Friday, October 4, 2013

मच्छर ही नहीं पनपेंगे तो क्यों होगा डेंगू!


इस बार बारिश ने अपना पूरा रंग दिखाया। आषाढ़ से भादौ तक तो जम कर बारिश हुई। इससे देश भर में जल भराव के साथ ही डेंगू का असर गहरा हुआ है। अकेले दिल्ली-एनसीआर में पिछले आठ-दस दिनों में सैकड़ों मरीज अस्पताल पहुंचे हैं। राजस्थान के कई जिलों से लेकर बंगाल के दूरस्थ इलाकों तक, राउरकेला जैसे औघोगिक शहर से ले कर महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र तक हर इलाकों में औसतन हर रोज दस मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही चेतावनी दे चुका था कि इस साल दिल्ली में डेंगू महामारी बन सकता है। स्थानीय प्रशासन और संबंधित विभाग इंतजार कर रहा है कि मौसम में ठंडक बढ़े तो समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। अखबार व विभिन्न प्रचार माध्यम भले ही खूब विज्ञापन दिख रहे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव, कालेनी में डेंगू के मरीजों की भीड़ अस्पतालों की ओर बढ़ रही है । गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीडि़तों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रुपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आता है। डॉक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है । वहीं डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं । डेंगू फैलाने वाला एडिस मच्छर1953 में अफ्रीका से भारत आया। उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था, जिससे हजारों मौतें हुई थीं । अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं। यह तीन प्रकार को होता है । एक चार-पांच दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है, लेकिन मरीज को महीनों तक बेहद कमजोरी रहती है। दूसरे किस्म में मरीज को हेमरेज हो जाता है, जो उसकी मौत का कारण बन सकता है। तीसरे किस्म के डेंगू में हेमरेज के साथ-साथ रोगी का ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, इतना कि उसके मल-द्वार से खून आने लगता है व उसे बचाना मुश्किल हो जाता है । विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के वायरस भी चार तरह के होते हैं- सीरो-1, 2, 3 और 4। यदि किसी मरीज को इनमें से किन्हीं दो तरह के वायरस लग जाएं तो उसकी मौत लगभग तय होती है । ऐसे मरीजों के शरीर पर पहले लाल- लाल दाने पड़ जाते हैं । इसे बचाने के लिए शरीर के पूरे खून को बदलना पड़ता है । सनद रहे कि डेंगू से पीडि़त मरीज को 104 से 107 डिग्री बुखार आता है । इतना तेज बुखार मरीज की मौत का पर्याप्त कारण हो सकता है । डेंगू का पता लगाने के लिए मरीज के खून की जांच करवाई जाती है, जिसकी रिपोर्ट आने में दो-तीन दिन लग जाते हैं । तब तक मरीज की हालत लाइलाज हो जाती है । यदि इस बीच गलती से भी बुखार उतारने की कोई उलटी-सीधी दवा ले ली जाए तो लेने के देने पड़ जाते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में मच्छरों के प्रकोप की बड़ी वजह यहां बढ़ रहा दलदली क्षेत्र कहा जा रहा है। थार के रेगिस्तान की इंदिरा गांधी नहर और ऐसी ही सिंचाई परियोजनाओं के कारण दलदली क्षेत्र तेजी से बढ़ा है। इन दलदलों में नहरों का साफ पानी भर जाता है और यही एडीस मच्छर का आश्रय-स्थल बनते हैं । ठीक यही हालत देश के महानगरों की है जहां, थोड़ी सी बारिश के बाद सड़कें भर जाती हैं। ब्रिटिश गवरमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस (पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपेर्ट के मुताबिक दुनिया के गरम होने के कारण भी डेंगूरूपी मलेरिया प्रचंड रूप धारण कर सकता है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि गरम और उमस भरा मौसम, खतरनाक और बीमारियों को फैलाने वाले कीटाणुओं और विषाणुओं के लिए संवाहक जीवन-स्थिति का निर्माण कर रहे हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया में तापमान की अधिकता और अप्रवाही पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल माहौल मिल रहा है ।


बहरहाल इस मौसम में डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं और नगर निगम के कर्मचारी घर-घर जा कर मच्छर के लार्वा चैक करने की औपचारिकता निभा रहे हैं। सरकारी लाल बस्तों में दर्ज है कि हर साल करोड़ो रुपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डेंगू फैलाने वाले मच्छर न पनप सकें। परंतु हकीकत यह है कि मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं। यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लेता है । हालात इतने बुरे हैं कि पाईलेथाम और मेलाथियान दवाएं फिलहाल मच्छरों पर कारगर हैं, लेकिन दो-तीन साल में ही ये मच्छरों को और जहरीला बनाने वाली हो जाएंगी । भले की देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो, लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य तंत्र क्लोरोक्विन पर ही निर्भर है । हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है। डेंगू के इलाज में प्राइमाक्विन कुछ हद तक सटीक है, लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में जी-6 पीडी नामक एंजाइम की कमी न हो। यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है। विदित हो कि एंजाइम परीक्षण की सुविधा देश के कई जिला मुख्यालयों पर उपलब्ध ही नहीं है, अत: इस दवा के इस्तेमाल से डॉक्टर परहेज करते हैं। इसके अलावा डेंगू की क्वीनाइन नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है। कुल मिला कर मच्छर और उससे फैल रहे रोगों से निबटने की सरकारी रणनीति ही दोषपूर्ण है। पहले हम मच्छर को पनपने दे रहे हैं, फिर उसे मारने के लिए दवा का इंतजाम तलाश रहे हैं। उसके बाद मरीजों की तिमारदारी की व्यवस्था होती है। जबकि सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि मच्छरों की पैदावार रोकी जाए। उनकी प्रतिरोध क्षमता का आकलन कर नई दवाएं तैयार करने का काम त्वरित और प्राथमिकता से होना चाहिए। इसके बाद लोगों को जागरूक बनाने तथा इलाज की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है ।

क्रायोजेनिक तकनीक, अपनी झोली में कब तक



हाल में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्वदेश निर्मित क्रायोजेनिक इंजन वाले जीएसएलवी डी-5 की प्रस्तावित लांचिंग ऐन मौके पर रोक दी। इसरो प्रमुख के राधाकृष्णनन के अनुसार जीएसएलवी डी-5 में ईधन रिसाव होने के कारण प्रक्षेपण फिलहाल टाल दिया गया है। 49 मीटर लंबे और 414 टन वजनी जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के तीसरे चरण यानी देश में ही विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज में प्रणोदक भरने का काम चल रहा था तभी वैज्ञानिकों को रॉकेट के दूसरे चरण में ईधन रिसाव के संकेत मिले। इसके बाद इसरो अधिकारियों ने उलटी गिनती रोकने का निर्णय किया। रिसाव की समस्या जब सामने आई तब प्रक्षेपण में सिर्फ 74 मिनट का वक्त ही बचा था।



जीएसएलवी डी-5 प्रक्षेपण यान के निर्माण पर लगभग 160 करोड़ रुपये तथा उपग्रह के निर्माण पर लगभग 45 करोड़ रुपए की लागत आई है। अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अब भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। क्रायोजेनिक तकनीक के परिप्रेक्ष्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलने के कारण भारत इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लांच किए गए प्रक्षेपण यान सक्त्र्जीएसएलवीसक्ज्ञ् की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है। इससे पहले 2010 में भी भारत के दो महत्वाकांक्षी अभियान तकनीकी और संचालन संबंधी दिक्कतों के कारण असफल हो गए थे। इसरो अध्यक्ष के अनुसार वैज्ञानिक जीएसएलवी डी-5 में रिसाव के कारणों का विश्लेषण करेंगे और इसके बाद ही नई तिथि की घोषणा की जाएगी।



वास्तव में अप्रैल 2010 की तरह विफलता का जोखिम लेने से बेहतर था कि प्रक्षेपण को टाल दिया जाए और खामी दूर करने के बाद नए समय पर इसे प्रक्षेपित किया जाए। इसरो ने तीन चरणों वाले जीएसएलवी को नए सिरे से बनाया है और इसमें लगे क्रायोजेनिक इंजन का विकास पूर्णत स्वदेशी तकनीक से किया गया है। भारत के लिए यह पहला मौका नहीं है कि क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी के जरिए उपग्रह का प्रक्षेपण हो रहा है। इससे पहले 2010 में जीएसएलवी-एफ 06 से जीसैट-5 उपग्रह को लांच किया गया था मगर वह हवा में फट गया और महज 62 सेकंड में 175 करोड़ का अभियान स्वाहा हो गया। बाद में यह बंगाल की खाड़ी की ओर गिर गया। इस अभियान में भी तकनीकी खराबी आई थी जिसकी वजह से प्रक्षेपण की तारीख बदली गई थी, लेकिन बाद में भी यह अभियान पूर्ण रूप से विफल रहा। उस समय भी देश की उम्मीदों को गहरा झटका लगा था। इसके पीछे असली समस्या क्रायोजेनिक इंजन तकनीक के मामले में भारत का पूरी तरह आत्मनिर्भर न होना है। असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला द्रव्य ईधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं।



इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवित गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईधन क्रमश: ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है। क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत: ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टरबाइनों और ईधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है। फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्र-धातु विकसित कर ली है। अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप, जो ईधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है। द्रव्य हाइड्रोजन और द्रव्य ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा-सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना और पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है । जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है। दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो-तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है। जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए बेहद अहम है क्योंकि दूरसंचार उपग्रहों, मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं है। इस प्रक्षेपण में सफलता इसरो के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली है लेकिन अब इसके लिए देश को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा।


सुदूर अंतरिक्ष का सैलानी



पृथ्वी का एक सैलानी इस समय गहन अंतरिक्ष में भ्रमण कर रहा है। यह सैलानी और कोई नहीं, नासा का वॉएजर-1 है। सौरमंडल को पार करके अंतर-नक्षत्रीय में पहुंचने वाला यह पहला मानव निर्मित यान है। एक छोटी कार के आकार के इस यान का पिछले 36 साल से अंतरिक्ष में बने रहना अपने आप में एक बड़ा अजूबा है। इससे यह भी साबित होता है कि 70 के दशक की टेक्नोलॉजी आज भी अंतरिक्ष की विषम परिस्थितियों को ङोलने में सक्षम है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि वॉएजर-1 के कंप्यूटरों की मेमरी आज के एक आईफोन की तुलना में 2,40,000 गुणा कम है। फिर भी यह बखूबी काम कर रहा है। वॉएजर की सबसे खास बात यह है कि यह अंतरिक्ष की बुद्धिमान सभ्यताओं के लिए सोने की प्लेटिंग वाली तांबे की एक डिस्क ले गया है। यदि पारलौकिक प्राणी वॉएजर के संपर्क में आते हैं तो उन्हें इस डिस्क के जरिए पृथ्वी और मानवता की विविधताओं का परिचय मिल जाएगा। इस डिस्क में 116 तस्वीरों के अलावा प्राकृतिक ध्वनियों की रिकार्डिंग है जिनमें पक्षियों की चहचाहट, व्हेल मछली के संगीत, हवा और तूफान की आवाज आदि शामिल है। इसमें तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर और तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव कुर्ट वाल्दाइम के पारलौकिक सभ्यताओं के नाम दोस्ती के पैगाम भी हैं। डिस्क में शामिल संगीत में बीथोवन और मोजार्ट की कृतियों के अलावा केसरबाई केरकर की कृति जात कहां हो के रूप में भारतीय शास्त्रीय संगीत का नमूना भी है।
वॉएजर-1 इस समय सूरज से करीब 18.30 अरब किलोमीटर दूर है। वॉएजर-1 के पीछे-पीछे वॉएजर-2 चल रहा है। वैज्ञानिकों अनुसार तीन साल के भीतर दूसरा वॉएजर भी सौरमंडल को पार जाएगा। दोनों यान परमाणु ईंधन से चल रहे हैं, लेकिन इनकी आणविक बैटरियां धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। फिर भी नासा के वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि ये दोनों यान कम से कम 2025 तक पृथ्वी के संपर्क में बने रहेंगे। पृथ्वी से संपर्क टूटने के बाद भी ये यांत्रिक सैलानी गहन अंतरिक्ष में 40,000 वर्ष तक भ्रमण रहेंगे। पिछले साल वैज्ञानिकों ने पता लगाया था कि वॉएजर-1 के उपकरणों ने सूरज से निकलने वाले ऊर्जावान कणों को ग्रहण करना बंद कर दिया है। दूसरी तरफ सौरमंडल के बाहर से आने वाली ब्रह्मांडीय किरणों में भी वृद्धि देखी गई थी। इस आधार पर वैज्ञानिकों ने यान के सौरमंडल को पार करने का अंदाजा लगाया था। अब नासा के वैज्ञानिकों का मानना है कि वॉएजर-1 ने पिछले साल 25 अगस्त को अंतर-नक्षत्रीय अंतरिक्ष में प्रवेश कर लिया था। नए डेटा से पता चलता है कि वॉएजर-1 पिछले एक साल से ऊर्जावान गैस से गुजर रहा है जो तारों के बीच अंतरिक्ष में फैली हुई है। वॉएजर-1 के सौरमंडल को पार करने की घटना की तुलना चांद पर मनुष्य के उतरने की ऐतिहासिक घटना से की जा रही है। गौरतलब है कि वॉएजर-1 और उसके जुड़वां भाई, वॉएजर-2 को सौरमंडल के बड़े ग्रहों के अध्ययन के लिए 1977 में 16 दिन के अंतराल में रवाना किया गया था। दोनों यान बृहस्पति और शनि के बगल से गुजरे थे। वॉएजर-2 ने बृहस्पति के विशाल लाल धब्बों और शनि के चमकीले छल्लों की तस्वीरें भेजने के बाद यूरेनस और नेपच्यून को भी नजदीक से देखा था।



नासा के वॉएजर-मिशन के संचालक आज भी इन दोनों यानों से संकेत प्राप्त कर रहे हैं, हालांकि ये संकेत बेहद कमजोर हैं। इन संकेतों की पावर महज 22 वाट है। कुछ वैज्ञानिक वॉएजर -1 के अंतर-नक्षत्रीय अंतरिक्ष में पहुंचने के बारे में नासा के दावे से सहमत नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में अंतरिक्ष विज्ञान के प्रोफेसर लेनार्ड फिस्क का कहना है कि हमें अभी कुछ समय और इंतजार करना चाहिए।

Wednesday, October 2, 2013

सूरज की हदों से पार निकले हम


अगर हम अपने सौरमंडल को ब्रह्मांड में तैरता एक विशाल बुलबुला मानें, तो मानवनिर्मिंत दो उपग्रहों, वॉयजर-1 और वॉयजर-2 के बारे में कह सकते हैं कि वे इस बुलबुले की कैद से छूट रहे हैं। खास तौर से वॉयजर-1 इस मामले में उल्लेखनीय है क्योंकि इसके बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने हाल में घोषणा की है कि यह हमारे सौरमंडल की हदों के पार चला गया है। इंसान के हाथों बनी किसी चीज का इतनी दूर पहुंचना साइंस की दुनिया में एक ऐतिहासिक घटना है, ठीक वैसे ही जैसे, चंद्रमा पर इंसान का पहुंचना। करीब 36 साल पहले 1977 में नासा ने ये दो यान इस मकसद से रवाना किए थे कि इनसे सोलर सिस्टम के साथ- साथ अंतरतारकीय स्पेस के बारे में हमारी जानकारियों में विस्तार हो सके। इन्होंने अभी तक यह काम बखूबी किया भी है। वॉयजर-1 ने इस दौरान बृहस्पति और शनि जैसे बड़े ग्रहों और उनके चंद्रमाओं की बारीक पड़ताल की है, तो उधर वॉयजर-2 ने 2003 में पहले तो विशालकाय सौर ज्वालाओं का अता-पता दिया और फिर 2004 में इन ज्वालाओं के कारण पैदा होने वाली शॉक वेव्स के सोलर सिस्टम में भ्रमण की जानकारी दी। फिलहाल वॉयजर-1 यान हमसे करीब 19 अरब किलोमीटर दूर है। पिछले लंबे अरसे तक यह सूरज के बेइंतहा असर वाले ऐसे क्षेत्र में रहा है जिसे हेलियोस्फीयर कहा जाता है। इस इलाके में सूरज से छिटके हुए तेज रफ्तार से आते विद्युत आवेशित कणों की भरमार होती है और वे दूसरे सितारों से आए पदार्थ के खिलाफ घर्षण करते हैं। टर्मिंनेशन शॉक कहलाने वाले इस इलाके में सौर हवाएं औसतन 300-700 किमी प्रति सेकंड की भीषण गति से चलती हैं और बेहद घनी और गर्म होती हैं। इस इलाके में वॉयजर यान पिछले करीब 10 साल तक रहे हैं। इस क्षेत्र को पार करने के बाद वॉयजर-1 सौरमंडल के अंतिम सिरे यानी हेलियोपॉज में मौजूद रहा है। यह वह सरहद है, जहां सौर हवाएं और बाहरी स्पेस से आने वाली अंतरतारकीय हवाएं (तारों के बीच मौजूद गैस और धूल का समूह) एक-दूसरे से टकराती और दबाव बनाती हैं। इस टकराहट और परस्पर दबाव से ही वहां संतुलन कायम होता है। अब वॉयजर-1 की आगे की यात्रा बेहद महत्व की है। सौरमंडल से बाहर निकलने पर यह ऐसे स्पेस में पहुंच रहा है, जहां उसका सामना तूफानी सौर हवाओं और वैसी आवेशित गैसों से हो सकता है जो सूर्य को भी सुपरसॉनिक गति से भगा ले जाती हैं। वैसे तो विज्ञानियों के मुताबिक वॉयजर यानों का यह मिशन 2020 के बाद शायद ही कायम रह सके, क्योंकि तब तक ये यान वह जरूरी ऊर्जा खो चुके होंगे, जिसके बूते वे अभी पृथ्वी तक संकेत भेजने में सफल हो रहे हैं। वॉयजर अभियान की शुरु आत काफी दिलचस्प रही है। इसके पीछे 70 के दशक के अंत में घटित एक खगोलीय घटना है। असल में उस वक्त बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि तब कोई अंतरिक्ष यान एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजर सकता था। इस तरह किसी ग्रह के करीब से गुजरने को साइंस की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों की यह स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी बात खोज निकाली थी। गैरी ने गणित की मदद से समझाया था कि अगर कोई अंतरिक्ष यान एक खास कोण से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बल उसे एक ऐसी जबरदस्त अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वह अंतरिक्ष यान बिना ईधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा। बृहस्पति की तरह शनि के गुरु त्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और उससे भी आगे निकल जाने में मदद मिलेगी। यह बिल्कुल नया विचार था क्योंकि इससे नाममात्र के ईधन के खर्च से और केवल गुरु त्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूरदराज का सफर मुमकिन हो रहा था। इस तरह नासा ने वॉयजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत वॉयजर-1 और वॉयजर-2 को बृहस्पति और शनि के लिए भेजना तय हुआ। उल्लेखनीय है कि वॉयजर-1 और इसका जुड़वां अंतरिक्ष यान वॉयजर- 2 अंतरिक्ष में अब दो अलग-अलग दिशाओं में हैं और एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि वॉयजर- 1 की रफ्तार वॉयजर-2 के मुकाबले 10 फीसद ज्यादा है। बहरहाल, अब 722 किलो वजनी अंतरिक्ष यान वॉयजर-1 हेलियोस्फीयर (सूर्य किरणों की पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष) और सूर्य के नजदीकी इलाके- हेलियोशीथ को पीछे छोड़कर इंटरस्टेलर स्पेस कहलाने वाले गहन ब्रह्मांड में प्रवेश कर चुका है। आगे इससे हमें क्या जानकारी मिलेगी, इस पर अभी वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। पर आगे अगर किसी अन्य सभ्यता से वॉयजरों की कोई मुलाकात होती है, तो इस संभावना से अंतहीन जिज्ञासाओं का कोई ठोस जवाब पाने का इंतजाम भी इन यानों में किया गया है। परग्रही एलियंस को हैलो कहने वाला एक ग्रीटिंग (संदेश) इसमें साथ है। करीब 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क के रूप में एक ऐसा फोनोग्राफ इसमें मौजूद है, जो मौका आने पर कुछ ध्वनियां सुना सकता है और पृथ्वी के जीवन व संस्कृति की छवियां बिखेर सकता है। खास बात यह है कि इस कॉपर डिस्क में भारतीय गायिका केसरबाई केरकर का एक गीत- जात कहां हो भी दर्ज है जिसका चयन प्रख्यात खगोल विज्ञानी कार्ल सगॉन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने किया था। वॉयजर की यह यात्रा अचंभित करने वाली है। आश्र्चय है कि कैसे इसकी संचार पण्रालियां और यंत्र पृथ्वी से इतनी दूर होने पर काम कर पा रहे हैं और कैसे यह हम तक संकेत भेज पा रहा है। नासा के मुताबिक वॉयजर-1 में तीन रेडियोआइसोटॉप र्थमोइलेक्ट्रिक जेनरेटर लगे हैं, जो इसकी तमाम पण्रालियों/उपकरणों को जीवित रखे हुए हैं।