Thursday, August 29, 2013

दुनिया के सबसे लम्बे बाल


25 सालों से नहीं की बालों में कंघी
उसके बाल साफ करने में एक बार में छ: शंपू के बॉटल लग जाते हैं। बाल सूखने में दो दिन लगते हैं। 17 किलोग्राम सिर्फ उसके बालों का वजन है, जिसे वह सिर पर हमेशा ढोती है। डॉक्टर कहते हैं कि उसके बालों के वजन के कारण उसे लकवा मार सकता है और वह अपाहिज हो सकती है। 25 सालों से उसने बाल नहीं कटाए, न कंघी किया है। आज भी अपने बाल कटवाने को वह अपनी मौत के समान मानती है। बालों के बीच बैठी यह महिला आशा मंडेला हैं। आशा मंडेला मूल रूप से त्रिनिदाद की हैं। त्रिनिदाद से न्यूयॉर्क आने के बाद ही उन्होंने अपने बालों को प्राकृतिक रूप से बढ़ाने का फैसला किया।
आशा की मां को इनका यह फैसला मंजूर नहीं था, परन्तु आशा अपनी बात पर अटल रहीं। शुरूआत में उन्होंने बस बाल बढ़ाए, धीरे-धीरे इसमें कंघी न कर लटें बनाने का फैसला किया। सुनने में आसान लगने वाला यह फैसला इतना आसान नहीं था। बालों की लटें बढऩे के साथ ही उसका भार भी बढ़ रहा था जो आशा की कमर और कंधे को नुकसान पहुंचा सकता था।
असामान्य रूप से इतने लंबे बालों की देखरेख भी आसान नहीं थी, लेकिन आशा ने हार नहीं मानी। इस तरह वर्ष 2008 में विश्व की सबसे लंबी लटों के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में उनका नाम दर्ज हुआ। इसे कायम रखते हुए 2010 में उन्होंने अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ा। आज भी आशा विश्व की सबसे लंबी लटों की मल्लिका हैं और उनका नाम गिनीज बुक में दर्ज है।
डॉक्टर बालों के भार से उन्हें लकवा होने की आशंका जता चुके हैं, परन्तु आशा को अपने इन लंबी लटों से इतनी मुहब्बत है कि वे इसके बिना जीने की कल्पना भी दुखद मानती हैं। आशा का अपनी लटों के लिए प्रेम तो स्वाभाविक है। इन्होंने इसके लिए 25 साल मेहनत की है, लेकिन आम लोगों के लिए उनकी लटें अजूबा से कम नहीं।
न्यूयॉर्क की आशा के बाल 55 फीट 7 इंच लंबे हैं। आशा ने अपने बालों को बढ़ाने के साथ ही उसमें कंघी करना भी छोड़ दिया है। आज उनकी 55 फीट 7 इंच लंबे बालों की लटें हैं। इसके लिए आशा का नाम गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज हो चुका है।







Tuesday, August 13, 2013

इस अमृत से बनती है नौनिहालों की सेहत


एक शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि मां के दूध पर पलने बढऩे वाले बच्चे भविष्य में ऊंचाईयों पर पहुंचते हैं। इस अमृत को पीकर ही बच्चे हर प्रकार की बीमारी से बचे रहते हैं। और मानसिक रूप से भी उतने ही सुदृढ़ होते हैं। प्रेगनेंसी के दौरान या डिलिवरी के तुरंत बाद बनने वाला गाढ़ा पीला दूध नवजात के लिए सवरेत्तम माना जाता है। इसमें कई प्रकार के पोषक तत्व होते हैं, जो बच्चों की सुरक्षा करने में सहायक होते हैं।
पचने में आसान बच्चों को और खासतौर से प्रीमेच्योर बेबीज को मां के दूध के अलावा कोई अन्य दूध पचाने में परेशानी आती है। बाजार में मिलने वाले डिब्बाबंद दूध में प्रोटीन होता है, यह गाय के दूध से तैयार किया जाता है, जिसे नवजातों को पचाने में दिक्कत आती है।
और भी मिलता है लाभ
विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रेस्टफीडिंग से ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा भी कम होता है और यह डिलिवरी के बाद वजन को नियंत्रित करने का भी काम करता है। ब्रेस्टफीडिंग कराने वाली कामकाजी महिलाओं को अपने काम से कम ब्रेक लेना पड़ता है क्योंकि उनके बच्चे कम बीमार पड़ते हैं। बीमारियों से सुरक्षा दूध में मौजूद सेल्स, हार्मोन, एंटीबॉडीज की मौजूदगी बच्चों को कई बीमारियों से बचाती है।
डिब्बाबंद दूध पोषण के मामले में मां के दूध की तुलना नहीं कर सकता है। जो बच्चे डिब्बाबंद दूध पर बड़े होते हैं उनमें ईयर इंफेक्शन और डायरिया काफी आम होता है। साथ ही कई अन्य बीमारियां होने की आशंका बनी रहती है।
. लोअर रेस्पेरेटरी इंफेक्शन. दमा. मोटापा. टाइप 2 डायबिटीज. एक शोध में यह बात स्पष्ट हुई है कि ब्रेस्टफीडिंग से टाइप 1 डायबिटीज, चाइल्डहुड ल्युकेमिया और स्किन रैश जैसे अटॉपिक डर्मटाइटिस का खतरा भी कम होता है। साथ ही यह सडन इनफेंट डेथ सिंड्रोम के खतरे से भी बच्चे को बचाता है। मां को भी होता है फायदा. ब्रेस्टफीडिंग से बच्चे के साथ-साथ मां की सेहत पर भी प्रभाव पड़ता है।
. टाइप 2 डायबिटीज की आशंका कम होती है।
. ब्रेस्ट कैंसर का खतरा कम हो जाता है।
. ओवेरियन कैंसर की आशंका कम होती है।
. पोस्टपार्टम डिप्रेशन कम होता है। नहीं मिल रहा हो पर्याप्त दूध अधिकांश मांओं को इस बात की चिंता रहती है कि उनके बच्चे को पर्याप्त मात्रा में दूध नहीं मिल रहा है,लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम होती है। वैसे अपनी तसल्ली के लिए डॉक्टर से इस बारे में सलाह ली जा सकती है।
. यदि बच्चा करीब छह हफ्ते या दो महीने का हो चुका है और वक्षों में लंबे समय तक खालीपन महसूस हो तो यह सामान्य प्रक्रिया है। इस अवस्था तक पहुंचते- पहुंचते बच्चों को पांच मिनट तक ब्रेस्टफीडिंग की जरूरत होती है। इसका अर्थ है कि मां और बच्चा स्तनपान की प्रक्रिया से संतुलन बनाना सीख गए हैं और बेहतर तरीके से दोनों अपना काम कर रहे हैं।
. बच्चे का विकास तेजी से हो रहा है तो उसे और अधिक फीड कराने की जरूरत होती है। दो से तीन हफ्ते, छह हफ्ते से तीन महीने के बीच बच्चे का विकास तेजी होता है। वैसे यह वृद्धि किसी भी उम्र में हो सकती है। बच्चे के विकास के अनुसार पूर्ति करें। मां के दूध की तुलना अमृत से की गई है।
बच्चों को जन्म के तुरंत बाद मां का पीला गाढ़ा दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। कोलोस्ट्रम नाम से जाना जाने वाला यह पीला गाढ़ा दूध लिक्विड गोल्ड कहलाता है। इस अमृत को पीने वाले नवजातों को भविष्य में स्वास्थ्य संबंधी परेशानी नहीं होती। इंफेक्शन होने पर स्तनपान कराने वाली मां को यदि बुखार और कमजोरी जैसे लक्षण नजर आएं तो तुरंत डॉक्टर को दिखाएं। यह इंफे क्शन के कारण हो सकता है। इसके कुछ लक्षण इस प्रकार नजर आते हैं।
. इसमें दोनों ही ब्रेस्ट प्रभावित नजर आते हैं।
. दूध में पस या खून का नजर आना।
. ब्रेस्ट के आस-पास लालिमा छा जाना।
विशेषज्ञ की राय भारतीय महिलाएं बच्चों को फॉमरूला दूध देना पसंद नहीं करतीं। स्तनपान से मां को भी फायदा होता है। डिलवरी के बाद की ब्लीडिंग जल्दी ठीक हो जाती है। महिलाएं पहले की तरह ही शेप में आ जाती हैं। स्तनपान के दौरान साफ-सफाई रखें ताकि बच्चे को इंफेक्शन न हो।

नए इंटरनेट प्रोटोकॉल की तैयारी


आने वाले समय में मशीनें आपस में बात करेंगी। आप खुद भी अपने फ्रिज, एयर कंडिशनर, वॉशिंग मशीन या अवन से सीधे संवाद कर सकेंगे क्योंकि ये सब मशीनें इंटरनेट के जरिए एक-दूसरे से, और फोन या किसी और प्राइवेट गैजट के जरिए आप से भी जुड़ जाएंगी। लेकिन मशीनों को आपस में जोडऩे के लिए हमें इंटरनेट प्रोटोकॉल (आईपी) के नए वर्जन की जरूरत पड़ेगी। यदि आज दुनिया नेट से जुडी हुई है तो उसका श्रेय इंटरनेट प्रोटोकॉल को ही जाता है। इंटरनेट प्रोटोकॉल बुनियादी रूप से एक कम्युनिकेशन प्रोटोकॉल है, जिसका इस्तेमाल नेटवर्क पर डेटा के पैकेट्स भेजने के लिए किया जाता है। इस वक्त हम इसी प्रोटोकॉल का आईपीवी 4 नामक वर्जन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो 35 वर्ष पुराना हो चुका है।


आईपीवी 4 में पतों के लिए 32 बिट की जगह है, जिसकी वजह से कुल मिला कर 4.3 अरब आईपी अड्रेस संभव हो पाए हैं। लेकिन जिस तेजी से इंटरनेट, ब्रॉडबैंड और मोबाइल सेवाओं का विस्तार हो रहा है, उससे आईपी अड्रेस की मांग में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। इसका नतीजा यह है कि पूरी दुनिया में आईपीवी 4 के अड्रेस अब लगभग खत्म होने के मुकाम पर पहुंच चुके हैं और नए अड्रेस की गुंजाइश बहुत कम बची है। आईपीवी 4 की सीमाओं को भांपते हुए इंटरनेट इंजिनियरिंग टास्क फोर्स ने नब्बे के दशक में इंटरनेट प्रोटोकॉल वर्जन 6 (आईपीवी 6) का विकास किया था। इस वर्जन में पतों के लिए 128 बिट की जगह है। इस तरह इसमें असीमित आईपी अड्रेस की गुंजाइश है। इस वर्जन में सुरक्षा और सेवाओं की बेहतर क्वालिटी देने वाले फीचर भी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आईपीवी 6 का विकास आईपीवी 4 के समक्ष आई चुनौतियों को ध्यान में रख कर किया गया है।
इंटरनेट प्रोटोकॉल के मौजूदा संस्करण की सबसे बड़ी समस्या अभी सुरक्षा की बनी हुई है। आए दिन कोई न कोई वायरस, वॉर्म या कोई और मालवेयर लोगों की नींद हराम किए रहता है। आईपीवी 4 में इन चीजों से बचने के लिए जो सुरक्षा उपाय तैयार किए जाते हैं, वे नए मालवेयर्स के सामने थोड़ी देर भी नहीं टिक पाते। हैकरों के लिए भी किसी सिस्टम में घुसकर अति गोपनीय जानकारियां निकाल लेना, किसी भी बैंक का अकाउंट कर लेना या किसी क्रेडिट कार्ड का क्लोन तैयार करके अच्छे-भले आदमी को मिनटों में कंगाल कर देना बच्चों का खेल हो गया है। इसकी अकेली वजह यह है कि मात्र 32 बिट के पते में सेंधमारी करना उनके लिए बहुत आसान है। इसकी चार गुना या यानी 128 बिट में लिखे जाने वाले आईपीवी 6 के पते कहीं ज्यादा जटिल होंगे और आने वाले दिनों में इसका इस्तेमाल करने वाले लोग खुद को कहीं ज्यादा सुरक्षित महसूस कर सकेंगे।



आईपीवी 4 के स्थान पर आईपीवी 6 को अपनाने की जरूरत दुनिया में काफी समय से महसूस की जा रही है। आईपी के नए वर्जन को अपनाने में अभी जापान काफी आगे चल रहा है। उसने नब्बे के दशक में ही नए वर्जन की तैनाती शुरू कर दी थी। वहां लाखों स्मार्टफोन, टैबलट और दूसरे उपकरण आईपीवी 6 नेटवर्क पर निर्भर हैं। एशिया के दूसरे दिग्गज चीन ने भी अपने नेक्स्ट जेनरेशन इंटरनेट प्रोजेक्ट के जरिए दुनिया का सबसे बड़ा आईपीवी 6 नेटवर्क खड़ा कर दिया है। यूरोप में नए वर्जन को अपनाने में अपेक्षाकृत पिछड़ा समझा जाने वाला मध्य यूरोपीय देश फिलहाल रोमानिया 8.43 प्रतिशत की दर के साथ सबसे आगे चल रहा है। फ्रांस में यह दर 4.69 है, जबकि अमेरिका की दर 1.7 प्रतिशत है। भारत ने भी इसकी गंभीरता को समझा है, हालांकि इंटरनेट प्रोटोकॉल के नए वर्जन को अपनाने की हमारी दर अभी सिर्फ 0.24 प्रतिशत है। नेट संचालित अर्थव्यवस्था के युग में आईपी के नए वर्जन में पारंगत होना बेहद जरूरी है।
भारतीय दूरसंचार विभाग ने नए वर्जन के बारे में पहला रोडमैप अथवा नीतिगत दस्तावेज 2010 में तैयार किया था। पिछले साल जारी की गई राष्ट्रीय दूरसंचार नीति ने आईपीवी 6 के महत्व को समझते हुए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में इसके उपयोग को रेखांकित किया था। लेकिन आईपीवी 4 के स्थान पर आईपीवी 6 को लागू करना आसान नहीं है। इसके लिए कोई निश्चित समय तय करना बहुत मुश्किल है। प्रोटोकॉल बदलना एक बहुत जटिल और दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इसका संक्रमण काल बहुत लंबा है। आईपीवी 6 की शुरुआत होने पर भी आईपीवी 4 का उपयोग कई वर्षों तक जारी रहेगा। यह स्थिति भारत ही नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों में बनी रहेगी। आईपीवी 6 को सिर्फ चरणबद्ध तरीके से ही लागू किया जा सकता है।
सरकार ने सभी स्टेक होल्डरों अथवा पक्षकारों से विस्तृत विचार-विमर्श के बाद आईपीवी 6 रोडमैप का दूसरा संस्करण पिछले मार्च में जारी किया था। इस नए रोडमैप में सभी सर्विस प्रोवाइडरों, उपकरण निर्माताओं और सरकारी संगठनों के लिए कुछ खास निर्देश जारी किए गए हैं। रोडमैप के अनुसार भारत में अगले साल 30 जून के बाद बेचे जाने वाले सभी मोबाइल फोनों, टैब्लेट्स और दूसरे उपकरणों में आईपीवी 6 ट्रैफिक के वहन की क्षमता होनी चाहिए। सरकारी संगठनों को प्रोटोकॉल का नवीनतम वर्जन अपनाने के लिए इस साल दिसंबर तक अपनी योजनाओं को अंतिम रूप देने को कहा गया है। इस रोडमैप पर आगे बढऩा सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अधिकांश सरकारी संगठन इस बारे में जागरूक नहीं हैं और न ही उन्होंने तकनीकी अपग्रेडेशन के लिए अपने वार्षिक बजटों में कोई प्रावधान किया है। सरकारी दफ्तरों में रखे उपकरणों का नवीकरण अथवा नए उपकरणों की खरीद अपने आपमें एक बड़ी समस्या है। आईपीवी 4 से आईपीवी 6 में जाने की प्रक्रिया की देखरेख करने के लिए आईपीवी 6 में प्रशिक्षित इंजिनियरों की भी भारी कमी है। रोडमैप में कॉलेजों के तकनीकी कोर्सों में अब आईपीवी 6 को शामिल करने का सुझाव दिया गया है, जिस पर तुरंत अमल किया जाना चाहिए। हालांकि यह काम कुछ साल पहले शुरू हो गया होता तो अभी हम ज्यादा बेहतर स्थिति में होते। भारत ने 2017 तक 17.5 करोड़ और 2020 तक 60 करोड़ ब्रॉडबैंड कनेक्शन देने का लक्ष्य बनाया है। देश में मौजूद डिजिटल खाई को पाटने के लिए अगर हमें ब्रॉडबैंड क्रांति को सफल बनाना है तो हमें जल्द से जल्द आईपी के नए वर्जन को अपनाना पड़ेगा। नई पीढ़ी का नेटवर्क भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से भी बहुत फायदेमंद हो सकता है। आईपीवी 6 आधारित प्रॉडक्ट्स और सेवाओं को देश में ही विकसित करके दुनिया के दूसरे देशों को निर्यात भी किया जा सकता है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा, टेली एजुकेशन, स्मार्ट ग्रिड, स्मार्ट सिटी और स्मार्ट बिल्डिंग आदि में आईपीवी 6 आधारित एप्लिकेशंस देश के आर्थिक-सामाजिक विकास को काफी तेजी से आगे ले जा सकते हैं, और हमें इसका भरपूर लाभ उठाना चहिए।

Saturday, August 10, 2013

बनाएं प्लास्टिक के खिलौने

भारत में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या को देखते हुए मानव संसाधन और लघु उद्योग मंत्रालय ने स्वरोजगार को बढ़ावा देने की अच्छी पहल की है। 'प्लास्टिक टॉय मेकिंगÓ भी इसी का हिस्सा है। इसके अंतर्गत प्लास्टिक खिलौनों के डिजाइन से लेकर उनके रंग-रूप एवं उन्हें अंतिम रूप देने संबंधी हर कार्य किए जाते हैं।
खिलौने बनाने के लिए जरूरी
स्वयं में कलात्मक क्षमता, बच्चों की पसंद-नापसंद को परखना, रंगों का संयोजन, मार्केटिंग एवं बिजनेस स्किल्स आदि को आत्मसात करना बेहद जरूरी है।
प्रशिक्षण एवं खर्च
प्लास्टिक टॉय मेकर बनने के लिए प्रशिक्षण बेहद जरूरी है, क्योंकि इसके लिए डिजाइनिंग, क्रिएटिविटी, बाजार की मांग तथा अन्य सम्यक जानकारी जरूरी है। सरकारी संस्थानों में छह माह से वर्ष भर की फीस 4,000 रुपए और गैर सरकारी संस्थानों में दोगुनी है।
यूनिट खर्च
यूनिट लगाने में काफी कम खर्च आता है। आप चाहें तो 50 हजार से भी मैन्युफैक्चरिंग शुरू कर सकते हैं।
मार्केटिंग
वैसे तो प्लास्टिक टॉय की मांग भारत के बाजारों में भी काफी है, लेकिन अन्तरराष्ट्रीय डिमांड भी बहुत है। हालांकि चीन जैसा विकसित देश इन मांगों को पूरा करने के लिए अग्रसर है, इसके बावजूद खिलौनों का उद्योग दिन-प्रतिदिन फल-फूल रहा है।
ऋण देने वाले बैंक
पब्लिक सेक्टर व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
कॉरपोरेशन बैंक
केंद्रीय व राज्य सरकार की वित्तीय संस्थाएं
आमदनी
आज अन्तरराष्ट्रीय मांग को देखते हुए उद्यमी छोटी से छोटी यूनिट भी स्थापित करता है तो महीने में 25 से 30 हजार रुपए का फायदा होता है।
प्रशिक्षण संस्थान
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली
ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ प्लास्टिक इंडस्ट्रीज, नई दिल्ली-15
इंडियन प्लास्टिक इंस्टीट्यूट, विले पाले, मुम्बई-4000056
इंस्टीट्यूट ऑफ टॉय मेकिंग टेक्नोलॉजी, कोलकाता-700091


Thursday, August 8, 2013

अंगोरा खरगोश पाल कर बढ़ाएं कमाई


खरगोश पालन क्यों अत्यधिक सन्तति उत्पादन के कारण मांस व ऊ न उत्पादन प्रति खरगोश सभी पालतू जीवों से अधिक है। यह जीव शोर व कोलाहल नहीं करता है। इसकी ऊ न बहुत बारीक व मुलायम होती है और इसकी ऊ न की ताप अवरोधक शक्ति भेड़ की ऊ न से लगभग तीन गुना होती है। इस कारण इसके पैसे ज्यादा मिलते हैं।
जलवायु: यद्यपि अंगोरा खरगोश 7 डिग्री से 28 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में पाले जा सकते हैं, परंतु 20 डिग्री सेंटीग्रेड पर इनकी उत्पादन क्षमता अच्छी रहती है। बहुत अधिक तापमान में इनकी प्रजनन क्षमता पर बुरा असर पड़ता है। न्यून पर इनके फीड़ खाने की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे आर्थिक दृष्टि से हानि होती है। खरगोशों के लिए 70 प्रतिशत अपेक्षित आर्द्रता उचित रहती है। बेहतर प्रजनन के लिए दिन में 16 घंटे प्रकाश की आवश्यकता होती है।



भवन व पिंजरे: जंगली अवस्था में खरगोश बिल खोदकर रहते हैं, लेकिन पालतू अवस्था में उन्हें अकेले पिंजरों में रखा जाता है। अंगोरा खरगोश को रखने के लिए भवनों का निर्माण इस ढंग से किया जाना चाहिए, जहां यह बाहरी प्रभावों जैसे सूर्य की तेज सीधी रोशनी, खराब मौसम व अवांछित शोर से बचे रहें। खिड़कियों तथा रोशनदानों पर जाली लगी हो, ताकि कीड़े-मकौड़े, पक्षी, चूहे, नेवले इत्यादि अन्दर न आने पायें। भवन में वायु का प्रभावशाली आवागमन हो।
खरगोशों को गैलवेनाई जड़ आयरन वैल्डेड वायरमैश से बने पिंजरों में रखा जाता है। एक पिंजरों में एक खरगोश रखा जाता है। पिंजरे में आहार तथा पानी के बर्तन इस ढंग से लगाए जाते हैं कि विभिन्न आयु वर्ग के जानवरों को आहार लेने व पानी पीने की सुविधा रहे।
प्रजनन योग्य खरगोशों के लिए पिंजरे का आकार 60 वर्ग सेंटीमीटर तथा अन्य खरगोशों के लिए -60 गुणा 35 सेंटीमीटर रखना चाहिए। बच्चे देने वाली मादाओं के पिंजरे के साथ प्रसव से पांच दिन पहले नैस्ट बॉक्स लगाए जाते हैं, जो प्लाईवुड के बने हों। नैस्ट बॉक्स का आकार 36 वाई 36 वाई 30 सेंटीमीटर होता है।
खरगोशों के लिए आहार: खरगोश शाकाहारी जीव है और घास इसका महत्वपूर्ण आहार है। यह सूखी हरी घास व हरी पत्तीयां जैसे शहतूत, दूब घास, लूसर्नघास, पालक, बरशीम आदि मुलायम हरे पत्तों को खूब खाता है। इसके अतिरिक्त शलजम, गाजर, चुकन्दर, गोभी, बंदगोभी आदि भी इसके मनचाहे खाद्य पदार्थ हैं।
अंगोरा खरगोशों को आहार पैलेट्ज के रूप में दिया जाता है। औसतन एक खरगोश प्रतिदिन 150-175 ग्राम आहार लेता है।
गर्भवती एवं बच्चे दिए हुई मादा के आहार में 100 ग्राम दैनिक वृद्धि हो जाती है। इसके अतिरिक्त 80-100 ग्राम हरी घास व हरी सब्जियां भी देनी चाहिए। एक खरगोश दिन में लगभग 350 मिलीलीटर पानी पीता है।
प्रजनन: केवल स्वस्थ व रोग मुक्त खरगोशों से ही प्रजनन करवाया जाना चाहिए। अंगोरा खरगोश 5-6 माह की आयु में जब इनका भार लगभग तीन किलोग्राम हो जाए, प्रजनन योग्य हो जाते हैं। उत्तेजित अवस्था में मादा की योनी लाल हो जाती है व अपनी ठोढ़ी पिंजरे में मलती हुई पूंछ को खूब हिलाती है। प्रजनन दो से करवाया जाता है।
प्राकृतिक गर्भधान: इसमें मादा खरगोश को नर खरगोश के पिंजरे में ले जाते हैं। समागम का ठीक व उचित समय सायं का रहता है। समागम के अंत में वह एक विशेष आवाज निकालता है। प्राकृतिक गर्भाधान के पश्चात मादा को वापस अपने पिंजरे में छोड़ दिया जाता है।
कृत्रिम गर्भधान: इसमें कृत्रिम वैजाईना की सहायता से वीर्य एकत्रित करके, उसे दूध से पतला किया जाता है तथा इसका एक मिली लीटर प्रत्येक प्रजनन योग्य मादा खरगोश की योनी में छिड़काव किया जाता है।
गर्भाधान के 14 दिन के बाद गर्भ हेतु जांच की जाती है। यदि गर्भधारण न हुआ हो तो दोबारा से मादा को नर के पास ले जाकर समागम करवाया जाता है। गर्भ के 25वें दिन नैस्ट बॉक्स लगा दिए जाते हैं। गर्भित मादा की विशेष देखभाल की जानी चाहिए। गर्भित मादा 31वें दिन बच्चे देती है।
बच्चे जनने के तुरंत बाद मां बच्चों को दूध पिलाने लगती है। जब खरगोश के बच्चों का जन्म होता है, तब उनके शरीर पर बाल नहीं होते। इनका रंग लाल और आंखें बंद होती हैं। तापमान को सामान्य रखने के लिए उन्हें एक ही स्थान पर रखना आवश्यक होता है। मादा अपने बच्चों को 24 घण्टों में एक बार ही लगभग 5-7 मिनट तक दूध पिलाती है और यदि कोई बच्चा दूध पीने से रह जाए तो वह अत्यंत कमजोर हो जाता है। जन्म से 11-12 दिन में वह चुस्त और फुरतीले हो जाते हंै और हरी घास व दाने को मुंह मारने लगते हैं। लगभग 4-5 सप्ताह की आयु होने पर इन बच्चों को मां से अलग कर दिया जाता है। इसे वीनिंग कहते हैं। अंगोरा खरगोश से वर्ष में 5-6 बार बच्चे लिए जा सकते हैं तथा प्रत्येक बार औसतन 6 बच्चे उत्पन्न होते हैं।
ऊन उत्पादन: अंगोरा खरगोश मुख्यत: अपनी बेहतरीन ऊ न के लिए पाले जाते हैं। एक वयस्क खरगोश से वर्ष में 4 बार ऊ न उतारी जाती है। औसतन एक खरगोश 200 से 250 ग्राम ऊन देता है। पहली ऊ न की कटाई खरगोश की 60 दिन की उमर पर कर देनी चाहिए, लेकिन दिसंबर या जनवरी में सर्दी के मौसम में ऊ न नहीं काटनी चाहिए।
अंगोरा खरगोश पालन हेतु अनुकूल है। अंगोरा पालन प्रदेश के कृषकों व बेरोजगार युवक-युवतियों द्वारा अपनाया जा रहा है। आरंभ में खरगोश प्रजनन फार्म नगवाई (जिला मण्डी) में 1984 में स्थापित किया गया था। इसके पश्चात पालमपुर में सन् 1986 में दूसरा खरगोश प्रजनन प्रक्षेत्र खोला गया। इन प्रक्षेत्रों में जर्मन अंगोरा खरगोश रखे जाते हैं। अंगोरा खरगोश की ऊन मुलायम और बारीक होती है, जिसकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। अंगोरा खरगोश पालन के इच्छुक व्यक्तियों को विभागीय प्रक्षेत्रों पर प्रशिक्षण प्रदान करवाया जाता है।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें
खरगोश को पकडऩे व उठाने में विशेष ध्यान देना चाहिए। खरगोश को ऊपर से हाथ को कन्धे पर रखकर दोनों तरफ चमड़ी को पकड़ कर तथा दूर हाथ पेट के नीचे पिछले भाग में रखकर उठाया जाता है। कभी भी खरगोश को कान व टांगों से नहीं उठाना चाहिए।
कौपरोफेजी- खरगोश अपनी मेंगनों का एक भाग दोबारा खा जाता है। यह सामान्य बात है। यह मेंगने आम तौर पर दो प्रकार की करता है। जो मेंगने नरम हल्की हरी सी होती है, उन्हें वापस खा जाता है। खरगोश बैक्टीरियल पाचन का पूरा फायदा उठाता है, जो मेंगने दिन में करता है वह मामूली मटियाली और सख्त होती हैं वह उन्हें नहीं खाता। अंगोरा खरगोश नाजुक व डरपोक जानवर होता है। इसके आसपास विस्फोट, शोरगुल आदि उत्पादन क्षमता पर बुरा प्रभाव डालते हैं। अंगोरा इकाई छोटे रूप में 10-15 खरगोशों से शुरू करनी चाहिए।
सामान्य बीमारियां एवं उनकी रोकथाम
खरगोशों में पाई जाने वाली मुख्य बीमारियों में कक्सीडियोसिस, टलारीमियाय, मयुकोएड एंटरोपैथी, न्यूमोनियाय, आंख आना, रिंग वर्मय, फोड़े इत्यादि प्रमुख हैं। इनकी रोकथम के लिए पिंजरों में आहार व पानी के बर्तनों व अन्य उपयोग में आने वाले उपकरणों को समय पर कीटाणु रहित करना चाहिए। किसी भी अंगोरा कक्सीडियोसिस इकाई का लाभप्रद होना मुख्यत: ऊन उत्पादन तथा ऊन की कीमत तथा आहार के मूल्य पर निर्भर करती है। ऊन का विक्रय ही आय का मुख्य स्त्रोत है। ऊन के इलावा इनकी खाल, मांस तथा युवा खरगोशों के विक्रय से भी आय में वृद्धि होती है। अंगोरा खरगोश इकाईयों को आर्थिक दृष्टि से जीवित रखने तथा खरगोशों की ऊन उत्पादन क्षमता को बनाए रखने हेतु बढिय़ा स्टाकॅ का चयन करना व कम उत्पादन वाले खरगोशों का नियमित रूप से निष्कासन अति आवश्यक है।



Monday, August 5, 2013

दिमागी कसरत


इस फोटो को देख कर अपने दिमाग के घोड़े को दौड़ना है….
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आप को ये बताना है कि इस फोटो में कितने जानवर हैं??