Thursday, April 25, 2013
भारत में बढ़ रही है ऑर्गेनिक कपड़ों की मांग
स्वास्थ्य एवं त्वचा के लिए बेहतर एवं पर्यावरण अनुकूल होने के कारण देश में बच्चों के लिए भी जैविक (ऑर्गेनिक) कपड़ों की मांग तेजी से बढ़ रही है। इस प्रकार के जैविक कपड़े एलर्जी मुक्त, मौसम के अनुकूल और ज्यादा समय तक टिकने वाले होते हैं। आर्गेनिक खेती के जरिये उगाई गई कपास से ये कपड़े तैयार किए जाते हैं।
पर्यावरण अनुकूल कपड़े बनाने वाली प्रमुख कंपनी ग्रोन स्टॉकहोम के मुख्य कार्यपालक अधिकारी दीपक अग्रवाल ने कहा कि अब लोगों की पहुंच है, अब वे समझ चुके हैं कि केवल सूती कपड़े ही पर्यावरण के अनुकूल और सुरक्षित नहीं हैं।
उन्होंने कहा कि बच्चों के लिए जैविक कपड़ों की मांग बढ़ने का कारण यह भी है कि अब माताएं अपने बच्चों को लेकर ज्यादा चिंतित रहती हैं और वे बच्चों को रसायन वाली डाई के प्रभाव से बचाना चाहती हैं। परंपरागत कपास में इस्तेमाल रसायन का एक समय के बाद बच्चों की त्वचा पर असर पड़ने लगता है।
उन्होंने बताया कि देश में जैविक कपास का उत्पादन रसायन के इस्तेमाल के बगैर किया जाता है, जबकि इनको डाई करने में एक निश्चित और सुरक्षित स्तर तक रसायन इस्तेमाल होता है।
...तो ये भी है दिल की बीमारियों का कारण
आम तौर पर लोग थायरॉइड की समस्या को गंभीरता से नहीं लेते, लेकिन इसके कारण शरीर में कोलेस्ट्रॉल और लिपोप्रोटीन का स्तर अनियमित हो जाता है, जिससे दिल की बीमारियां, ह्दयाघात, अवसाद और आर्थरोस्क्लेरोसिस की आशंका बढ़ जाती है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के संयुक्त सचिव डॉक्टर रवि मलिक ने बताया कि गले में पाए जाने वाली अंत:स्त्रावी ग्रंथि थायरॉइड से निकलने वाला हार्मोन थायरॉक्सिन हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी होता है। किसी कारणवश इस हार्मोन का उत्पादन कम या ज्यादा होने लग जाए तो थायरॉइड की समस्या हो जाती है। थायरॉक्सिन का उत्पादन कम होने पर व्यक्ति को हाइपोथायरॉइड और उत्पादन अधिक होने पर हाइपरथायरॉइड की समस्या हो जाती है।
उन्होंने बताया आम तौर पर लोगों को हाइपोथायरॉइड की समस्या होती है। दवाओं से इसे नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन इसका समय रहते पता चलना अत्यंत महत्वपूर्ण है। वरना यह बीमारी खतरनाक हो सकती है। जिन बच्चों को हाइपोथायरॉइड की समस्या होती है उनका मानसिक विकास बाधित होने की आशंका अधिक होती है, क्योंकि थायरॉक्सिन हार्मोन दिमाग के विकास के लिए बहुत जरूरी है।
इंडियन थायरॉइड सोसायटी के अध्यक्ष तथा कोच्चि स्थित अमता इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च सेंटर में एंडोक्राइनोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ आर वी जयकुमार ने बताया यह कड़वा सच है कि हाइपोथायरॉइड के चलते कोलेस्ट्रॉल और लिपोप्रोटीन का स्तर अनियमित हो जाता है और करीब 90 फीसदी मरीज डिस्लिपीडीमिया के शिकार हो जाते हैं।
डॉक्टर जयकुमार ने बताया डिस्लिपीडीमिया के कारण अवसाद, आर्थरोस्क्लेरोसिस, हदयाघात और दिल की अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। थायरॉइड हार्मोन शरीर में लिपिड सिंथेसिस, मेटाबोलिज्म (चयापचय) और अन्य शारीरिक क्रियाओं में मुख्य भूमिका निभाता है। डिस्लिपीडीमिया की वजह से कोलेस्ट्रॉल, लो डेन्सिटी लिपोप्रोटीन (एलडीएल) कोलेस्ट्रॉल आदि का स्तर बढ़ जाता है जो खुद शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। कोलेस्ट्रॉल के नियंत्रण के लिए दवाएं दी जाती हैं लेकिन थायरॉइड का नियंत्रण इसमें कारगर हो सकता है।
राजधानी के मेट्रो हॉस्पिटल के डॉक्टर अनुपम जुत्शी ने बताया थायरॉइड की समस्या के कारण अनुवांशिकी, पर्यावरणीय या पोषण आधारित हो सकते हैं। यह समस्या किसी भी उम्र में हो सकती है लेकिन आम तौर पर 20 से 40 साल के लोगों को इसकी आशंका अधिक होती है।
डॉक्टर जयकुमार ने बताया थायरॉइड की समस्या ऑटोइम्यून डिजीज की देन भी होती है। किसी कारणवश थायरॉइड ग्रंथि की कोशिकाएं और उतक क्षतिग्रस्त हो जाएं या ये कोशिकाएं और उतक स्वत: ही क्षतिग्रस्त हो जाएं तो थायरॉक्सिन हार्मोन के उत्पादन पर असर पड़ता है। कभी थायरॉइड ग्रंथि में गांठ बन जाती हैं जिससे हामर्ोन उत्पादन प्रभावित हो जाता है। हमारे शरीर को उर्जा उत्पादन के लिए थायरॉइड हार्मोन की निश्चित मात्रा चाहिए। इसमें एक बूंद की कमी या अधिकता उर्जा स्तर को गहरे तक प्रभावित करती है।
डॉक्टर मलिक ने बताया थायराइड की समस्या का स्थायी इलाज नहीं है। लेकिन समय समय पर जांच तथा दवाओं से इसे नियंत्रित रखा जा सकता है और लोग सामान्य जीवन बिता सकते हैं।
कैंसर निरोधी प्रोटीन की हुई खोज
वॉशिंगटन, एजेंसी
कैंसर की गांठों को मारने में इस्तेमाल होने वाले कई तरीके प्रतिरोधक कोशिकाओं को भी मार सकते हैं, लेकिन अनुसंधानकर्ताओं ने अब एक ऐसे प्रोटीन की खोज की है, जो गांठों को दोबारा पैदा होने से रोकने में मददगार हो सकता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा के अनुसंधानकर्ताओं ने स्तन व गर्भाशय के कैंसर सहित कई प्रकार के कैंसर में उपस्थित केएलएफ-8 प्रोटीन पाया है, जो गांठों को दोबारा बनने से रोक सकता है।
जर्नल ऑफ बायोलॉजिकल केमेस्ट्री की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैज्ञानिकों ने पाया है कि केएलएफ-8 प्रोटीन कैंसर गांठ की कोशिकाओं को मारने के लिए दी जाने वाली दवाओं से कोशिकाओं की रक्षा करता है और गांठ की कोशिकाओं की पुनर्जन्म क्षमता को भी बढ़ाता है।
यूनिवर्सिटी की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि प्रोटीन की भूमिकाओं पर अनुसंधान कर रहे प्रोफेसर जिहे झाओ ने बताया है कि सभी कोशिकाओं में डीएनए की मरम्मत का एक तंत्र होता है। इसी कारण हम डीएनए के क्षतिग्रस्त होने के खतरों के बीच भी जिंदा रहते हैं, लेकिन केएलएफ-8 स्तन कैंसर व गर्भाशय कैंसर जैसे खास तरह के कैंसरों में अधिक स्पष्ट रहता है।
झाओ ने कहा है कि विचार यह है कि यदि हम इसकी सक्रियता को रोक सकें, तो हम कैंसर गांठों को वापस बनने से रोक सकते हैं। हमें अभी भी ढेर सारे अनुसंधान की आवश्यकता है, लेकिन यह मुमकिन है।
अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, अकेले अमेरिका में 25 लाख से 27 लाख महिलाएं स्तन कैंसर से पीड़ित हैं और 10 से 20 प्रतिशत मामलों में बीमारी दोबारा पैदा हो सकती है। प्रत्येक वर्ष लगभग 22,200 महिलाओं में गर्भाशय के कैंसर का मामला भी सामने आता है।
डिंपी बनी डॉक्टर
जंबो ने जंगल में कदम रखा तो परेशान हो गया। हर तरफ गंदगी, इतनी गंदगी कि उसे मुंह पर कपड़ा बांधना पड़ गया। जंगल के जानवर गंदगी में सो रहे थे, वहीं पड़ा खाना भी खा लेते थे। जंबो को चलते-चलते खांसी होने लगी।
डिंपी बंदरिया सरकस में काम करती थी। ऊंची कूद लगाना, जलते टायर में से भाग कर निकलना, अपनी कमर पर हाथ रख कर ठुमक-ठुमक कर नाचना उसे खूब आता था। एक बार उनका सरकस एक नदी के पास लगा। नदी में बाढ़ आ गई और सरकस का तंबू ही उखड़ गया। सभी जानवर जान बचा कर भागने लगे। डिंपी तो एक पिंजड़ें में बंद थी। पिंटो रीछ को उस पर दया आ गयी। उसने पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया। डिंपी ने फटाफट पिंजड़े से भागने में भलाई समझी। दौड़ते-भागते डिंपी और पिंटो जंगल में आ गए।
जंगल की जिंदगी डिंपी के लिए बिलकुल अनोखी थी। जब चाहे उठ सकते थे, जहां चाहे जा सकते थे। कोई डांटने वाला ना था, ना कोई मारने वाला। बस एक दिक्कत थी। सरकस में समय-समय पर खाना मिल जाता था। जंगल में अपना खाना खुद जुटाना पड़ता था। शुरू-शुरू में डिंपी को बहुत दिक्कतें आईं। उसे पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर गुलटियां खाना आता था, लेकिन वहां से जामुन या आम तोड़ना नहीं आता था।
लेकिन एक काम जो उसे सबसे अच्छे से आता था वो था सफाई से रहना। डिंपी को सरकस के अनुशासन की आदत थी। वह रोज सबेरे उठ कर अपने घर की सफाई करती। फिर नदी में जा कर नहा कर आती। रोज ही वह साफ धुले कपड़े पहनती। उसे देख कर उसके पड़ोस में रहने वाली अमि बंदरिया खूब हंसती और उसका मजाक उड़ाती। अमि बंदरिया और उसके तीनों बच्चे दिन भर धूल में पड़े रहते। बिना धोए फल और सब्जियां खाते और नहाने का तो नाम भी नहीं लेते।
बाढ़ के बाद जंगल में लगभग हर जानवर बीमार पड़ने लगा। अमि के घर में तो हर किसी की तबियत खराब हो गई। जब जंगल के लीडर रोनी शेर खुद बीमार पड़ गए, तो उन्होंने शहर से डॉक्टर जंबो हाथी को बुलवाया। जंबो ने जंगल में कदम रखा तो परेशान हो गया। इतनी गंदगी, इतनी गंदगी कि उसे मुंह पर कपड़ा बांधना पड़ गया। जंगल के जानवर गंदगी में सो रहे थे, वहीं पड़ा खाना भी खा लेते थे। जंबो को चलते-चलते खांसी होने लगी। सड़क किनारे बुल्लू चीते का ढाबा था। जंबो वहीं बैठ गया। बुल्लू ने उसकी तरफ पानी का गिलास बढ़ाया, तो जंबो ने दूर से मना कर दिया। गिलास में धूल-मिट्टी जमा थी। जंबो ने धीरे से कहा, ‘तुम लोग ऐसा पानी पीते हो, इसीलिए तो बीमार पड़ते हो।’
बुल्लू चीते ने सोच कर कहा, ‘ओह, तब तो तुम्हारे लिए डिंपी से पानी मंगवाना पड़ेगा।’
बुल्लू के बुलाने पर डिंपी चली आई। उसके हाथ में एक फ्लास्क था। डिंपी को साफ-धुले कपड़े में देख कर जंबो की आंखों में चमक आ गई। डिंपी ने फ्लास्क से गिलास निकाल कर पहले उसे धोया, अपना हाथ धोया, फिर जंबो को पानी पिलाया। पानी पीते ही जंबो समझ गया कि डिंपी ने पानी उबाला है। जंबो खुश हो गया, उसने कहा, ‘जिस जंगल में डिंपी रहती है, वहां जानवरों को बीमार क्यों पड़ना चाहिए?’
डिंपी को जंबो रोनी के पास ले गया और रोनी को दवाई देने के बाद जंबो ने घोषणा की, ‘आज से इस जंगल में डिंपी जैसा कहेगी, सब वैसा ही करेंगे। डिंपी की तरह साफ-सफाई से रहेंगे तो कोई बीमार नहीं पड़ेगा।’
डिंपी के पास धीरे-धीरे जंगल के सभी जानवर साफ-सफाई के टिप्स सीखने आने लगे। सबसे पहले तो अमि आई और अमि ने कहा—आज से तुम्हें अपने खाने-पीने की चिंता करने की जरूरत नहीं। बस तुम हमारी हैल्थ का ख्याल रखो, हम तुम्हारा रखेंगे। कहते हैं कि इसके बाद से जंगल में कभी कोई बीमार नहीं पड़ा।
गंगनम स्टाइल
तुम सबने गंगनम स्टाइल के बारे में काफी कुछ सुना होगा। हो सकता है तुमने इसका वीडियो भी देखा हो और दुनिया की कई बड़ी हस्तियों की तरह इस पर जमकर डांस भी किया हो। लेकिन क्या तुमने कभी सोचा है कि आखिर कहां से आया ये गंगनम स्टाइल और पूरी दुनिया में इसने कहां-कहां लोगों को अपना दीवाना बनाया? आज तुम्हें गंगनम स्टाइल की कहानी और उससे जुड़ी कई अनोखी बातें बता रही हैं शुभा दुबे
कहां से आया यह स्टाइल
गंगनम स्टाइल दक्षिण कोरिया के मशहूर रैप गायक साई का मस्ती भरा गाना है। इस कोरियन पॉप गाने का वीडियो जुलाई 2012 में रिलीज हुआ था, जिसे दुनियाभर में रिकॉर्ड तोड़ हिट मिले। यह गाना साई के छठे एलबम साई 6 (सिक्स रूल्स) का है। तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि जुलाई में रिलीज हुआ यह वीडियो दिसंबर 2012 तक इंटरनेट पर सबसे ज्यादा देखा जाने वाला वीडियो बन गया था। तुम हमेशा सोचते होगे कि आखिर यह गंगनम शब्द आया कहां से? दरअसल गंगनम दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल का एक जिला है। माना जाता है कि यहां के लोग फैशन पसंद और शाही रहन-सहन वाले होते हैं। यहां के लोगों की एक खासियत होती है कि वे अपने आपको दूसरों से बड़ा नहीं समझते और न ही गंगनम का निवासी होने का रौब दिखाते हैं। पर कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो खुद को गंगनम के लोगों जैसा बताते हैं। साई ने अपने गाने की मदद से ऐसे ही लोगों का मजाक बनाया है, जो होते कुछ हैं और दिखाते कुछ और हैं।
किसने किया गंगनम स्टाइल
इस गाने को सुनते ही तुम में से कईयों का मन अपनी कुर्सी से उठकर नाचने का करता होगा। रैप गायक साई की ओर से घुड़सवारी की तरह के इस डांस स्टाइल पर मशहूर हस्तियां भी खुद को थिरकने से नहीं रोक पाईं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तक सभी को गंगनम स्टाइल ने नाचने पर मजबूर कर दिया। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून भी खुद को नहीं रोक पाए और साई के साथ मिलकर इस गाने पर झूमे। उन्होंने तो इस गाने को दुनिया में शांति लाने की ताकत का दर्जा दे दिया। इनके अलावा हॉलीवुड और बॉलीवुड की मशहूर हस्तियों के साथ-साथ कई बड़े खिलाडियों ने भी इस गाने की डांस स्टाइल को अपनाया। फिर चाहे वह वेस्ट इंडीज के क्रिकेट खिलाड़ी क्रिस गेल हों या बांग्लादेश की क्रिकेट टीम, सभी ने इस गाने पर थिरक कर अपनी खुशी जाहिर की। अब इंतजार किस बात का है, गंगनम स्टाइल चलाओ और नाचने के लिए तैयार हो जाओ।
उड़ीसा में हर साल लगती है मादा कछुओं की भीड़
क्या आप जानते हैं कि कछुए की एक प्रजाति ऐसी भी है, जो अपने अंडे उसी स्थान पर देती है, जहां उसका जन्म हुआ होता है? उड़ीसा के गहिरमठ बीच के पास पाए जाने वाली मादा ऑलिव रिडले प्रजाति ऐसा ही करती है। यही वजह है कि इस प्रजाति की मादा कुछआ कितनी ही दूर क्यों न चली जाएं, हर साल अपने जन्म स्थल पर लौट कर आती ही हैं। दिसंबर से अप्रैल महीने के बीच उड़ीसा के इस तट पर मादा ऑलिव काफी बड़ी संख्या में इकट्ठी हो जाती हैं। वहीं यह जानना भी काफी दिलचस्प है कि नर ऑलिव कछुए जहां सुरक्षा के कारण समुद्र में ही रहना पसंद करते हैं, वहीं मादा कछुआ बहादुर मानी जाती हैं, जो हर साल लंबी-लंबी समद्री यात्रा पार करके समुद्र तट पर अंडे देने आती हैं।
दुनिया का सबसे ऊंचा रोप पार्क
रोप-वे में बैठकर ऊपर या नीचे सफर करते वक्त बड़ा मजा आता है। सफर के दौरान नीचे देखने में डर भी लगता है, पर दुख इस बात का होता है कि यह सफर चंद मिनटों में खत्म हो जाता है। यानी यह सफर लंबा नहीं होता है। अब लोगों की यह समस्या दूर हो सकती है। एडवेंचर प्रेमी ऐसे लोगों के लिए कजाकिस्तान में एक रोप पार्क हाल ही में बनाया गया है। यह पार्क कजाकिस्तान के अलमाती के पास थिआनशान पर्वत पर एक रिजॉर्ट में बनाया गया है। इसकी खासियत यह है कि यह दुनिया का सबसे ऊंचा और अनूठा रोप पार्क खुला है। इस पार्क की ऊंचाई समुद्र तल से 22250 मीटर है। यह खास इसलिए है, क्योंकि यह पूरा पार्क आर्टिफिशियल सपोर्ट से बनाया गया है। इसमें 80 मीटर ऊंचाई से बंजी जंपिंग की जा सकती है। इस पार्क का आनंद वे ही लोग ले सकते हैं, जो एडवेंचर के शौकीन हैं। इस पार्क में काफी संख्या में लोग बंजी जंप करने जाते हैं।
सबसे बड़ा कैप्सूल होटल
तरह-तरह के होटलों के बारे में हम सबने सुना है और कई बार इनमें ठहरना भी हुआ होगा। पर क्या तुम कैप्सूल होटल के बारे में जानते हैं? कैप्सूल होटल इंडिया में नहीं है, पर कई अन्य देशों में खासी संख्या में हैं। ये होटल तमाम देशों के उन शहरों में हैं, जहां पर वेतन कम है और महंगाई अधिक होती है। लोग सस्ते में रात गुजार सकते हैं। हाल ही में चीन में दुनिया का सबसे बड़ा कैप्सूल होटल बनाया गया है। चीन के शाडान्ग प्रांत के किंगडाओ शहर में बनाया गया यह होटल धीरे-धीरे काफी लोकप्रिय हो रहा है। कैप्सूल में वे सारी सुविधाएं होती हैं, जो होटलों में होती हैं। इसमें एलसीडी टीवी, वाईफाई कनेक्शन, एक कंप्यूटर, डेस्ट, ड्रेसर और बिस्तर होता है। हालांकि ये बेहद संकरे होते हैं, लेकिन रात गुजारने के लिए पर्याप्त होते हैं। इनकी लंबाई दो मीटर, चौड़ाई 1 मीटर और ऊंचाई भी एक मीटर से अधिक होती है। अब बात की जाए यहां के किराए की। यहां पर ऑफ सीजन में भारतीय मुद्रा के अनुसार 387 रुपए और पीक सीजन में 691 रुपए देने पड़ते हैं। इस होटल में 100 कैप्सूल कमरे हैं, जो अब तक का सबसे बड़ा कैप्सूल होटल है।
पत्थर काटकर बनाया घर
घरों में पत्थरों का इस्तेमाल तो लोग खूब करते हैं, पर मेक्सिको में एक सज्जन ने पत्थर को काटकर घर बना लिया। हालांकि इन सज्जन ने शौकिया तौर पर नहीं, बल्कि मजबूरी में घर बनाया है। सैन जो लास पियार्दस के पास एक परिवार 30 सालों से एक पत्थर के नीचे घर बनाकर रह रहा है। इस पत्थर का व्यास 131 फुट है। यह इलाका कोहुइला रेगिस्तान में है। परिवार के मुखिया के अनुसार, किसी छोटी सी बात पर उसके परिवार को सैन जो के लोगों ने इलाके से बाहर निकाल दिया था। इसके बाद व्यक्ति ने मजबूरी में कुछ ही दूरी पर एक पत्थर को काटना शुरू किया और उसी पत्थर के नीचे पूरा घर बना लिया है। इस घर को बनाने में उसे कई वर्ष का समय लग गया था।
पंछी बने उड़ते फिरें हैंग ग्लाइडिंग
हवाई जहाज में बैठकर आसमान में यात्रा की जा सकती है, पर क्या इसमें वो रोमांच होता होगा, जो पक्षियों को होता है? जवाब होगा नहीं। हां, पर हैंग ग्लाइडिंग के जरिए एडवेंचर के शौकीन लोग जरूर तेज हवा में तैरते हुए ऊंचे उड़ने की चाहत पूरी कर सकते हैं।
पक्षियों को ऊंचे उड़ते देखकर तुम्हारा मन भी करता होगा कि काश, हम भी उड़ पाते। हालांकि थोड़े बड़े होने के बाद जरूर तुम अपनी इस इच्छा को पूरा कर सकते हो। हैंग ग्लाइडिंग तेज हवा में आसमान से बातें करने की चाह रखने वाले एडवेंचर के शौकीनों के लिए बढिया विकल्प है। हैंग ग्लाइडिंग की शुरुआत 1984 में हुई थी। तब हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में पहली बार हैंग ग्लाइडिंग प्रतियोगिता आयोजित की गई थी।
‘हैंग ग्लाइडिंग’ एक रोमांचक एयरोस्पोर्ट्स यानी हवा में खेले जाने वाला खेल है। यह खेल आज एडवेंचर टूरिज्म का हिस्सा बन चुका है। विशाल पक्षी के पंखों जैसे नजर आते ग्लाइडर को पकडम्कर हवा में उड़ते व्यक्ति को देखने से ही मन में एक रोमांच पैदा होने लगता है। स्वयं ग्लाइडिंग करना तो वास्तव में एक अद्वितीय अनुभव होगा। हैंग ग्लाइडिंग में प्रयोग होने वाला ग्लाइडर मेटल का बना एक बड़ा सा तिकोना फ्रेम होता है, जिस पर पाल लगी होती है। इस फ्रेम को पकड़कर हवा में उड़ना ही हैंग ग्लाइडिंग कहलाता है।
कैसे काम करता है हैंग ग्लाइडर
मजे की बात यह है कि हैंग ग्लाइडर में किसी तरह का इंजन आदि नहीं लगा होता। यह तो खिलाड़ी को पूरी तरह अपनी दक्षता के आधार पर उड़ना होता है। यही कारण है कि ऊंची पहाडियों में तेज हवा में तैरना किसी भी साहसी व्यक्ति के लिए एक चुनौती भरा आकर्षण होता है। हैंग ग्लाइडर की बनावट एवं मजबूती हवा में ग्लाइडर का संतुलन बनाये रखने में सहयोग देती है। एल्यूमीनियम से बना इसका फ्रेम करीब 18 फीट चौड़े तिकोने आकार का होता है। इस पर मजबूत सिंथेटिक फेब्रिक की पाल लगी होती है। फ्रेंम के मध्य एक रॉड होती है, जिसे कंट्रोल बार कहते हैं। उडमन आरम्भ करने के लिए पायलट यह रॉड पकडम्कर पहले पहाड़ी ढलान पर दौड़ता है। बस कुछ ही पल बाद ग्लाइडर हवा से बातें करने लगता है।
हैंग ग्लाइडिंग के दौरान पायलट पीठ में बांधे हारनेस द्वारा फ्रेम में लगी रस्सियों के सहारे लटका रहता है, जिससे उड़ने के दौरान थकान महसूस नहीं होती। इस बीच कंट्रोल बार द्वारा ग्लाइडर को नियंत्रित किया जाता है। पायलट अधलेटी अवस्था में लटके हुए अपने शरीर के झुकाव द्वारा ग्लाइडर की दिशा को परिवर्तित करता है। उडमन समाप्त करने के लिए उड़ते हुए पहले किसी उचित स्थान की पहचान की जाती है। फिर सावधानी से ग्लाइडर को उस दिशा में लाकर ढलान पर ही उतारा जाता है।
हालांकि मौसम कैसा है, यह बात भी मायने रखती है, पर अच्छी उड़ान की मुख्य जिम्मेदारी उड़ान भरने वाले व्यक्ति की दक्षता पर ही होती है।
दुनियाभर में लाखों हैं दीवाने
पूरे विश्व में तीन लाख से भी अधिक लोग हैंग ग्लाइडिंग से जुड़े हैं। आज यह एक अन्तर्राष्ट्रीय साहसी खेल का दर्जा पा चुका है। अनेक देशों में सैकड़ों हैंग ग्लाइडिंग क्लब बने हुए हैं। हमारे देश में हैंग ग्लाइडिंग की शुरुआत 1984 में हुई थी। तब हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में पहली बार हैंग ग्लाइडिंग प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। उस समय से कांगड़ा घाटी का ‘बिलिंग’ नामक वह स्थान एयरोस्पोर्ट्स का प्रसिद्ध केन्द्र बन गया है। देश के कई राज्यों में उपयुक्त स्थान खोज कर वहां भी हैंग ग्लाइडिंग का आयोजन होने लगा। आज कांगड़ा के अतिरिक्त शिमला, धर्मशाला, सौली, पूना, सिंहगढ़, कामशेट, मऊ, इंदौर, मैसूर, ऊटी, शिलांग तथा सिकिकम में हैंग ग्लाइडिंग की सुविधाएं उपलब्ध हैं।
इसके लिए थोड़े से प्रशिक्षण की आवश्यकता है, बस फिर तो कोई भी साहसी व्यक्ति हैंग ग्लाइडिंग कर सकता है। यह प्रशिक्षण कोई खास तकनीकी ज्ञान आदि से जुड़ा भी नहीं होता। पर इस खेल का मजा लेने के लिए साहस के साथ इसके लिए मस्तिष्क की एकाग्रता आवश्यक है। एक अच्छे प्रशिक्षण द्वारा दो सप्ताह में हैंग ग्लाइडिंग सीखी जा सकती है। उसके बाद पर्याप्त अभ्यास करने के बाद ऊंची उड़ान भरी जा सकती है।
हालांकि हमारे देश में हैंग ग्लाइडिंग के प्रशिक्षण केन्द्रों की संख्या कम है। फिर भी बहुत से शहरों में हैंग ग्लाइडिंग क्लब मौजूद हैं। इनका सदस्य बन कर इस खेल से जुड़ा जा सकता है। आजकल इंजन से चलने वाले ग्लाइडर भी प्रयोग किए जाने लगे हैं। हैंग ग्लाइडिंग की इंजन रहित उडमन ‘फ्री फ्लाइंग’ कही जाती है, जबकि इंजन चालित ग्लाइडर की उडमन को ‘ट्राइक’ कहते हैं। इसमें एक छोटा सा इंजन फ्रेम के साथ जुड़ा होता है, जिसके पीछे एक पंखा लगा होता है। नीचे तीन पहिए भी लगे होते हैं। यह मैदानों से भी उड़ाया जा सकता है।
यहां सीख सकते हो
दिल्ली ग्लाइडिंग क्लब, सफदरजंग एयरपोर्ट, नई दिल्ली
ग्लाइडिंग एंड सोरिंग सेंटर, कानपुर
राजस्थान स्टेट फ्लाइंग स्कूल, जयपुर
पिंजौर एविएशन क्लब (ग्लाइडिंग विंग), पिंजौर
ग्लाइडिंग सेंटर, पूना
एयरोस्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स, बीड़ा, कांगड़ा
एडवेंचर स्पोर्ट्स हॉस्टल, धर्मशाला
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