश पर इसे छोड़ा जाएगा। लेकिन इसका अगला संस्करण क्या होगा, जिस पर रक्षा शोध तथा विकास संगठन, यानी डीआरडीओ इस समय जुटा हुआ है? वह है- केनेस्टर मिसाइल टेक्नोलॉजी। यह एक ऐसी तकनीक है, जिससे मिलिटरी ट्रांसपोर्ट के ऊपर इस मिसाइल को कहीं भी भेजा जा सकता है और वहीं से लॉन्च करना भी मुमकिन हो सकेगा। इस स्थिति में, शत्रु पक्ष ऐसी मिसाइल को आसानी से न्यूट्रलाइज नहीं कर पाएगा। केनेस्टर का मतलब है-एक बड़ा डिब्बा, जिसके अंदर कई परमाणु वारहेड या बम हो सकते हैं। अग्नि-पांच का प्रक्षेपण इतना आसान है कि इसे कहीं से भी छोड़ा जा सकता है। ऐसे में, नए वजर्न से अगर इस मिसाइल को पूवरेत्तर सीमा पर तैनात कर दिया जाए, तो चीन के लिए मुश्किल हो जाएगी। इस मिसाइल का माइक्रो नेवीगेशन सिस्टम यह सुनिश्चित करता है कि यह अपने निशाने से तनिक भी नहीं भटकेगी।
निस्संदेह, डीआरडीओ ने मिसाइल के क्षेत्र में बड़ी बाजी मार ली है। बीते वर्षो में इस संगठन की आलोचना इस आधार पर होती रही है कि यह छोटे और उपयोगी हथियार, मसलन कार्बाइन नहीं बना सकता, पर मिसाइल और क्रिटिकल टेन्टेटिव टेक्नोलॉजी में काफी आगे जा चुका है। यह ठीक भी है, क्योंकि हमारे सैन्य शस्त्रगार लगभग खाली होते जा रहे हैं और बड़े-बड़े हथियार, जिनके इस्तेमाल नहीं हो पा रहे हैं, लगातार बनते जा रहे हैं। लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो अति उन्नत हथियार और दूर तक मार करने वाली क्षमता की मिसाइल की तकनीक हमें कोई दूसरा देश मुहैया नहीं करा सकता या फिर लंबे वक्त तक नहीं दे सकता है। इसलिए इसके निर्माण की स्वदेशी क्षमता का होना जरूरी था और डीआरडीओ इस लक्ष्य में काफी हद तक कामयाब रहा है।
युद्ध में आधुनिक मिसाइलों का इस्तेमाल आखिरी विकल्प होता है। इस मामले में भारत की शुरू से ही 'सेकेंड स्ट्राइकÓ पॉलिसी रही है। 'फर्स्ट स्ट्राइकÓ का मतलब होता है, सबसे पहले मिसाइल दागना। और हमारी रणनीति है कि कोई भी देश अगर हम पर मिसाइल दागता है, तो उसे न्यूट्रलाइज करने के लिए हम उसका जवाब अवश्य देंगे।



हालांकि, अभी जो तनाव है, उसे देखते हुए लगता है कि चीन की नीति हम पर मिसाइल दागने की कभी नहीं रही है, बल्कि वह धीरे-धीरे हमारी जमीन हड़पने की नीति रखता है। हाल की घटनाएं इस तथ्य को और भी पुष्ट करती हैं। ऐसे में, यह तर्क जायज है कि हमें अपनी सेना के तीनों अंगों को अत्याधुनिक और क्षमतावान बनाना होगा। मिलिटरी रिसोर्स व इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक काम करने की आवश्यकता है और इसके लिए हथियारों की खरीद बढ़ानी होगी। साथ ही, स्वदेशी हथियार निर्माण में निजी क्षेत्र को भी आने की इजाजत देनी होगी। अगर हम 'री-इन्वेंटिंग द ह्वीलÓ, यानी हर बार फिर से बैलगाड़ी बनाने की सोच से बाहर निकलें, तो यह सब बड़ी आसानी से मुमकिन है और इसे हमारी उन्नत मिसाइल टेक्नोलॉजी साबित कर चुकी है।
इसमें कोई शक नहीं कि मिसाइल डिफेंस पड़ोसी देशों पर एक किस्म का दबाव बनाता है कि अगर उनमें से किसी ने भी सीमाओं का अतिक्रमण किया, तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। यह 'सीमित युद्धÓ का भी विकल्प देता है। लेकिन भारत जैसे देश के सामने, जो दोनों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ है, सुरक्षा व रक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं और उनसे निपटने का हमारे पास सबसे बड़ा अचूक हथियार युवा शक्ति के रूप में है। पश्चिम के देश चाहते हैं कि भारत अपनी इस क्षमता का अधिक से अधिक इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र में करे। अगर भारत उनके सहयोग से इस शक्ति का इस्तेमाल स्वदेशी हथियार निर्माण और विकास प्रणाली में करता है तथा निजी क्षेत्रों के सहयोग से अपने यहां हथियार बनाने के कल-कारखाने खोलता है, तो अगले दस साल में वह न केवल सुरक्षा तैयारियों के तमाम क्षेत्रों में शिखर पर होगा, बल्कि अपने हथियारों को मित्र देशों में बेचकर काफी धन भी कमा पाएगा। ऐसी स्थिति में, भारत की अर्थव्यवस्था में रक्षा क्षेत्र का भी महत्वपूर्ण योगदान होगा, जो अब तक नहीं है, लेकिन इसके लिए मिसाइल टेक्नोलॉजी जैसी नीतियां अपनानी होंगी।