Monday, September 30, 2013

नदियों से इतनी बेरहमी


कभी मिट्टी के मोल बिकने वाली रेत और बजरी आज अनमोल हो गई है! राजनीतिज्ञ, माफिया और ठेकेदार सब इसके गोरखधंधे में लगे हुए हैं। यहां तक कि देश की सबसे प्रतिष्ठित सेवा के कई अधिकारियों तक को यह रेत-बजरी लील चुकी है। पूरे देश में रेत-बजरी का हजारों करोड़ रुपये का वैध-अवैध धंधा हो रहा है, शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां इस कारोबार को फलने-फूलने का मौका न मिल रहा हो। यह धंधा है बहुत चोखा, क्योंकि रेत-बजरी तो नदियां भर-भर कर लाती हैं, सिर्फ परिवहन का खर्च है। एक रुपये की लागत, पांच रुपये का मुनाफा! यही नहीं, एक ही परमिट की आड़ में फर्जीवाड़ा भी कम नहीं होता।
सरकार ने वर्ष 1957 में खदान व लवण नियम बनाए थे, जिस पर फिर कभी बहस नहीं हुई। इसके अनुसार हर राज्य खनन के लिए खुद ही नियम बनाएगा। मगर कई राज्य सरकारों ने कोई भी नियम नहीं बनाए। मध्य प्रदेश को ही देख लीजिए। अभी तक वहां इस संबंध में कोई भी नियम नहीं बनाया गया है, लेकिन वहां रेत-बजरी का व्यापार खूब जोर-शोर से पनपा है।
वैसे केंद्र ने अब जाकर खनन के लिए पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव के आकलन करने की व्यवस्था की है। इसके तहत पांच से लेकर 50 हेक्टेयर तक के खनन के लिए संबंधित राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होगी। इससे ऊपर के क्षेत्र में खनन के लिए केंद्र से मंजूरी लेनी जरूरी होगी, पर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों ने इन नियमों को ताक पर रख दिया है। इस वर्ष फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय ने इन सब परिस्थितियों को देखते हुए प्रत्येक खनन के लिए ग्रीन सिग्नल की आवश्यकता पर जोर दिया है। इस निर्णय की पृष्ठभूमि में अकेले वर्ष 2010 में अवैध खनन के 82,000 मामले सामने आए थे। इसी तरह पिछले वर्ष 47,000 से अधिक अवैध रेत-बजरी खनन के मामले सामने आए। ऐसे मामलों में कुल बिक्री के आठ प्रतिशत के बराबर जुर्माना भरना पड़ता है या फिर 25,000 रुपये जुर्माना और दो वर्ष तक की जेल। फिर कोई परमिट से चार गुना रेत निकाल ले या सौ गुना, जुर्माना ऊपर वाला ही होगा।
अनुमान के मुताबिक, देश में रेत-बजरी का सालाना 18,734 करोड़ रुपये का कारोबार होता है और हम इस मामले में दुनिया में दसवें नंबर पर हैं। इसमें अवैध खनन का भी हिस्सा है। पर्यावरण से जुड़े एक दल ने स्वीकार किया है कि राजधानी और उसके आसपास यमुना और हिंडन नदियों में अवैध खनन जारी है, जिस पर नियंत्रण आवश्यक है।
हकीकत यह है कि देश की लगभग सभी नदियां खनन की मार झेल रही हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में नर्मदा, चंबल, बेतवा, बेनगंगा आदि नदियों के हालात खनन के कारण गंभीर हैं, तो केरल में भारतपूजा, कुटटुमाड़ी, अचनकोकिला, पम्पा व मेटियार नदियां संकट में हैं। इसी तरह तमिलनाडु में कावेरी, बेगी, पलार, चेटयार नदियों को बेहतर नहीं कहा जा सकता। कर्नाटक में हरंगी, कावेरी और पपलानी जैसी नदियों पर भी खनन का बुलडोजर लगातार चल रहा है। गोदावरी, तुंगभद्रा व नागवली आंध्र प्रदेश की मुख्य नदियां हैं, जो लगातार खनन के कारण मरी जा रही हैं। गुजरात की तापी और बिहार की गंडक, हरियाणा की सतलुज और छत्तीसगढ़ की महानदी की स्थिति भी अत्यधिक खनन से खराब हो रही है। नदियों के इस बेरहम दोहन के पीछे होने वाली कमाई की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। यही नहीं, विभिन्न राज्यों में रेत और बजरी की कीमतों में भी भारी अंतर है। बंगलूरू में एक ट्रक रेत की कीमत 30,000 रुपये है, तो हरियाणा में 15,000 रुपये और पश्चिम बंगाल में 16,000 से 20,000 रुपये तक। अकेले राजस्थान में यह तीन से चार सौ करोड़ का व्यापार है, तो बिहार में करीब आठ हजार करोड़ रुपये का।
इस मारामारी में अगर कुछ बिगड़ा है, तो सिर्फ नदियों का। नदियों की संस्कृति को समझने की आवश्यकता है। हमने इस दिशा में कभी कोई कोशिश नहीं की। हमने नदियों को मात्र अपनी खेती-पानी या रेत-बजरी, पत्थर की आवश्यकता से ज्यादा कुछ नहीं माना। इसके विज्ञान को, जो प्रकृति की देन भी है, हमने सिरे से नकार दिया। नदी प्रकृति के आपसी मंथन का परिणाम होती है। ये हजारों-लाखों वर्षों की पारिस्थितिकीय हलचलों का उत्पाद होती हैं। हमारी नदियों को अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग में लाने की कोशिश आने वाले भविष्य के लिए घातक सिद्ध होगी। नदियों का अत्यधिक खनन उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। देश-दुनिया की सभ्यता नदियों की ही देन है। नदियों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि पानी ही जीवन का मूल तत्व है। नदियों के शोषण की हमने सारी सीमाएं लांघ दी हैं।



नदियों में रेत-पत्थरों के कई मायने होते हैं। इनकी गति के नियंत्रण और भूमिगत जल की आपूर्ति में इनका बड़ा योगदान होता है। देश में भूमिगत पानी की आपूर्ति का बड़ा स्रोत नदियां ही हैं। आज इसकी कमी के कारणों में नदियों का गिरता जलस्तर भी है। नदियों के वेग को थामने और जल संग्रहण में रेत-बजरी की बड़ी अहम भूमिका होती है, ताकि पानी भूमिगत हो सके। यह भी सत्य है कि नदियों में भरी रेत-बजरी को एक सीमा तक हटाया जाना जरूरी है, क्योंकि अत्यधिक मात्रा में इनके जमा होने पर नदियों के रास्ते बदले जाने का भी भय होता है, पर इसकी तय सीमा को कभी भी माना नहीं जाता। ठेके के बाद खनन के सारे नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। पिछले दशकों में यही हुआ है और नदियों को चौतरफा मार मिली है। यदि हम अब भी नहीं चेते, तो स्थिति और खतरनाक हो सकती है।