Monday, September 30, 2013

नदियों से इतनी बेरहमी


कभी मिट्टी के मोल बिकने वाली रेत और बजरी आज अनमोल हो गई है! राजनीतिज्ञ, माफिया और ठेकेदार सब इसके गोरखधंधे में लगे हुए हैं। यहां तक कि देश की सबसे प्रतिष्ठित सेवा के कई अधिकारियों तक को यह रेत-बजरी लील चुकी है। पूरे देश में रेत-बजरी का हजारों करोड़ रुपये का वैध-अवैध धंधा हो रहा है, शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां इस कारोबार को फलने-फूलने का मौका न मिल रहा हो। यह धंधा है बहुत चोखा, क्योंकि रेत-बजरी तो नदियां भर-भर कर लाती हैं, सिर्फ परिवहन का खर्च है। एक रुपये की लागत, पांच रुपये का मुनाफा! यही नहीं, एक ही परमिट की आड़ में फर्जीवाड़ा भी कम नहीं होता।
सरकार ने वर्ष 1957 में खदान व लवण नियम बनाए थे, जिस पर फिर कभी बहस नहीं हुई। इसके अनुसार हर राज्य खनन के लिए खुद ही नियम बनाएगा। मगर कई राज्य सरकारों ने कोई भी नियम नहीं बनाए। मध्य प्रदेश को ही देख लीजिए। अभी तक वहां इस संबंध में कोई भी नियम नहीं बनाया गया है, लेकिन वहां रेत-बजरी का व्यापार खूब जोर-शोर से पनपा है।
वैसे केंद्र ने अब जाकर खनन के लिए पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव के आकलन करने की व्यवस्था की है। इसके तहत पांच से लेकर 50 हेक्टेयर तक के खनन के लिए संबंधित राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होगी। इससे ऊपर के क्षेत्र में खनन के लिए केंद्र से मंजूरी लेनी जरूरी होगी, पर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों ने इन नियमों को ताक पर रख दिया है। इस वर्ष फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय ने इन सब परिस्थितियों को देखते हुए प्रत्येक खनन के लिए ग्रीन सिग्नल की आवश्यकता पर जोर दिया है। इस निर्णय की पृष्ठभूमि में अकेले वर्ष 2010 में अवैध खनन के 82,000 मामले सामने आए थे। इसी तरह पिछले वर्ष 47,000 से अधिक अवैध रेत-बजरी खनन के मामले सामने आए। ऐसे मामलों में कुल बिक्री के आठ प्रतिशत के बराबर जुर्माना भरना पड़ता है या फिर 25,000 रुपये जुर्माना और दो वर्ष तक की जेल। फिर कोई परमिट से चार गुना रेत निकाल ले या सौ गुना, जुर्माना ऊपर वाला ही होगा।
अनुमान के मुताबिक, देश में रेत-बजरी का सालाना 18,734 करोड़ रुपये का कारोबार होता है और हम इस मामले में दुनिया में दसवें नंबर पर हैं। इसमें अवैध खनन का भी हिस्सा है। पर्यावरण से जुड़े एक दल ने स्वीकार किया है कि राजधानी और उसके आसपास यमुना और हिंडन नदियों में अवैध खनन जारी है, जिस पर नियंत्रण आवश्यक है।
हकीकत यह है कि देश की लगभग सभी नदियां खनन की मार झेल रही हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में नर्मदा, चंबल, बेतवा, बेनगंगा आदि नदियों के हालात खनन के कारण गंभीर हैं, तो केरल में भारतपूजा, कुटटुमाड़ी, अचनकोकिला, पम्पा व मेटियार नदियां संकट में हैं। इसी तरह तमिलनाडु में कावेरी, बेगी, पलार, चेटयार नदियों को बेहतर नहीं कहा जा सकता। कर्नाटक में हरंगी, कावेरी और पपलानी जैसी नदियों पर भी खनन का बुलडोजर लगातार चल रहा है। गोदावरी, तुंगभद्रा व नागवली आंध्र प्रदेश की मुख्य नदियां हैं, जो लगातार खनन के कारण मरी जा रही हैं। गुजरात की तापी और बिहार की गंडक, हरियाणा की सतलुज और छत्तीसगढ़ की महानदी की स्थिति भी अत्यधिक खनन से खराब हो रही है। नदियों के इस बेरहम दोहन के पीछे होने वाली कमाई की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। यही नहीं, विभिन्न राज्यों में रेत और बजरी की कीमतों में भी भारी अंतर है। बंगलूरू में एक ट्रक रेत की कीमत 30,000 रुपये है, तो हरियाणा में 15,000 रुपये और पश्चिम बंगाल में 16,000 से 20,000 रुपये तक। अकेले राजस्थान में यह तीन से चार सौ करोड़ का व्यापार है, तो बिहार में करीब आठ हजार करोड़ रुपये का।
इस मारामारी में अगर कुछ बिगड़ा है, तो सिर्फ नदियों का। नदियों की संस्कृति को समझने की आवश्यकता है। हमने इस दिशा में कभी कोई कोशिश नहीं की। हमने नदियों को मात्र अपनी खेती-पानी या रेत-बजरी, पत्थर की आवश्यकता से ज्यादा कुछ नहीं माना। इसके विज्ञान को, जो प्रकृति की देन भी है, हमने सिरे से नकार दिया। नदी प्रकृति के आपसी मंथन का परिणाम होती है। ये हजारों-लाखों वर्षों की पारिस्थितिकीय हलचलों का उत्पाद होती हैं। हमारी नदियों को अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग में लाने की कोशिश आने वाले भविष्य के लिए घातक सिद्ध होगी। नदियों का अत्यधिक खनन उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। देश-दुनिया की सभ्यता नदियों की ही देन है। नदियों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि पानी ही जीवन का मूल तत्व है। नदियों के शोषण की हमने सारी सीमाएं लांघ दी हैं।



नदियों में रेत-पत्थरों के कई मायने होते हैं। इनकी गति के नियंत्रण और भूमिगत जल की आपूर्ति में इनका बड़ा योगदान होता है। देश में भूमिगत पानी की आपूर्ति का बड़ा स्रोत नदियां ही हैं। आज इसकी कमी के कारणों में नदियों का गिरता जलस्तर भी है। नदियों के वेग को थामने और जल संग्रहण में रेत-बजरी की बड़ी अहम भूमिका होती है, ताकि पानी भूमिगत हो सके। यह भी सत्य है कि नदियों में भरी रेत-बजरी को एक सीमा तक हटाया जाना जरूरी है, क्योंकि अत्यधिक मात्रा में इनके जमा होने पर नदियों के रास्ते बदले जाने का भी भय होता है, पर इसकी तय सीमा को कभी भी माना नहीं जाता। ठेके के बाद खनन के सारे नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। पिछले दशकों में यही हुआ है और नदियों को चौतरफा मार मिली है। यदि हम अब भी नहीं चेते, तो स्थिति और खतरनाक हो सकती है।


Sunday, September 22, 2013

कई निशाने साधेगी यह मिसाइल



यकीनन यह बड़ी कामयाबी है। बैलिस्टिक के बाद भारत ने अब अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल तैयार कर इस क्षेत्र में महारत हासिल कर ली है, वह भी स्वदेशी तकनीक से। हालांकि, इसके कुछ कल-पुर्जे दूसरे देशों से खरीदे गए हैं और उनकी मदद से बनाए भी गए हैं। लेकिन अग्नि-पांच का सफल प्रक्षेपण यह बताता है कि साल 1983 में एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम की जो पहल हुई थी, वह आज सही दशा और दिशा में है। इसी के बूते भारत में 'पृथ्वीÓ से लेकर 'अग्निÓ तक कई मिसाइलों की श्रृंखला बनी और मिसाइल शोध तथा विकास के क्षेत्र में भारत को कई बेमिसाल उपलब्धियां हासिल हुईं।
आज भारत अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल संपन्न देशों की सूची में छठे सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका है। अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल की जमीन से जमीन मारक क्षमता 5,000 किलोमीटर से 13,000 किलोमीटर तक होती है। इस हिसाब से देखें, तो अमेरिका अपने यहां से ग्लोब के किसी भी हिस्से में मिसाइल दाग सकता है। यह भी सच है कि चीन अपनी मिसाइलों की क्षमता के कारण अमेरिका को अक्सर घुड़की देता रहता है। ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के पास भी लगभग इतनी ही मारक क्षमता की मिसाइलें हैं। गौर करने वाली बात यह भी है कि ये पांचों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, जबकि छठे देश भारत को अभी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। इसके बावजूद, वह 5,000-8,000 किलोमीटर दूर तक अब मिसाइलें दाग सकता है। इसे ऐसे समझों कि अग्नि-पांच पूरे चीन को अपनी गिरफ्त में ले सकता है, पूरा एशिया इसकी जद में आ गया है, बल्कि यूरोप के कुछ हिस्से भी। इसलिए इसे दुनिया भर में भारत की बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है और नए तरीके से इस क्षेत्र में भू-सामरिक तथा भू-कूटनीतिक समीकरण पर प्रकाश डालने की शुरुआत हो चुकी है।
यह मिसाइल डेढ़ टन के परमाणु हथियार को ले जाने में सक्षम है। एक ही मिसाइल में कई परमाणु हथियारों के तकनीकी प्रयोग की बात भी कही जा रही है। ऐसा अनुमान है कि साल 2016 में इसे भारतीय सेना में शामिल कर लिया जाएगा और जरूरत पडऩे पर राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश पर इसे छोड़ा जाएगा। लेकिन इसका अगला संस्करण क्या होगा, जिस पर रक्षा शोध तथा विकास संगठन, यानी डीआरडीओ इस समय जुटा हुआ है? वह है- केनेस्टर मिसाइल टेक्नोलॉजी। यह एक ऐसी तकनीक है, जिससे मिलिटरी ट्रांसपोर्ट के ऊपर इस मिसाइल को कहीं भी भेजा जा सकता है और वहीं से लॉन्च करना भी मुमकिन हो सकेगा। इस स्थिति में, शत्रु पक्ष ऐसी मिसाइल को आसानी से न्यूट्रलाइज नहीं कर पाएगा। केनेस्टर का मतलब है-एक बड़ा डिब्बा, जिसके अंदर कई परमाणु वारहेड या बम हो सकते हैं। अग्नि-पांच का प्रक्षेपण इतना आसान है कि इसे कहीं से भी छोड़ा जा सकता है। ऐसे में, नए वजर्न से अगर इस मिसाइल को पूवरेत्तर सीमा पर तैनात कर दिया जाए, तो चीन के लिए मुश्किल हो जाएगी। इस मिसाइल का माइक्रो नेवीगेशन सिस्टम यह सुनिश्चित करता है कि यह अपने निशाने से तनिक भी नहीं भटकेगी।
निस्संदेह, डीआरडीओ ने मिसाइल के क्षेत्र में बड़ी बाजी मार ली है। बीते वर्षो में इस संगठन की आलोचना इस आधार पर होती रही है कि यह छोटे और उपयोगी हथियार, मसलन कार्बाइन नहीं बना सकता, पर मिसाइल और क्रिटिकल टेन्टेटिव टेक्नोलॉजी में काफी आगे जा चुका है। यह ठीक भी है, क्योंकि हमारे सैन्य शस्त्रगार लगभग खाली होते जा रहे हैं और बड़े-बड़े हथियार, जिनके इस्तेमाल नहीं हो पा रहे हैं, लगातार बनते जा रहे हैं। लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो अति उन्नत हथियार और दूर तक मार करने वाली क्षमता की मिसाइल की तकनीक हमें कोई दूसरा देश मुहैया नहीं करा सकता या फिर लंबे वक्त तक नहीं दे सकता है। इसलिए इसके निर्माण की स्वदेशी क्षमता का होना जरूरी था और डीआरडीओ इस लक्ष्य में काफी हद तक कामयाब रहा है।
युद्ध में आधुनिक मिसाइलों का इस्तेमाल आखिरी विकल्प होता है। इस मामले में भारत की शुरू से ही 'सेकेंड स्ट्राइकÓ पॉलिसी रही है। 'फर्स्ट स्ट्राइकÓ का मतलब होता है, सबसे पहले मिसाइल दागना। और हमारी रणनीति है कि कोई भी देश अगर हम पर मिसाइल दागता है, तो उसे न्यूट्रलाइज करने के लिए हम उसका जवाब अवश्य देंगे।



हालांकि, अभी जो तनाव है, उसे देखते हुए लगता है कि चीन की नीति हम पर मिसाइल दागने की कभी नहीं रही है, बल्कि वह धीरे-धीरे हमारी जमीन हड़पने की नीति रखता है। हाल की घटनाएं इस तथ्य को और भी पुष्ट करती हैं। ऐसे में, यह तर्क जायज है कि हमें अपनी सेना के तीनों अंगों को अत्याधुनिक और क्षमतावान बनाना होगा। मिलिटरी रिसोर्स व इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक काम करने की आवश्यकता है और इसके लिए हथियारों की खरीद बढ़ानी होगी। साथ ही, स्वदेशी हथियार निर्माण में निजी क्षेत्र को भी आने की इजाजत देनी होगी। अगर हम 'री-इन्वेंटिंग द ह्वीलÓ, यानी हर बार फिर से बैलगाड़ी बनाने की सोच से बाहर निकलें, तो यह सब बड़ी आसानी से मुमकिन है और इसे हमारी उन्नत मिसाइल टेक्नोलॉजी साबित कर चुकी है।
इसमें कोई शक नहीं कि मिसाइल डिफेंस पड़ोसी देशों पर एक किस्म का दबाव बनाता है कि अगर उनमें से किसी ने भी सीमाओं का अतिक्रमण किया, तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। यह 'सीमित युद्धÓ का भी विकल्प देता है। लेकिन भारत जैसे देश के सामने, जो दोनों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ है, सुरक्षा व रक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं और उनसे निपटने का हमारे पास सबसे बड़ा अचूक हथियार युवा शक्ति के रूप में है। पश्चिम के देश चाहते हैं कि भारत अपनी इस क्षमता का अधिक से अधिक इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र में करे। अगर भारत उनके सहयोग से इस शक्ति का इस्तेमाल स्वदेशी हथियार निर्माण और विकास प्रणाली में करता है तथा निजी क्षेत्रों के सहयोग से अपने यहां हथियार बनाने के कल-कारखाने खोलता है, तो अगले दस साल में वह न केवल सुरक्षा तैयारियों के तमाम क्षेत्रों में शिखर पर होगा, बल्कि अपने हथियारों को मित्र देशों में बेचकर काफी धन भी कमा पाएगा। ऐसी स्थिति में, भारत की अर्थव्यवस्था में रक्षा क्षेत्र का भी महत्वपूर्ण योगदान होगा, जो अब तक नहीं है, लेकिन इसके लिए मिसाइल टेक्नोलॉजी जैसी नीतियां अपनानी होंगी।

Wednesday, September 18, 2013

कॉन्ट्रसेप्टिव से जान पहचान


इनका जिक्र होते ही त्योरियां चढ़ जाती हैं और कभी-कभी चर्चा में असहजता भी महसूस होती है। लेकिन यकीन मानिए आने वाले वक्त में धरती पर इंसानी मौजूदगी का भविष्य यही तय करेंगे।:
दस के बस में दुनिया
बच्चे का जन्म कुदरत का कारनामा है और इस पर कोई कंट्रोल मुमकिन नहीं, इस मिथक से निकलने में इंसान को हजारों बरस लगे। लेकिन अब हालात काफी बदल चुके हैं, 20 वीं शताब्दी में गर्भनिरोधकों ने दुनिया के कई देशों की भविष्य निर्धारक नीतियों का हिस्सा बन चुके हैं। संक्रामक बीमारियों ने भी गर्भ निरोधकों की जरूरत को बढ़ा दिया है। आज इसके तमाम तरीके हमारे सामने हैं। एक नजर डालते हैं बर्थ कंट्रोल के मुख्य तरीकों पर:

1. हॉर्मोनल
यह तरीका शरीर में उन हॉर्मोन्स को पहुंचाने का है, जिससे गर्भधारण को रोका जा सके। मुख्यत: इस तरह के कॉन्ट्रसेप्टिव महिलाएं ही इस्तेमाल करती हैं और यह उनके शरीर में ऑव्युलेशन या अंडों के बनने की प्रक्रिया को रोक देते हैं।
- इनमें खाने वाली गोलियां, इंप्लांट, इंजेक्शन से दिया जाने वाले हॉर्मोन्स और गर्भाशय में लगने वाली डिवाइस शामिल हैं।
- डॉक्टर खाने वाली गोलियां को ही इस तरह के कॉन्ट्रसेप्टिव में प्रभावी मानते हैं।
- गोलियां बेहतर तरीका है और इंप्लांट से लोगों को कई बार परहेज करते देखा गया है क्योंकि वह कभी-कभी ब्लीडिंग को बढ़ा देती है।

2. बैरियर
यह प्रेग्नेंसी से बचने के ऐसे तरीके हैं, जिसमें स्पर्म को अंडों तक पहुंचने से रोका जाता है। मोटे तौर पर यह स्पर्म को रोकने में इस्तेमाल होने वाला गर्भनिरोधक है।
- पुरुष कॉन्डम, महिला कॉन्डम, डायफ्रॉम, कॉन्ट्रसेप्टिव स्पंज (महिलाएं स्पर्म को अंदर पहुंचने से पहले ही सोख लेने के लिए इस्तेमाल करती हैं) और स्पर्मीसाइड इस कैटिगरी में आते हैं।
- इस समय कॉन्डम ही बेहतर बैरियर साबित हो रहा है।
- डायफ्रॉम और स्पंज जैसे तरीके अब पुराने जमाने की बात हो गई है और बैरियर के तौर पर कॉन्डम ही सबसे ज्यादा असरदार है।
- बर्थ कंट्रोल के अलावा संक्रामक बीमारियों को रोकने में भी कॉन्डम कारगर है।

3. इंट्रा यूटेराइन डिवाइस ढ्ढष्ठ (गर्भाशय में लगने वाली डिवाइस)
- यह एक महिला कॉन्ट्रसेप्टिव है।
- यह ञ्ज आकार की तांबे की एक डिवाइस होती है, जिसे गर्भाशय में फिट कर दिया जाता है। इसके शेप की वजह से ही इसे कॉपर-टी कहा जाता है।
- कई तरह के मल्टि-लोड भी इस श्रेणी में आते हैं।
- लंबे समय तक गर्भ रोकने का बहुत सटीक तरीका है और डॉक्टरों के मुताबिक काफी कारगर है।
- इसे वे महिलाएं अपनाती हैं जो एक बच्चे को जन्म दे चुकी हैं।
- जरूरत पडऩे पर इसे हटवाया भी जा सकता है और महिलाएं फिर से गर्भधारण करने में सक्षम हो जाती हैं।
- जो महिलाएं मां नहीं बनी हैं, उन्हें यह तरीका रिकमंड नहीं किया जाता है।

4. स्टरलाइजेशन
- यह एक स्थायी गर्भनिरोधक है। इसे पुरुष और महिला दोनों अपना सकते हैं।
- आम भाषा इसे ऑपरेशन या नसबंदी कहते हैं।
- सर्जरी से पुरुष और महिला के उन अंगों को निष्क्रिय कर दिया जाता है, जो गर्भधारण में भूमिका अदा करते हैं।
- पुरुष नसबंदी ज्यादा कारगर साबित होती है और इससे उनकी सेक्स क्षमता पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
- यह तरीका वे लोग अपनाते हैं जो आगे नैचरल तरीके से कभी बच्चा नहीं चाहते।

5. बिहेवेरियल (रिदम मैथड)
- इस तरीके में कुछ खास दिनों में सहवास से बच कर प्रेग्नेंसी को रोका जाता है।
- इस तरीके में ओव्युलेशन यानी शरीर में अंडे के निर्माण के समय को सही से काउंट करते हैं और उस समय संबंध नहीं बनाते।
- नए शादीशुदा लोगों में यह तरीका काफी पॉप्युलर है लेकिन इसमें रिस्क भी है।
- काउंटिंग में जरा-सी गलती गड़बड़ कर सकती है। हालांकि नैचरल तरीका होने की वजह से यह काफी हेल्थी भी है।

6. विड्रॉल
- इसमें संबंध बनाते वक्त कपल इस बात का ध्यान रखते हैं कि स्पर्म शरीर के अंदर न जाए।
- पुरुष डिस्चार्ज की अवस्था में पहुंचने से पहले ही प्राइवेट पार्ट को बाहर निकाल लेते हैं, जिससे स्पर्म शरीर में प्रवेश नहीं कर पाता।
- इस तरीके को यंग कपल अधिक अपनाते हैं।
- डॉक्टरों का मानना है कि यह भी एक रिस्की तरीका है और स्पर्म का एक छोटा सा कतरा भी प्रेग्नेंसी के लिए काफी है।

7. परहेज
- इस मेथड में हर तरह की सेक्शुअल ऐक्टिविटी को बंद कर दिया जाता है।
- यह तरीका पूरी तरह से सेफ है लेकिन लंबे वक्त तक संबंध न बनाने से कामेच्छा पर विपरीत असर पड़ता है ।

8. लैक्टेशन
- डिलिवरी के बाद जब मां स्तनपान करवाती है तब कुछ दिनों तक पीरियड्स रुक जाते हैं। इस दौरान भी गर्भधारण की संभावना नहीं रहती।
- इस तरीके को भी लोग गर्भनिरोधक की तरह इस्तेमाल करते हैं।
- जो महिलाएं स्तनपान नहीं करवाती उनका लगभग 4 हफ्ते में पीरियड फिर से शुरू हो जाता है और ऐसे में फिर से गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है।

9. इमरजेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव
- यह मुख्यत: वे गर्भनिरोधक हैं जिन्हें असुरक्षित सेक्स के बाद इस्तेमाल किया जा सकता है।
- जब किसी गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं हो पाता और गर्भधारण का खतरा महसूस होता है, तब महिला अगले 72 घंटे के अंदर एक गोली खाकर अनचाहे गर्भ से बच सकती हैं। इस गोली को आई-पिल कहा जाता है।
- डॉक्टरों की सलाह है कि इस तरह के गर्भनिरोधक इमरजेंसी में इस्तेमाल किए जाने चाहिए न कि एक रेग्युलर कॉन्ट्रसेप्टिव की तरह। इसके अधिक इस्तेमाल से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा है।

10. डुअल प्रोटेक्शन
- यह तरीका संक्रामक यौन रोगों और गर्भधारण दोनों से एक साथ बचने के लिए अपनाया जाता है।
- इसमें बर्थ कंट्रोल के अन्य तरीके को कॉन्डम के साथ इस्तेमाल किया जाता है या पूरी तरह ही सेक्स से बचा जाता है।
- कई तरह का प्रोटेक्शन लेने की सलाह उन लोगों को दी जाती है जो ऐंटि-एक्ने (मुंहासे के लिए दवा) जैसी दवा का इस्तेमाल करते हैं। इनके प्रभाव से एक प्रोटेक्शन काम नहीं करता, इसलिए बेहतर है कि दोहरा प्रोटेक्शन अपनाएं।

लोड कम करे मल्टि-लोड
गाइनकॉलजिस्ट कहते हैं कि एक बच्चे के बाद महिलाओं में सबसे पॉप्युलर कॉन्ट्रसेप्टिव मल्टि-लोड हैं।
- यह एक इंट्रा-यूटेराइन डिवाइस(ढ्ढष्ठ) है, जो अनचाही प्रेग्नेंसी रोकने का एक सटीक तरीका है।
- इसमें कॉपर तार लिपटी एक प्लास्टिक की रॉड होती है, जिसमें दो प्लास्टिक के हाथ होते हैं। इसके एक सिरे पर नायलॉन का धागा होता है।
- इसे गर्भाशय के अंदर इस तरह से लगाया जाता है कि ओव्युलेशन के बाद अंडे निषेचित होने के लिए गर्भाशय में न पहुंच सकें।

किनके लिए बेस्ट?
- आईयूडी के दूसरे विकल्पों के मुकाबले इसका इस्तेमाल काफी सरल है।
- इसके इस्तेमाल का प्रमुख कारण लंबे समय तक गर्भधारण की चिंता से मुक्ति है।
-मल्टि-लोड चुनते वक्त महिलाएं 3, 5 या 10 साल तक का विकल्प चुन सकती हैं। जरूरत पडऩे पर वह इसे डॉक्टर की मदद से बाहर निकलवा कर फिर से गर्भधारण करने में सक्षम हो सकती हैं।

सावधानी जरूरी
- मल्टि-लोड इस्तेमाल करना तो सरल है, लेकिन कोई परेशानी होने पर ध्यान देना भी जरूरी है।
- मल्टि-लोड के इस्तेमाल के बाद अगर आपको सेहत में कुछ गिरावट महसूस होती है तो सतर्क हो जाएं।
- कुछ लोगों के शरीर के अंदर इस तरह की डिवाइस इन्फेक्शन भी कर सकती हैं।
- अगर आपको मल्टि-लोड लगवाने के बाद पीरियड्स में 2-3 हफ्ते की देरी, अधिक ब्लीडिंग और लोअर ऐब्डॉमेनल में दर्द हो रहा हो तो यह इन्फेक्शन के लक्षण हैं।
- मल्टि-लोड लगवाने के बाद अगर लगातार बुखार रहे और लोअर ऐब्डॉमेनल में दर्द की शिकायत भी इन्फेक्शन के लक्षण हैं।
- कई बार मल्टि-लोड अपनी जगह से हट भी जाते हैं और इसका पता देर से चलता है।
- ऐसी किसी भी स्थिति में डॉक्टर से तुरंत संपर्क करना चाहिए।

इमर्जेंसी पिल न बने लाइफ स्टाइल
इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल यूज करने वाले यंगस्टर्स इसे सेक्शुअल लिबर्टी का सिंबल मानते हैं। उन्हें लगता है कि इसकी वजह से अनचाहे गर्भ से आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है। यह एक सचाई है कि इमरजेंसी पिल की वजह से गर्भ ठहरने के डर से मुक्ति मिल जाती है। मगर दूसरा सच यह भी है कि इसकी वजह से कैजुअल सेक्स की प्रवृत्ति के साथ ही कई तरह की बीमारियां भी बढ़ रही है। यंगस्टर्स को यह बात समझनी चाहिए कि लंबे समय तक इसका इस्तेमाल उन्हें भविष्य में गर्भधारण में पूरी तरह अक्षम बना सकता है।
उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि इमर्जेंसी पिल सेफ सेक्स का ऑप्शन नहीं है। अगर कभी अनसेफ सेक्स हो गया है, तो इसे लेना समझदारी है, मगर इसे रुटीन का हिस्सा नहीं बनाना चाहिए। सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रकाश कोठारी का कहना है कि यह प्रेग्नेंसी से बचने का एक कॉम्प्लिमेंट्री तरीका है न कि सप्लिमेंट्री।
- इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल के ऐड भी इसके यूज को लेकर भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं। कुछ साल पहले ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने ऐड को रोकने के लिए ऐसी ही एक कंपनी को नोटिस भी भेजा था।
- इन पिल्स के ऐड में दावा किया जाता है कि ये 72 घंटे तक कारगर रहती हैं, मगर डॉक्टरों का मानना है कि जितनी देर से इन पिल्स को खाया जाता है, इनका असर उतना ही कम हो जाता है।
- किसी भी रिलेशनशिप में इमोशनल कनेक्शन भी उतना ही अहम है, जितना फिजिकल। लंबे समय तक इमर्जेंसी पिल के सहारा लेने वालों को कई तरह की मानसिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है।
- सेफ सेक्स के लिए सबसे बेहतर ऑप्शन कॉन्डम का इस्तेमाल है। इसकी वजह से प्रेग्नेंसी का डर ही खत्म नहीं होता, बल्कि सेक्स से जुड़ी दूसरी बीमारियों से भी बचाव होता है।
- इमरजेंसी पिल का यूज करें, मिसयूज नहीं। अनसेफ सेक्स के बाद गर्भ ठहरने के डर से होने वाले तनाव से बचाव के लिए यह बेहतर ऑप्शन है।
- अनसेफ सेक्स की वजह से गर्भ ठहरने और फिर अबॉर्शन के तकलीफ देह प्रोसेस से भी इमरजेंसी पिल बचाती है।
- इमरजेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल को अनसेफ सेक्स के बाद जल्द से जल्द खाना चाहिए। इस मामले में ऐड की लाइन पर चलते हुए तीन दिनों की डेडलाइन के फेर में नहीं पडऩा चाहिए।
- बेहतर होगा कि इसके इस्तेमाल से पहले किसी डॉक्टर से सलाह लें। इसके साइड इफेक्ट्स के बारे में पूरी जानकारी रखें।

आई-पिल की परेशानियां
नॉजिया (उल्टी की हालत होना) और वोमेटिंग (उल्टी)। डॉक्टरों के मुताबिक पिल्स से होने वाला यह सबसे आम साइड इफेक्ट है। अगर इमर्जेंसी पिल खाने के दो घंटों के अंदर वोमेटिंग होती है, तो पिल दोबारा खानी चाहिए, वरना सुरक्षा चक्र टूट सकता है और गर्भ ठहरने की संभावना रहती है।
- पिल की वजह से पेट में दर्द या फिर सिरदर्द की शिकायत भी हो सकती है। ज्यादातर मामलों में ये शिकायतें पिल के लगातार इस्तेमाल से सामने आती हैं।
- ब्रेस्ट हेवी या फिर बहुत ज्यादा सॉफ्ट होने लगते हैं। दोनों ही वजहों से महिलाओं को आम जिंदगी में दिक्कत होती है।
- इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से अक्सर महिलाओं का मंथली पीरियड साइकल गड़बड़ा जाता है।
- कुछ डॉक्टरों का यह भी मानना है कि इमरजेंसी पिल से पीरियड्स पर पडऩे वाले असर को लेकर कोई आखिरी नतीजा देना जल्दबाजी होगी। उनके मुताबिक कई महिलाओं को ओवरी में प्रॉब्लम होती है, जिसकी वजह से उनके पीरियड रेग्युलर नहीं होते। इमरजेंसी पिल यूज करने पर पीरियड कुछ ज्यादा दिन खिंच सकते हैं, मगर इन्हें लेकर परेशान होने के बजाय डॉक्टर से कंसल्ट करना बेहतर होगा।
- इमर्जेंसी या दूसरी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल एसटीडी (दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों) के खतरे से बचाव नहीं करती हैं। जो लोग एक ही पार्टनर के साथ सेक्स करते हैं, उन्हें तो कम रिस्क है, मगर एक से ज्यादा पार्टनर होने पर एसटीडी(सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) का खतरा ज्यादा रहता है।
- इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से यौन रोगों का रिस्क ज्यादा रहता है। इसमें भी सबसे ज्यादा खतरनाक एचपीवी ह्यूमन पैसिलोमा वायरस होता है, जो आगे जाकर सर्वाइकल कैंसर का कारण बन जाता है।

रिदम मैथड की रिदम
- रिदम मेथड महिलाओं के पीरियड जिस दिन शुरू होते हैं, उसके हिसाब से सेफ दिनों में अनप्रोटेक्टेड सेक्स रिदम मेथड कहलाता है।
- महिलाओं के शरीर में हर महीने एक एग (अंडा) पैदा होता है और 48 घंटे तक जीवित रह सकता है। पीरियड होने पर यह एग ब्लड के साथ रिलीज हो जाता है।
- पीरियड शुरू होने के पहले दिन से नौवें दिन तक का पीरियड सेफ माना जाता है। इसके बाद 10वें से 19वें दिन तक का टाइम अनसेफ होता है। यानी इस दौरान अनसेफ सेक्स करने पर महिला के प्रेग्नेंट होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है।
- इसका कारण महिला शरीर में होने वाला ऑव्युलेशन है जिससे इन 10 दिनों के बीच किसी भी 48 घंटे अंडा शरीर में मौजूद और ऐक्टिव रहता है।
- उसके बाद के 8-10 दिन फिर सेफ पीरियड होते हैं। डॉक्टरों का मानना है कि पीरियड रेग्युलर होने पर रिदम मेथड अपनाया जा सकता है, मगर इस मेथड से दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों (एसटीडी) से बचाव मुमकिन नहीं है।
- जिन महिलाओं के पीरियड रेग्युलर (अमूमन 28 दिन का साइकल) नहीं होते, उनके लिए यह मेथड जोखिम भरा हो सकता है।
- स्पर्म शरीर के अंदर 5 दिनों तक जीवित रह सकता है। अगर इस दौरान महिला सेफ से अनसेफ दिनों में प्रवेश कर गई और अंडे का निर्माण हो गया तो प्रेग्नेंसी हो सकती है।
- शादीशुदा लोग या लंबे वक्त से एक ही पार्टनर के साथ शारीरिक संबंध रखने वाले ही इस मेथड को ठीक तरह से अपना सकते हैं।
- रिदम मेथड के दौरान चूंकि कॉन्डम या प्रेग्नेंसी रोकने वाले किसी दूसरे साधन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, इसलिए पुरुष और महिला, दोनों ही पार्टनर यौन रोगों के शिकार हो सकते हैं।
- सेफ पीरियड भी 100 फीसदी सेफ नहीं है। सेफ पीरियड में गर्भ ठहर जाने के कुछ केस सामने आए हैं।
- यानी रिदम मेथड पॉप्युलर तो है, मगर पूरी तरह से फूलप्रूफ नहीं।

कॉन्डम का कॉमन सेंस
- हमेशा नया कॉन्डम ही इस्तेमाल करें।
- इसकी मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपाइरी डेट को ध्यान से पढ़ें और एक्सपाइरी डेट वाले कॉन्डम का इस्तेमाल न करें।
- इसे फुला कर या खींच कर टेस्ट न करें। मैन्युफेक्चरर इसे कई तरह से पहले ही टेस्ट कर चुके होते हैं।
- इसे अनरोल या पूरी तरह न खोलें।
- अप्लाई करने में शुरुआती टिप पर कुछ जगह छोडऩा न भूलें।
- सहवास क्रिया शुरू करने से पहले ही इसे अप्लाई करें, बीच में ऐसा करना रिस्की हो सकता है।
- इस बात का ध्यान रखें कि कॉन्डम भी सीधा या उल्टा खुल सकता है। ध्यान से सीधी तरफ से ही अप्लाई करें।
- इस पर किसी तरह का लूब्रिकेंट इस्तेमाल न करें और अगर करना ही है तो वॉटर बेस लुब्रिकेंट का इस्तेमाल ही करें।
- इस्तेमाल के समय इसे रिम से ही पकडें और टिप से पकड़ कर इसकी हवा को बाहर निकाल दें।
- डिस्चार्ज के समय इसे बेस से पकड़ कर सावधानी से अलग करें। वरना वीर्य फैलने का खतरा रहता है।
- अगर कॉन्डम लीक हो जाए तो परेशान न हों और डॉक्टर से सलाह लें।
- एक बार में एक कॉन्डम ही इस्तेमाल करें। कुछ लोग सुरक्षा के लिहाज से दो का इस्तेमाल करते हैं जो परेशानी का सबब बन सकता है।
- हमेशा साधारण और बगैर फ्लेवर का कॉन्डम इस्तेमाल करें। फ्लेवर और दूसरे तरीके मार्केटिंग स्ट्रैटिजी का हिस्सा हैं। इसका क्वॉलिटी और सुरक्षा पर कोई असर नहीं पड़ता।
- अगर इच्छा हो तो डॉटेड कॉन्डम इस्तेमाल किया जा सकता है।
- कॉन्डम को सीधी धूप या अपनी जेब में रखने से बचें। दोनों ही हालत में यह खराब हो सकता है।

भविष्य के गर्भनिरोधक

कॉन्ट्रसेप्टिव की दुनिया को बदलने के लिए दुनिया भर में प्रयोग हो रहे हैं और इनका मकसद बस एक है, कम से कम जटिलता में सौ फीसदी नतीजे। कई तरह के ट्रायल जोरों पर हैं, और कुछेक ने परिणाम दिखाने भी शुरू कर दिए हैं। आइए झांकते हैं गर्भ निरोधकों के भविष्य में...

मैजिक रिंग

क्या है: इसे वजाइनल रिंग भी कहा जाता है। इसे महिला के प्राइवेट पार्ट के अंदर फिट कर दिया जाता है।
कैसे करता है काम: ढाई इंच डायमीटर वाली यह रिंग अंदर जाकर अन्य हॉर्मोनल गोलियों की तरह ओव्युलेशन और प्रजनन में मददगार हॉर्मोन्स को रोक देते हैं।
फायदा: यह दूसरी गोलियों की तरह पेट में जाकर पाचन तंत्र में नहीं जाती बल्कि खून के बहाव में ही घुल जाती है जिससे लिवर में होने वाली परेशानी से बचा जा सकता है। लैब से इसकी रिपोर्ट काफी पॉजिटिव है और इसके यूजर्स काफी संतुष्ट नजर आए।
कब मिलेगी: इसकी रिसर्च और ट्रायल पूरे हो चुके हैं। अमेरिका अपने ड्रग रेग्युलेटर की हरी झंडी का इंतजार कर रहा है और ब्रिटेन में यह अगले साल से बाजार में मिलने लगेगी।

करयिर पिल

क्या है: यह गोली महिलाओं की पीरियड को रोक देगी।
कैसे करती है काम: यह महिलाओं के अंदर बनने वाले अंडों को यथावत सुरक्षित कर लेगी और जरूरत पडऩे पर फिर ऐक्टिव कर देगी।
फायदा: कम उम्र में मां बनने की समस्या से काफी हद तक निजात मिल पाएगी। कामकाजी महिलाओं के लिए एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
कब मिलेगी: इस पर चल रही अमेरिकी रिसर्च अभी प्राइमरी स्टेज में ही है। 10 साल तक लग सकते हैं।

मेल पिल

क्या है: यह पुरुष गर्भ निरोधक गोली है जो उनके एक खास अंतराल पर लेने से गर्भ निरोधक का काम करेगी।
कैसे करती है काम: इस गोली से पुरुष के स्पर्म बनने की क्रिया को रोक दिया जाता है। सेक्स क्षमता बनाए रखने के लिए गोली के साथ ही कुछ इन्जेक्शन भी लेने पड़ेंगे।
फायदा: अब पुरुषों के पास भी गर्भ निरोधक के और ऑप्शन होंगे। इस वक्त मौजूद कुछ 13 तरीके के गर्भ निरोधकों में पुरुष केवल 3 ही इस्तेमाल कर सकते हैं।
कब मिलेगी: अभी ट्रायल शुरुआती चरण में है और लगभग 10 साल का समय लग सकता है।

गर्भ निरोधक इंप्लांट

क्या है: यह एक खास तरीके का महिला गर्भनिरोधक है जो शरीर के अंदर फिट किया जा सकता है।
कैसे करता है काम: यह एक छोटी रॉड की तरह होती है जो शरीर में छोटे ऑपरेशन के जरिए फिट की जा सकती है। इससे निकलने वाला हॉ्मोन बरसों तक गर्भधारण को रोके रख सकता है।
फायदा: यह लंबे वक्त तक गर्भधारण से मुक्ति देता है इसलिए बार बार याद करने की दिक्कत से आजादी मिल जाती है। जब गर्भधारण की जरूरत हो तो इसे शरीर से बाहर निकलवाया जा सकता है। वैज्ञानिक ऐसे विकल्प भी खोज रहे हैं जिसमें इसे इंप्लांट को बाहर न निकालना पड़े और एक तय वक्त के बाद वह शरीर में ही गल जाए।
कब मिलेगा: फिलहाल ट्रायल जारी है और इसे आने में भी एक दशक तक का समय लग सकता है।

वायुसेना का मजबूत होता परिवहन बेड़ा




भारतीय वायुसेना की सामरिक क्षमता को मजबूत बनाने की कवायद के तहत रक्षा मंत्री एके एंटनी द्वारा दो सितम्बर 2013 को हिंडन एयर बेस पर 75 से 80 टन क्षमता वाले सी-17 ग्लोबमास्टर- 3 (भारी मालवाहक विमान) को औपचारिक रूप से सेवा में शामिल कर लिया गया है। यह मालवाहक परिवहन विमान भारी टैंकों, रसद और सैनिकों को ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर पहुंचाने में सक्षम है। रक्षामंत्री एके एंटनी ने कहा कि यह विमान सामरिक तथा गैर सामरिक सभी अभियानों को अंजाम देगा। वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउन ने कहा कि सी-17 ग्लोबमास्टर परिवहन विमान का परिचालन पूर्वोत्तर राज्यों में एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड से और उत्तर व अंडमान निकोबार क्षेत्र के अत्यधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों से किया जा सकता है। वायुसेना के अधिकारियों के मुताबिक इसे नवनिर्मित 81वीं सडन में शामिल किया गया है। इस विमान की क्षमता 80 टन भार ढोने की है और इसमें 150 सैनिकों को ले जाया जा सकता है। यह मालवाहक विमान वायुसेना के अब तक के सबसे बड़े रूसी परिवहन विमान आईएल-76 का स्थान लेंगे जो 40 टन भार को ढोने में सक्षम थे। अमेरिका की हथियार निर्माता कम्पनी बोइंग ने इसे अपने यहां से 20 अगस्त को रवाना करवाया था।


 23 अगस्त 2013 को भारतीय वायुसेना को तीसरा और इससे एक माह पहले 23 जुलाई को दूसरा सी-17 ग्लोब मास्टर प्राप्त हुआ था। वायुसेना के लिए खरीदे गए 10 बोइंग सैन्य परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर में से पहले विमान के हिस्सों को कैलिफोर्निया के लांगबीच में 31 जुलाई 2012 को एक समारोह के दौरान जोड़ा गया था। उसके बाद यह 18 जून 2013 को भारत आया था। इस तरह अब तक देश को अत्याधुनिक किस्म के कुल तीन सी-17 ग्लोबमास्टर भारी मालवाहक परिवहन विमान प्राप्त हो चुके हैं। सैन्य परिवहन विमानों की यह खरीदारी भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण अभियान का प्रमुख और महत्वपूर्ण हिस्सा है। इन्हें तुरंत इनके मिशन पर लगा दिया गया है। बोइंग कंपनी के उपाध्यक्ष और सी-17 विमान कार्यक्रम के प्रबंधक नैन बोचार्ड के मुताबिक सी-17 में हिमालयी तथा दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों में अभियान संचालित करने की क्षमता है और इससे उसकी अभियान क्षमता में काफी वृद्धि होगी। अमेरिका के बाद भारतीय वायुसेना सी-17 विमानों का संचालन करने वाली दूसरी सबसे बड़ी वायुसेना होगी। सी-17 ग्लोबमास्टर के चालक दल में दो पायलट व एक लोडमास्टर होता है। इसकी लम्बाई 174 फुट तथा उंचाई 55.1 फुट है। इसके डैने 169.8 फुट ऊंचे हैं।



77,519 किलोग्राम पेलोड के साथ इसकी गति 0.76 मैक है। चार इंजनों से लैस सी-17 ग्लोबमास्टर की रेंज 2420 नॉटिकल मील है। टी आकार के पिछले भाग वाले इस विमान के पिछले हिस्से में माल चढ़ाने के लिए रैंप है। यह विमान सात हजार फुट लंबी हवाई पट्टी से उड़ान भर सकता है, ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी उतरने में सक्षम है और आपातकालीन परिस्थितियों में मात्र 3000 फुट लंबी हवाई पट्टी पर उतर सकता है। फिलहाल ऐसी विशेषताओं वाले विमान अमेरिका, कनाडा, कतर, हंगरी व ब्रिटेन जैसे 18 देशों के पास हैं। नाटो संगठन के 12 सदस्य देश इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक यह कम्पनी 256 सी-17 विमान विभिन्न देशों को बेच चुकी है। इस भरोसेमंद विमान से भारतीय वायुसेना की ताकत दो गुना हो गई है। इसकी रफ्तार 830 किलोमीटर प्रति घंटा और ईंधन क्षमता 134556 लीटर है। सी-17 विमान बख्तरबंद गाडिय़ां ले जा सकता है। इस पर टैंक व हेलीकाप्टर भी लादकर ले जाए जा सकते हैं। मल्टी परपज वाला यह दुनिया का अत्याधुनिक विमान है। यह संकीर्ण स्थानों पर सैनिक टुकड़ी पहुंचाने में सक्षम है और ऐसी जगहों में इसे उतारा जा सकेगा। जम्मू-कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व जैसे इलाकों में यह कारगर भूमिका निभाएगा। भारत ने इस मालवाहक विमान का चयन जून 2009 में किया था। जून 2011 में बोइंग कम्पनी के साथ ऐसे 10 विमानों की खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर कर आपूर्ति का ऑर्डर दिया गया। यह सौदा 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का होने की उम्मीद है। इसके साथ भारत इन विमानों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया और इनके निर्माण की शुरुआत जनवरी 2012 में हो गई थी। इनके आ जाने से पुराने हो चुके रूस निर्मित भारतीय मालवाहक विमानों के बेड़े को आधुनिक रूप दिया जा सकेगा। सैन्य कायरें के अतिरिक्त इनका उपयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में मदद पहुंचाने में भी किया जाएगा। समुद्री क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल का जवाब देने के लिए अंडमान निकोबार द्वीप समूह की कैम्पबेल खाड़ी में भारतीय नौसेना का पहला एयर स्टेशन कुछ समय पहले खोला गया है। यह क्षेत्र मलक्का स्टेट्स से मात्र 75 मील की समुद्री दूरी पर है। इस एयर स्टेशन पर सबसे बड़े परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर व हरक्यूलिस को रखा जाएगा। चार इंजन वाला सी-17 ग्लोब मास्टर 2400 मील समुद्री दूरी तक कार्रवाई करने में सक्षम है। इसकी पहाड़ी व समुद्री इलाकों की मारक क्षमता से चीन व पाकिस्तान की चिंताएं बढ़ गई हैं। निश्चित रूप से इसने हमें रणनीतिक रूप से चीन के मुकाबले मजबूत किया है। तिब्बत जैसे स्वायत्तशासी इलाके में जिस तरह चीन की गतिविधियां बढ़ी हैं, उसके मद्देनजर सी-17 से चीन के खिलाफ विशेष सामरिक बढ़त मिलेगी। उम्मीद है कि 2013 के अन्त तक दो और विमानों की आपूर्ति हो जाएगी। 2014 में शेष पांच और विमानों भारत को सौंप दिए जाएंगे। इन सभी विमानों के मिलने के बाद भारतीय वायुसेना का परिवहन बेड़ा काफी मजबूत हो जाएगा।

Tuesday, September 17, 2013

परमाणु बिजली, उम्मीद की नई रोशनी



तेरह जुलाई 2013 की आधी रात को जब हिन्दुस्तान की लगभग पूरी आबादी सोने की तैयारी में थी वहीं तमिलनाडु स्थित एक एक छोटे से शहर तिरुनेल्वेल्लि में बन रहे कुडनकुलम परमाणु बिजली घर में देश के परमाणु वैज्ञानिकों और अभियंताओं का दस्ता लगातार एक मिशन को अंजाम देने में जुटा था। रात 11 बजकर 5 मिनट पर ब््रोकिंग न्यूज आयी जिसका इंतजार हर किसी को काफी समय से था- परमाणु बिजली घर की क्रिटिकैलिटी का..(एक ऐसी प्रक्रिया जिसमे रिक्टर कोर में न्यूक्लियर फिशन की शुरुआत होती है।) रूस के सौजन्य से निर्मिंत 1000 मेगावाट का यह बिजलीघर, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार, तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व एईआरबी के दिशा निर्देशों और विभिन्न प्रकार के मानदंडों पर खरा उतरने के बाद राष्ट्र को समर्पित होने की प्रक्रिया में पूरी तरह तैयार था। देश में बढ़ती बिजली समस्या के चलते कुडनकुलम परमाणु बिजली घर उभरते भारत के लिए नयी जगमगाहट की तरह है। आजादी के लगभग 67 वषा बाद भी हिन्दुस्तान की जो 40 प्रतिशत आबादी बिजली की आस में है, इसके शुरू होने से शायद कुछ हद तक कमी पूरी हो सकेगी। दो वर्ष पूर्व जापान के फुकुशिमा में आई भारी दैवीय विपदा के चलते वहां के परमाणु बिजली घरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिस से हमारे देश में भी परमाणु ऊर्जा और इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर विरोध के स्वर मुखिरत होने लगे। परमाणु ऊर्जा के प्रति वैचारिक मतभेद रखने वालों ने विरोध शुरू कर दिया। अंतत: सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद बिजलीघर शुरू होने का मार्ग प्रशस्त हो सका। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना कि ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए परमाणु ऊर्जा का विकल्प अपनाना ही होगा। दक्षिण के राज्यों पर नजर डालें तो जानकर हैरानी होगी की ये राज्य अभूतपूर्व बिजली संकट से जूझ रहें है। उद्योग धंधे बुरी तरह से प्रभावित है। बिजली के अभाव में तमाम राज्यों में विकास की मंद रफ्तार इशारा करती है कि किस तरह से लोड शेडिंग और बिजली की कटौती से लोगों का जीवन यापन दुलर्भ हो गया है। आज भी तमिलनाडु में सैकड़ो गांवों को बिजली के दर्शन तक नसीब नही है। ऐसे में इस परियोजना का विरोध समझ से परे है। आखिर हम कैसे विकास का लक्ष्य हासिल पाएंगे। रूस के सहयोग से निर्मिंत भारत का यह पहला लाइट वॉटर रिएक्टर होगा जिससे बिजली का निर्माण किया जाएगा। सुरक्षा और संरक्षा की ष्टि से बेहतरीन व बेमिसाल खूबियों से युक्त जेनरेशन- 3 प्लस के इस रिएक्टर की संरक्षा संबंधी कई खूबियां इसे अपने तरीके का सर्वश्रेष्ठ रिएक्टर बनाती है। इस विश्व स्तरीय रिएक्टर में कोर केचर, पैसीव हीट रिमूवल सिस्टम, हाइड्रोजन री-काबाइनर्स जैसे फीचर इसे जनता और पर्यावरण दोनों को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करने में मददगार साबित होंगे। प्रारंभ में इस परियोजना से 400 मेगावाट और धीरे धीरे चरणबद्ध तरीके बढ़ाकर 1000 मेगावाट बिजली उत्पन्न की जाएगी। कुडनकुलम परमाणु बिजली घर की दूसरी इकाई अगले वर्ष तक प्रारंभ होने की संभावना है जिससे 1000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली का निर्माण हो सकेगा और बड़े पैमाने पर दक्षिण समेत देश के कई राज्यों को बिजली मिल सकेगी। एक तरफ जहां देश में विभिन्न ऊर्जा ाोतों से बिजली का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है, जिसमे लगभग 68 प्रतिशत बिजली थर्मल से, 18 प्रतिशत हाइड्रो से, 12 प्रतिशत अन्य ाोतों से, जिनमे (सोलर और विंड प्रमुख है) वहीं परमाणु ऊर्जा से महज 2.3 प्रतिशत ही बिजली का उत्पादन होता है। आज संपूर्ण विश्व में थर्मल पावर से निर्मिंत बिजली ग्लोबल वॉर्मिग और वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कई हानिकारक गैसों के चलते गहन चिंता का विषय बनी हुई है, जबकि दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा स्वच्छ और हरित ऊर्जा का किफायती विकल्प साबित हो रही है। विश्व की बात करें तो फ्रांस जैसे देश में परमाणु ऊर्जा से लगभग 80 प्रतिशत बिजली का निर्माण किया जाता है। न केवल फ्रांस बल्कि बेल्जियम, स्वीडेन, हंगरी, जर्मनी, स्विट्जरलैड, अमेरिका, जापान, चीन, रूस आदि देशों की लगभग 20-50 प्रतिशत बिजली परमाणु ऊर्जा से ही निर्मिंत होती है और इनकी समृद्धि किसी से छिपी नहीं है। इसके विपरीत देश में वर्तमान में जहां 3-3.5 लाख मेगावाट बिजली की मांग की तुलना में महज 2.25 लाख मेगावाट का ही उत्पादन हो रहा है, तो एक लाख मेगावाट का अंतर कैसे मिटेगा? कोयले का भंडार सीमित है और हाइड्रो का हमने लगभग दोहन कर लिया है। सोलर और विंड की उत्पादन क्षमता, ज्यादा जगह, धूप और हवा के प्रवाह की समुचित उपलब्धता पर निर्भर होने के साथ ही कम किफायती और अल्प विकसित तकनीक पर आधारित है। ऐसे में परमाणु बिजली को नकार नहीं सकते। सोचिए, 40-50 साल बाद जब परंपरागत ऊर्जा ाोत खत्म हो जाएंगे और आबादी दोगुनी हो जाएगी, हम बिजली कहां से लाएंगे? ऐसे में परमाणु ऊर्जा के अलावा क्या कोई विकल्प बचता है? देश में 20 परमाणु बिजलीघरों के लगभग 380 रिएक्टर पिछले करीब 44 वषा से सुरक्षित तरीके से कार्यशील है। इनसे लगभग 4780 मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है। भुज के भूकंप और तमिलनाडु की सुनामी के बावजूद देश के परमाणु बिजलीघर सुरक्षित रहे। दो वर्ष पूर्व जापान के फुकुशिमा में भूकंप और सुनामी जैसी दुर्घटना के मद्देनजर हमारे देश के सभी परमाणु बिजली घर को सुरक्षा की ष्टि से और बेहतर और उन्नत तकनीक युक्त कर दिया गया है। विश्व में लाखों लोग सड़क और अन्य दुर्घटनाओं में जान गवां देते है। लाखों बाढ़, भूस्खलन और अन्य दैवीय आपदाओं में मारे जाते है, लेकिन इससे भयभीत होकर घर तो नहीं बैठ जाते है। इसलिए मन से डर निकाल इसे खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। विश्व के तमाम विकसित राष्ट्रों ने इसे खुले दिल से अपनाया है और आज वो किस मुकाम पर है, यह सबके सामने है। विरोधियों को समझना होगा कि अगर त्रि-चरणीय परमाणु कार्यक्रम चरणबद्ध तरीके से लागू हो तो देश में प्रचुर मात्रा में मौजूद थॉरियम से बिजली की तकनीक विकसित कर कई पीढिय़ों को बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी।

अंतरिक्ष में 3डी प्रिंटर से बनेंगे रॉकेट


मुकुल व्यास 

भविष्य में ऐसे 3डी प्रिंटर बन जाएंगे जो अंतरिक्ष में ही रॉकेट के इंजनों और अंतरिक्षयानों का निर्माण करने में सक्षम होंगे। इस दिशा में कोशिश शुरू भी हो गई है।

नासा के इंजीनियर एक ऐसे 3डी प्रिंटर का परीक्षण कर रहे हैं, जो निम्न गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में प्लास्टिक की वस्तुएं निर्मित कर सकता है। बहुचर्चित साइंस फिक्शन सीरियल, स्टार ट्रेक के ‘रेप्लीकेटर’ में कुछ ऐसी ही टेक्नोलॉजी दर्शाई गई थी। नासा अगले साल जून में इस प्रिंटर को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने की तैयारी कर रहा है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी के इंजीनियरों को उम्मीद है कि इससे भविष्य में और अधिक उन्नत 3डी प्रिंटरों के निर्माण का आधार तैयार हो जाएगा जो अंतरिक्ष में हर तरह की जरूरत का सामान निर्मित कर सकेंगे।

3डी प्रिंटर को अंतरिक्ष में रवाना करने से पहले उसमें उन सारे कलपुर्जो और हिस्सों के ब्ल्यूप्रिंट लोड किए जाएंगे जो बदले जाने के लायक हैं। कुछ अन्य चीजों के बारे में पृथ्वी से ही निर्देश भेजे जा सकते हैं। 3डी प्रिंटर का एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि अंतरिक्षयात्री अपने सम्मुख आने वाली समस्या से निपटने के लिए अपनी जरूरत के हिसाब से कलपुजरें का निर्माण कर सकेंगे। इस सिस्टम से पृथ्वी से अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजे जाने वाले एवजी कलपुजरें की मात्रा में कमी आएगी।

इससे आपात स्थिति में अंतरिक्षयात्रियों को जल्दी से जल्दी अंतरिक्ष स्टेशन पर पहुंचाने में भी मदद मिलेगी।

1970 में एपोलो-13 के अंतरिक्षयात्रियों को अपने यान में ऑक्सीजन टैंक में विस्फोट के बाद अपने यान के कार्बन डायोक्साइड फिल्टर की मरम्मत करनी पड़ी थी। लेकिन मरम्मत के लिए उन्हें डक्ट टेप और प्लास्टिक की थैली जैसी चीजों से ही काम चलना पड़ा था। अभी हाल ही में इटली के अंतरिक्षयात्री लुका पर्मिटानो के हेलमेट में वेंटिलेशन सिस्टन से पानी घुस गया था, जिसकी वजह से उसे अंतरिक्ष में चहलकदमी की योजना त्यागनी पड़ी थी। इस गड़बड़ी को दूर करने के लिए नासा को आवश्यक सप्लाई के साथ मरम्मत का सामान भी भेजना पड़ा था। भविष्य में इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए अंतरिक्षयात्री अपने स्टेशन पर ही जरूरी उपकरणों की प्रिंटिंग कर सकेंगे।

नासा के मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर में 3डी प्रिंटिंग पर रिसर्च चल रही है। रिसर्च टीम के प्रमुख निकी वर्कहाइस्रर का कहना है कि हम सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में 3डी प्रिंटिंग को आजमाना चाहते हैं और अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं। कई बार कलपुर्जे टूट-फूट जाते हैं या गुम हो जाते हैं। उन्हें बदलने के लिए बहुत से अतिरिक्त कजपुज्रे भेजने पड़ते हैं। नई टेक्नोलॉजी से इन हिस्सों को आवश्यकतानुसार अंतरिक्ष में ही निर्मित करना संभव है। इस टेक्नोलॉजी के बारे में अभी कोई खुलासा नहीं किया गया है, लेकिन समझ जाता है कि इसमें प्लास्टिक के पेस्ट का उपयोग किया जाता है। पिछले कुछ दिनों से इस प्रिंटर का शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में परीक्षण चल रहा है। नासा ने एक वीडियो जारी करके इस प्रिंटर की कार्य प्रणाली दर्शाई है।

नासा ने एक अन्य प्रोजेक्ट के तहत पिछले महीने एक ऐसे रॉकेट इंजन का परीक्षण किया, जिसका निर्माण 3डी प्रिंटिंग से तैयार किए गए हिस्सों से किया गया था।

रॉकेट इंजेक्टर के निर्माण के लिए धातु के पाउडर को गलाने और उसे एक त्रिआयामी संचरना में बदलने के लिए लेजर तरंगों का प्रयोग किया गया था। नासा का मानना है कि 3डी प्रिंटिंग से धरती पर और अंतरिक्ष में कलपुर्जो, इंजन के पार्ट्स और यहां तक कि पूरे अंतरिक्षयान को प्रिंट करके उत्पादन समय और उत्पादन लागत में भारी कमी की जा सकती है। इससे अंतरिक्ष के समस्त भावी मिशनों में बहुत मदद मिल सकती है।

अंतरिक्ष स्टेशन पर छह महीने बिताने वाले अमेरिकी अंतरिक्षयात्री टिमोथी क्रीमर का कहना है कि 3डी प्रिंटिंग से हम भी मौके पर ही स्टार ट्रेक के रेप्लीकेटर की तरह वे चीजें बना सकते हैं, जिन्हें हम गंवा बैठे हैं या जो हमसे छूट गई हैं। साथ ही हम अंतरिक्ष में उपयोग के लिए दूसरी नई चीजें भी निर्मित कर सकते हैं रिसर्चरों का ख्याल है कि अगले वर्ष पूरी तरह से तैयार 3डी प्रिंटर अंतरिक्ष स्टेशन के लिए जरूरी करीब एक-तिहाई अतिरिक्त कलपुजरें को प्रिंट करने में सक्षम होगा।

Saturday, September 14, 2013

रिप्लाई ढंग का होना चाहिए, ‘हम्म’ तो भैंस भी करती है!


लड़का हैंडसम होना चाहिए, ‘स्मार्ट’ तो फोन भी होते हैं।

फोन तो आईफोन होना चाहिए, ‘S1, S2...S4’ तो ट्रेन के डिब्बे भी होते हैं।

इंसान का दिल बड़ा होना चाहिए, ‘छोटा’ तो भीम भी है।

व्यक्ति को समझदार होना चाहिए, ‘सेंसटिव’ तो टूथपेस्ट भी है।

टीचर ज्यादा नंबर देने वाला होना चाहिए, ‘अंडा’ तो मुर्गी भी देती है।

युवा राष्ट्रवादी होना चाहिए, ‘कूल’ तो नवरत्न तेल भी है।

राष्ट्रपति कलाम होना चाहिए, ‘मुखर्जी’ तो रानी भी है।

कैप्टन दादा जैसा होना चाहिए, ‘एमएस’ तो ऑफिस भी है।

बाथरूम में हेयर ड्रायर होना चाहिए, ‘टॉवल’ तो श्रीसंत के पास भी है।

लड़की में अक्ल होनी चाहिए, ‘सूरत’ तो गुजरात में भी है।

मोबाइल जनरल मोड पर होना चाहिए, ‘साइलेंट’ तो चनमोहन भी हैं।

सेब मीठा होना चाहिए, ‘लाल’ तो आडवाणी भी हैं।

घूमना तो हिल स्टेशन पर चाहिए, ‘गोवा’ तो पान मसाला भी है।

दवाई ठीक करने के लिए होना चाहिए, ‘टेबलेट’ तो सैमसंग का भी है।

रिप्लाई ढंग का होना चाहिए, ‘हम्म’ तो भैंस भी करती है।