अगर हम अपने सौरमंडल को ब्रह्मांड में तैरता एक विशाल बुलबुला मानें, तो मानवनिर्मिंत दो उपग्रहों, वॉयजर-1 और वॉयजर-2 के बारे में कह सकते हैं कि वे इस बुलबुले की कैद से छूट रहे हैं। खास तौर से वॉयजर-1 इस मामले में उल्लेखनीय है क्योंकि इसके बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने हाल में घोषणा की है कि यह हमारे सौरमंडल की हदों के पार चला गया है। इंसान के हाथों बनी किसी चीज का इतनी दूर पहुंचना साइंस की दुनिया में एक ऐतिहासिक घटना है, ठीक वैसे ही जैसे, चंद्रमा पर इंसान का पहुंचना। करीब 36 साल पहले 1977 में नासा ने ये दो यान इस मकसद से रवाना किए थे कि इनसे सोलर सिस्टम के साथ- साथ अंतरतारकीय स्पेस के बारे में हमारी जानकारियों में विस्तार हो सके। इन्होंने अभी तक यह काम बखूबी किया भी है। वॉयजर-1 ने इस दौरान बृहस्पति और शनि जैसे बड़े ग्रहों और उनके चंद्रमाओं की बारीक पड़ताल की है, तो उधर वॉयजर-2 ने 2003 में पहले तो विशालकाय सौर ज्वालाओं का अता-पता दिया और फिर 2004 में इन ज्वालाओं के कारण पैदा होने वाली शॉक वेव्स के सोलर सिस्टम में भ्रमण की जानकारी दी। फिलहाल वॉयजर-1 यान हमसे करीब 19 अरब किलोमीटर दूर है। पिछले लंबे अरसे तक यह सूरज के बेइंतहा असर वाले ऐसे क्षेत्र में रहा है जिसे हेलियोस्फीयर कहा जाता है। इस इलाके में सूरज से छिटके हुए तेज रफ्तार से आते विद्युत आवेशित कणों की भरमार होती है और वे दूसरे सितारों से आए पदार्थ के खिलाफ घर्षण करते हैं। टर्मिंनेशन शॉक कहलाने वाले इस इलाके में सौर हवाएं औसतन 300-700 किमी प्रति सेकंड की भीषण गति से चलती हैं और बेहद घनी और गर्म होती हैं। इस इलाके में वॉयजर यान पिछले करीब 10 साल तक रहे हैं। इस क्षेत्र को पार करने के बाद वॉयजर-1 सौरमंडल के अंतिम सिरे यानी हेलियोपॉज में मौजूद रहा है। यह वह सरहद है, जहां सौर हवाएं और बाहरी स्पेस से आने वाली अंतरतारकीय हवाएं (तारों के बीच मौजूद गैस और धूल का समूह) एक-दूसरे से टकराती और दबाव बनाती हैं। इस टकराहट और परस्पर दबाव से ही वहां संतुलन कायम होता है। अब वॉयजर-1 की आगे की यात्रा बेहद महत्व की है। सौरमंडल से बाहर निकलने पर यह ऐसे स्पेस में पहुंच रहा है, जहां उसका सामना तूफानी सौर हवाओं और वैसी आवेशित गैसों से हो सकता है जो सूर्य को भी सुपरसॉनिक गति से भगा ले जाती हैं। वैसे तो विज्ञानियों के मुताबिक वॉयजर यानों का यह मिशन 2020 के बाद शायद ही कायम रह सके, क्योंकि तब तक ये यान वह जरूरी ऊर्जा खो चुके होंगे, जिसके बूते वे अभी पृथ्वी तक संकेत भेजने में सफल हो रहे हैं। वॉयजर अभियान की शुरु आत काफी दिलचस्प रही है। इसके पीछे 70 के दशक के अंत में घटित एक खगोलीय घटना है। असल में उस वक्त बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि तब कोई अंतरिक्ष यान एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजर सकता था। इस तरह किसी ग्रह के करीब से गुजरने को साइंस की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों की यह स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी बात खोज निकाली थी। गैरी ने गणित की मदद से समझाया था कि अगर कोई अंतरिक्ष यान एक खास कोण से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बल उसे एक ऐसी जबरदस्त अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वह अंतरिक्ष यान बिना ईधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा। बृहस्पति की तरह शनि के गुरु त्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और उससे भी आगे निकल जाने में मदद मिलेगी। यह बिल्कुल नया विचार था क्योंकि इससे नाममात्र के ईधन के खर्च से और केवल गुरु त्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूरदराज का सफर मुमकिन हो रहा था। इस तरह नासा ने वॉयजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत वॉयजर-1 और वॉयजर-2 को बृहस्पति और शनि के लिए भेजना तय हुआ। उल्लेखनीय है कि वॉयजर-1 और इसका जुड़वां अंतरिक्ष यान वॉयजर- 2 अंतरिक्ष में अब दो अलग-अलग दिशाओं में हैं और एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि वॉयजर- 1 की रफ्तार वॉयजर-2 के मुकाबले 10 फीसद ज्यादा है। बहरहाल, अब 722 किलो वजनी अंतरिक्ष यान वॉयजर-1 हेलियोस्फीयर (सूर्य किरणों की पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष) और सूर्य के नजदीकी इलाके- हेलियोशीथ को पीछे छोड़कर इंटरस्टेलर स्पेस कहलाने वाले गहन ब्रह्मांड में प्रवेश कर चुका है। आगे इससे हमें क्या जानकारी मिलेगी, इस पर अभी वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। पर आगे अगर किसी अन्य सभ्यता से वॉयजरों की कोई मुलाकात होती है, तो इस संभावना से अंतहीन जिज्ञासाओं का कोई ठोस जवाब पाने का इंतजाम भी इन यानों में किया गया है। परग्रही एलियंस को हैलो कहने वाला एक ग्रीटिंग (संदेश) इसमें साथ है। करीब 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क के रूप में एक ऐसा फोनोग्राफ इसमें मौजूद है, जो मौका आने पर कुछ ध्वनियां सुना सकता है और पृथ्वी के जीवन व संस्कृति की छवियां बिखेर सकता है। खास बात यह है कि इस कॉपर डिस्क में भारतीय गायिका केसरबाई केरकर का एक गीत- जात कहां हो भी दर्ज है जिसका चयन प्रख्यात खगोल विज्ञानी कार्ल सगॉन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने किया था। वॉयजर की यह यात्रा अचंभित करने वाली है। आश्र्चय है कि कैसे इसकी संचार पण्रालियां और यंत्र पृथ्वी से इतनी दूर होने पर काम कर पा रहे हैं और कैसे यह हम तक संकेत भेज पा रहा है। नासा के मुताबिक वॉयजर-1 में तीन रेडियोआइसोटॉप र्थमोइलेक्ट्रिक जेनरेटर लगे हैं, जो इसकी तमाम पण्रालियों/उपकरणों को जीवित रखे हुए हैं।
Wednesday, October 2, 2013
सूरज की हदों से पार निकले हम
अगर हम अपने सौरमंडल को ब्रह्मांड में तैरता एक विशाल बुलबुला मानें, तो मानवनिर्मिंत दो उपग्रहों, वॉयजर-1 और वॉयजर-2 के बारे में कह सकते हैं कि वे इस बुलबुले की कैद से छूट रहे हैं। खास तौर से वॉयजर-1 इस मामले में उल्लेखनीय है क्योंकि इसके बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने हाल में घोषणा की है कि यह हमारे सौरमंडल की हदों के पार चला गया है। इंसान के हाथों बनी किसी चीज का इतनी दूर पहुंचना साइंस की दुनिया में एक ऐतिहासिक घटना है, ठीक वैसे ही जैसे, चंद्रमा पर इंसान का पहुंचना। करीब 36 साल पहले 1977 में नासा ने ये दो यान इस मकसद से रवाना किए थे कि इनसे सोलर सिस्टम के साथ- साथ अंतरतारकीय स्पेस के बारे में हमारी जानकारियों में विस्तार हो सके। इन्होंने अभी तक यह काम बखूबी किया भी है। वॉयजर-1 ने इस दौरान बृहस्पति और शनि जैसे बड़े ग्रहों और उनके चंद्रमाओं की बारीक पड़ताल की है, तो उधर वॉयजर-2 ने 2003 में पहले तो विशालकाय सौर ज्वालाओं का अता-पता दिया और फिर 2004 में इन ज्वालाओं के कारण पैदा होने वाली शॉक वेव्स के सोलर सिस्टम में भ्रमण की जानकारी दी। फिलहाल वॉयजर-1 यान हमसे करीब 19 अरब किलोमीटर दूर है। पिछले लंबे अरसे तक यह सूरज के बेइंतहा असर वाले ऐसे क्षेत्र में रहा है जिसे हेलियोस्फीयर कहा जाता है। इस इलाके में सूरज से छिटके हुए तेज रफ्तार से आते विद्युत आवेशित कणों की भरमार होती है और वे दूसरे सितारों से आए पदार्थ के खिलाफ घर्षण करते हैं। टर्मिंनेशन शॉक कहलाने वाले इस इलाके में सौर हवाएं औसतन 300-700 किमी प्रति सेकंड की भीषण गति से चलती हैं और बेहद घनी और गर्म होती हैं। इस इलाके में वॉयजर यान पिछले करीब 10 साल तक रहे हैं। इस क्षेत्र को पार करने के बाद वॉयजर-1 सौरमंडल के अंतिम सिरे यानी हेलियोपॉज में मौजूद रहा है। यह वह सरहद है, जहां सौर हवाएं और बाहरी स्पेस से आने वाली अंतरतारकीय हवाएं (तारों के बीच मौजूद गैस और धूल का समूह) एक-दूसरे से टकराती और दबाव बनाती हैं। इस टकराहट और परस्पर दबाव से ही वहां संतुलन कायम होता है। अब वॉयजर-1 की आगे की यात्रा बेहद महत्व की है। सौरमंडल से बाहर निकलने पर यह ऐसे स्पेस में पहुंच रहा है, जहां उसका सामना तूफानी सौर हवाओं और वैसी आवेशित गैसों से हो सकता है जो सूर्य को भी सुपरसॉनिक गति से भगा ले जाती हैं। वैसे तो विज्ञानियों के मुताबिक वॉयजर यानों का यह मिशन 2020 के बाद शायद ही कायम रह सके, क्योंकि तब तक ये यान वह जरूरी ऊर्जा खो चुके होंगे, जिसके बूते वे अभी पृथ्वी तक संकेत भेजने में सफल हो रहे हैं। वॉयजर अभियान की शुरु आत काफी दिलचस्प रही है। इसके पीछे 70 के दशक के अंत में घटित एक खगोलीय घटना है। असल में उस वक्त बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि तब कोई अंतरिक्ष यान एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजर सकता था। इस तरह किसी ग्रह के करीब से गुजरने को साइंस की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों की यह स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी बात खोज निकाली थी। गैरी ने गणित की मदद से समझाया था कि अगर कोई अंतरिक्ष यान एक खास कोण से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बल उसे एक ऐसी जबरदस्त अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वह अंतरिक्ष यान बिना ईधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा। बृहस्पति की तरह शनि के गुरु त्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और उससे भी आगे निकल जाने में मदद मिलेगी। यह बिल्कुल नया विचार था क्योंकि इससे नाममात्र के ईधन के खर्च से और केवल गुरु त्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूरदराज का सफर मुमकिन हो रहा था। इस तरह नासा ने वॉयजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत वॉयजर-1 और वॉयजर-2 को बृहस्पति और शनि के लिए भेजना तय हुआ। उल्लेखनीय है कि वॉयजर-1 और इसका जुड़वां अंतरिक्ष यान वॉयजर- 2 अंतरिक्ष में अब दो अलग-अलग दिशाओं में हैं और एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि वॉयजर- 1 की रफ्तार वॉयजर-2 के मुकाबले 10 फीसद ज्यादा है। बहरहाल, अब 722 किलो वजनी अंतरिक्ष यान वॉयजर-1 हेलियोस्फीयर (सूर्य किरणों की पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष) और सूर्य के नजदीकी इलाके- हेलियोशीथ को पीछे छोड़कर इंटरस्टेलर स्पेस कहलाने वाले गहन ब्रह्मांड में प्रवेश कर चुका है। आगे इससे हमें क्या जानकारी मिलेगी, इस पर अभी वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। पर आगे अगर किसी अन्य सभ्यता से वॉयजरों की कोई मुलाकात होती है, तो इस संभावना से अंतहीन जिज्ञासाओं का कोई ठोस जवाब पाने का इंतजाम भी इन यानों में किया गया है। परग्रही एलियंस को हैलो कहने वाला एक ग्रीटिंग (संदेश) इसमें साथ है। करीब 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क के रूप में एक ऐसा फोनोग्राफ इसमें मौजूद है, जो मौका आने पर कुछ ध्वनियां सुना सकता है और पृथ्वी के जीवन व संस्कृति की छवियां बिखेर सकता है। खास बात यह है कि इस कॉपर डिस्क में भारतीय गायिका केसरबाई केरकर का एक गीत- जात कहां हो भी दर्ज है जिसका चयन प्रख्यात खगोल विज्ञानी कार्ल सगॉन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने किया था। वॉयजर की यह यात्रा अचंभित करने वाली है। आश्र्चय है कि कैसे इसकी संचार पण्रालियां और यंत्र पृथ्वी से इतनी दूर होने पर काम कर पा रहे हैं और कैसे यह हम तक संकेत भेज पा रहा है। नासा के मुताबिक वॉयजर-1 में तीन रेडियोआइसोटॉप र्थमोइलेक्ट्रिक जेनरेटर लगे हैं, जो इसकी तमाम पण्रालियों/उपकरणों को जीवित रखे हुए हैं।
Monday, September 30, 2013
नदियों से इतनी बेरहमी
कभी मिट्टी के मोल बिकने वाली रेत और बजरी आज अनमोल हो गई है! राजनीतिज्ञ, माफिया और ठेकेदार सब इसके गोरखधंधे में लगे हुए हैं। यहां तक कि देश की सबसे प्रतिष्ठित सेवा के कई अधिकारियों तक को यह रेत-बजरी लील चुकी है। पूरे देश में रेत-बजरी का हजारों करोड़ रुपये का वैध-अवैध धंधा हो रहा है, शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां इस कारोबार को फलने-फूलने का मौका न मिल रहा हो। यह धंधा है बहुत चोखा, क्योंकि रेत-बजरी तो नदियां भर-भर कर लाती हैं, सिर्फ परिवहन का खर्च है। एक रुपये की लागत, पांच रुपये का मुनाफा! यही नहीं, एक ही परमिट की आड़ में फर्जीवाड़ा भी कम नहीं होता।
सरकार ने वर्ष 1957 में खदान व लवण नियम बनाए थे, जिस पर फिर कभी बहस नहीं हुई। इसके अनुसार हर राज्य खनन के लिए खुद ही नियम बनाएगा। मगर कई राज्य सरकारों ने कोई भी नियम नहीं बनाए। मध्य प्रदेश को ही देख लीजिए। अभी तक वहां इस संबंध में कोई भी नियम नहीं बनाया गया है, लेकिन वहां रेत-बजरी का व्यापार खूब जोर-शोर से पनपा है।
वैसे केंद्र ने अब जाकर खनन के लिए पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव के आकलन करने की व्यवस्था की है। इसके तहत पांच से लेकर 50 हेक्टेयर तक के खनन के लिए संबंधित राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होगी। इससे ऊपर के क्षेत्र में खनन के लिए केंद्र से मंजूरी लेनी जरूरी होगी, पर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों ने इन नियमों को ताक पर रख दिया है। इस वर्ष फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय ने इन सब परिस्थितियों को देखते हुए प्रत्येक खनन के लिए ग्रीन सिग्नल की आवश्यकता पर जोर दिया है। इस निर्णय की पृष्ठभूमि में अकेले वर्ष 2010 में अवैध खनन के 82,000 मामले सामने आए थे। इसी तरह पिछले वर्ष 47,000 से अधिक अवैध रेत-बजरी खनन के मामले सामने आए। ऐसे मामलों में कुल बिक्री के आठ प्रतिशत के बराबर जुर्माना भरना पड़ता है या फिर 25,000 रुपये जुर्माना और दो वर्ष तक की जेल। फिर कोई परमिट से चार गुना रेत निकाल ले या सौ गुना, जुर्माना ऊपर वाला ही होगा।
अनुमान के मुताबिक, देश में रेत-बजरी का सालाना 18,734 करोड़ रुपये का कारोबार होता है और हम इस मामले में दुनिया में दसवें नंबर पर हैं। इसमें अवैध खनन का भी हिस्सा है। पर्यावरण से जुड़े एक दल ने स्वीकार किया है कि राजधानी और उसके आसपास यमुना और हिंडन नदियों में अवैध खनन जारी है, जिस पर नियंत्रण आवश्यक है।
हकीकत यह है कि देश की लगभग सभी नदियां खनन की मार झेल रही हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में नर्मदा, चंबल, बेतवा, बेनगंगा आदि नदियों के हालात खनन के कारण गंभीर हैं, तो केरल में भारतपूजा, कुटटुमाड़ी, अचनकोकिला, पम्पा व मेटियार नदियां संकट में हैं। इसी तरह तमिलनाडु में कावेरी, बेगी, पलार, चेटयार नदियों को बेहतर नहीं कहा जा सकता। कर्नाटक में हरंगी, कावेरी और पपलानी जैसी नदियों पर भी खनन का बुलडोजर लगातार चल रहा है। गोदावरी, तुंगभद्रा व नागवली आंध्र प्रदेश की मुख्य नदियां हैं, जो लगातार खनन के कारण मरी जा रही हैं। गुजरात की तापी और बिहार की गंडक, हरियाणा की सतलुज और छत्तीसगढ़ की महानदी की स्थिति भी अत्यधिक खनन से खराब हो रही है। नदियों के इस बेरहम दोहन के पीछे होने वाली कमाई की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। यही नहीं, विभिन्न राज्यों में रेत और बजरी की कीमतों में भी भारी अंतर है। बंगलूरू में एक ट्रक रेत की कीमत 30,000 रुपये है, तो हरियाणा में 15,000 रुपये और पश्चिम बंगाल में 16,000 से 20,000 रुपये तक। अकेले राजस्थान में यह तीन से चार सौ करोड़ का व्यापार है, तो बिहार में करीब आठ हजार करोड़ रुपये का।
इस मारामारी में अगर कुछ बिगड़ा है, तो सिर्फ नदियों का। नदियों की संस्कृति को समझने की आवश्यकता है। हमने इस दिशा में कभी कोई कोशिश नहीं की। हमने नदियों को मात्र अपनी खेती-पानी या रेत-बजरी, पत्थर की आवश्यकता से ज्यादा कुछ नहीं माना। इसके विज्ञान को, जो प्रकृति की देन भी है, हमने सिरे से नकार दिया। नदी प्रकृति के आपसी मंथन का परिणाम होती है। ये हजारों-लाखों वर्षों की पारिस्थितिकीय हलचलों का उत्पाद होती हैं। हमारी नदियों को अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग में लाने की कोशिश आने वाले भविष्य के लिए घातक सिद्ध होगी। नदियों का अत्यधिक खनन उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। देश-दुनिया की सभ्यता नदियों की ही देन है। नदियों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि पानी ही जीवन का मूल तत्व है। नदियों के शोषण की हमने सारी सीमाएं लांघ दी हैं।
नदियों में रेत-पत्थरों के कई मायने होते हैं। इनकी गति के नियंत्रण और भूमिगत जल की आपूर्ति में इनका बड़ा योगदान होता है। देश में भूमिगत पानी की आपूर्ति का बड़ा स्रोत नदियां ही हैं। आज इसकी कमी के कारणों में नदियों का गिरता जलस्तर भी है। नदियों के वेग को थामने और जल संग्रहण में रेत-बजरी की बड़ी अहम भूमिका होती है, ताकि पानी भूमिगत हो सके। यह भी सत्य है कि नदियों में भरी रेत-बजरी को एक सीमा तक हटाया जाना जरूरी है, क्योंकि अत्यधिक मात्रा में इनके जमा होने पर नदियों के रास्ते बदले जाने का भी भय होता है, पर इसकी तय सीमा को कभी भी माना नहीं जाता। ठेके के बाद खनन के सारे नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। पिछले दशकों में यही हुआ है और नदियों को चौतरफा मार मिली है। यदि हम अब भी नहीं चेते, तो स्थिति और खतरनाक हो सकती है।
Sunday, September 22, 2013
कई निशाने साधेगी यह मिसाइल
यकीनन यह बड़ी कामयाबी है। बैलिस्टिक के बाद भारत ने अब अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल तैयार कर इस क्षेत्र में महारत हासिल कर ली है, वह भी स्वदेशी तकनीक से। हालांकि, इसके कुछ कल-पुर्जे दूसरे देशों से खरीदे गए हैं और उनकी मदद से बनाए भी गए हैं। लेकिन अग्नि-पांच का सफल प्रक्षेपण यह बताता है कि साल 1983 में एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम की जो पहल हुई थी, वह आज सही दशा और दिशा में है। इसी के बूते भारत में 'पृथ्वीÓ से लेकर 'अग्निÓ तक कई मिसाइलों की श्रृंखला बनी और मिसाइल शोध तथा विकास के क्षेत्र में भारत को कई बेमिसाल उपलब्धियां हासिल हुईं।
आज भारत अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल संपन्न देशों की सूची में छठे सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका है। अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल की जमीन से जमीन मारक क्षमता 5,000 किलोमीटर से 13,000 किलोमीटर तक होती है। इस हिसाब से देखें, तो अमेरिका अपने यहां से ग्लोब के किसी भी हिस्से में मिसाइल दाग सकता है। यह भी सच है कि चीन अपनी मिसाइलों की क्षमता के कारण अमेरिका को अक्सर घुड़की देता रहता है। ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के पास भी लगभग इतनी ही मारक क्षमता की मिसाइलें हैं। गौर करने वाली बात यह भी है कि ये पांचों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, जबकि छठे देश भारत को अभी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। इसके बावजूद, वह 5,000-8,000 किलोमीटर दूर तक अब मिसाइलें दाग सकता है। इसे ऐसे समझों कि अग्नि-पांच पूरे चीन को अपनी गिरफ्त में ले सकता है, पूरा एशिया इसकी जद में आ गया है, बल्कि यूरोप के कुछ हिस्से भी। इसलिए इसे दुनिया भर में भारत की बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है और नए तरीके से इस क्षेत्र में भू-सामरिक तथा भू-कूटनीतिक समीकरण पर प्रकाश डालने की शुरुआत हो चुकी है।
यह मिसाइल डेढ़ टन के परमाणु हथियार को ले जाने में सक्षम है। एक ही मिसाइल में कई परमाणु हथियारों के तकनीकी प्रयोग की बात भी कही जा रही है। ऐसा अनुमान है कि साल 2016 में इसे भारतीय सेना में शामिल कर लिया जाएगा और जरूरत पडऩे पर राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश पर इसे छोड़ा जाएगा। लेकिन इसका अगला संस्करण क्या होगा, जिस पर रक्षा शोध तथा विकास संगठन, यानी डीआरडीओ इस समय जुटा हुआ है? वह है- केनेस्टर मिसाइल टेक्नोलॉजी। यह एक ऐसी तकनीक है, जिससे मिलिटरी ट्रांसपोर्ट के ऊपर इस मिसाइल को कहीं भी भेजा जा सकता है और वहीं से लॉन्च करना भी मुमकिन हो सकेगा। इस स्थिति में, शत्रु पक्ष ऐसी मिसाइल को आसानी से न्यूट्रलाइज नहीं कर पाएगा। केनेस्टर का मतलब है-एक बड़ा डिब्बा, जिसके अंदर कई परमाणु वारहेड या बम हो सकते हैं। अग्नि-पांच का प्रक्षेपण इतना आसान है कि इसे कहीं से भी छोड़ा जा सकता है। ऐसे में, नए वजर्न से अगर इस मिसाइल को पूवरेत्तर सीमा पर तैनात कर दिया जाए, तो चीन के लिए मुश्किल हो जाएगी। इस मिसाइल का माइक्रो नेवीगेशन सिस्टम यह सुनिश्चित करता है कि यह अपने निशाने से तनिक भी नहीं भटकेगी।
निस्संदेह, डीआरडीओ ने मिसाइल के क्षेत्र में बड़ी बाजी मार ली है। बीते वर्षो में इस संगठन की आलोचना इस आधार पर होती रही है कि यह छोटे और उपयोगी हथियार, मसलन कार्बाइन नहीं बना सकता, पर मिसाइल और क्रिटिकल टेन्टेटिव टेक्नोलॉजी में काफी आगे जा चुका है। यह ठीक भी है, क्योंकि हमारे सैन्य शस्त्रगार लगभग खाली होते जा रहे हैं और बड़े-बड़े हथियार, जिनके इस्तेमाल नहीं हो पा रहे हैं, लगातार बनते जा रहे हैं। लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो अति उन्नत हथियार और दूर तक मार करने वाली क्षमता की मिसाइल की तकनीक हमें कोई दूसरा देश मुहैया नहीं करा सकता या फिर लंबे वक्त तक नहीं दे सकता है। इसलिए इसके निर्माण की स्वदेशी क्षमता का होना जरूरी था और डीआरडीओ इस लक्ष्य में काफी हद तक कामयाब रहा है।
युद्ध में आधुनिक मिसाइलों का इस्तेमाल आखिरी विकल्प होता है। इस मामले में भारत की शुरू से ही 'सेकेंड स्ट्राइकÓ पॉलिसी रही है। 'फर्स्ट स्ट्राइकÓ का मतलब होता है, सबसे पहले मिसाइल दागना। और हमारी रणनीति है कि कोई भी देश अगर हम पर मिसाइल दागता है, तो उसे न्यूट्रलाइज करने के लिए हम उसका जवाब अवश्य देंगे।
हालांकि, अभी जो तनाव है, उसे देखते हुए लगता है कि चीन की नीति हम पर मिसाइल दागने की कभी नहीं रही है, बल्कि वह धीरे-धीरे हमारी जमीन हड़पने की नीति रखता है। हाल की घटनाएं इस तथ्य को और भी पुष्ट करती हैं। ऐसे में, यह तर्क जायज है कि हमें अपनी सेना के तीनों अंगों को अत्याधुनिक और क्षमतावान बनाना होगा। मिलिटरी रिसोर्स व इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक काम करने की आवश्यकता है और इसके लिए हथियारों की खरीद बढ़ानी होगी। साथ ही, स्वदेशी हथियार निर्माण में निजी क्षेत्र को भी आने की इजाजत देनी होगी। अगर हम 'री-इन्वेंटिंग द ह्वीलÓ, यानी हर बार फिर से बैलगाड़ी बनाने की सोच से बाहर निकलें, तो यह सब बड़ी आसानी से मुमकिन है और इसे हमारी उन्नत मिसाइल टेक्नोलॉजी साबित कर चुकी है।
इसमें कोई शक नहीं कि मिसाइल डिफेंस पड़ोसी देशों पर एक किस्म का दबाव बनाता है कि अगर उनमें से किसी ने भी सीमाओं का अतिक्रमण किया, तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। यह 'सीमित युद्धÓ का भी विकल्प देता है। लेकिन भारत जैसे देश के सामने, जो दोनों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ है, सुरक्षा व रक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं और उनसे निपटने का हमारे पास सबसे बड़ा अचूक हथियार युवा शक्ति के रूप में है। पश्चिम के देश चाहते हैं कि भारत अपनी इस क्षमता का अधिक से अधिक इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र में करे। अगर भारत उनके सहयोग से इस शक्ति का इस्तेमाल स्वदेशी हथियार निर्माण और विकास प्रणाली में करता है तथा निजी क्षेत्रों के सहयोग से अपने यहां हथियार बनाने के कल-कारखाने खोलता है, तो अगले दस साल में वह न केवल सुरक्षा तैयारियों के तमाम क्षेत्रों में शिखर पर होगा, बल्कि अपने हथियारों को मित्र देशों में बेचकर काफी धन भी कमा पाएगा। ऐसी स्थिति में, भारत की अर्थव्यवस्था में रक्षा क्षेत्र का भी महत्वपूर्ण योगदान होगा, जो अब तक नहीं है, लेकिन इसके लिए मिसाइल टेक्नोलॉजी जैसी नीतियां अपनानी होंगी।
Wednesday, September 18, 2013
कॉन्ट्रसेप्टिव से जान पहचान
इनका जिक्र होते ही त्योरियां चढ़ जाती हैं और कभी-कभी चर्चा में असहजता भी महसूस होती है। लेकिन यकीन मानिए आने वाले वक्त में धरती पर इंसानी मौजूदगी का भविष्य यही तय करेंगे।:
दस के बस में दुनिया
बच्चे का जन्म कुदरत का कारनामा है और इस पर कोई कंट्रोल मुमकिन नहीं, इस मिथक से निकलने में इंसान को हजारों बरस लगे। लेकिन अब हालात काफी बदल चुके हैं, 20 वीं शताब्दी में गर्भनिरोधकों ने दुनिया के कई देशों की भविष्य निर्धारक नीतियों का हिस्सा बन चुके हैं। संक्रामक बीमारियों ने भी गर्भ निरोधकों की जरूरत को बढ़ा दिया है। आज इसके तमाम तरीके हमारे सामने हैं। एक नजर डालते हैं बर्थ कंट्रोल के मुख्य तरीकों पर:
1. हॉर्मोनल
यह तरीका शरीर में उन हॉर्मोन्स को पहुंचाने का है, जिससे गर्भधारण को रोका जा सके। मुख्यत: इस तरह के कॉन्ट्रसेप्टिव महिलाएं ही इस्तेमाल करती हैं और यह उनके शरीर में ऑव्युलेशन या अंडों के बनने की प्रक्रिया को रोक देते हैं।
- इनमें खाने वाली गोलियां, इंप्लांट, इंजेक्शन से दिया जाने वाले हॉर्मोन्स और गर्भाशय में लगने वाली डिवाइस शामिल हैं।
- डॉक्टर खाने वाली गोलियां को ही इस तरह के कॉन्ट्रसेप्टिव में प्रभावी मानते हैं।
- गोलियां बेहतर तरीका है और इंप्लांट से लोगों को कई बार परहेज करते देखा गया है क्योंकि वह कभी-कभी ब्लीडिंग को बढ़ा देती है।
2. बैरियर
यह प्रेग्नेंसी से बचने के ऐसे तरीके हैं, जिसमें स्पर्म को अंडों तक पहुंचने से रोका जाता है। मोटे तौर पर यह स्पर्म को रोकने में इस्तेमाल होने वाला गर्भनिरोधक है।
- पुरुष कॉन्डम, महिला कॉन्डम, डायफ्रॉम, कॉन्ट्रसेप्टिव स्पंज (महिलाएं स्पर्म को अंदर पहुंचने से पहले ही सोख लेने के लिए इस्तेमाल करती हैं) और स्पर्मीसाइड इस कैटिगरी में आते हैं।
- इस समय कॉन्डम ही बेहतर बैरियर साबित हो रहा है।
- डायफ्रॉम और स्पंज जैसे तरीके अब पुराने जमाने की बात हो गई है और बैरियर के तौर पर कॉन्डम ही सबसे ज्यादा असरदार है।
- बर्थ कंट्रोल के अलावा संक्रामक बीमारियों को रोकने में भी कॉन्डम कारगर है।
3. इंट्रा यूटेराइन डिवाइस ढ्ढष्ठ (गर्भाशय में लगने वाली डिवाइस)
- यह एक महिला कॉन्ट्रसेप्टिव है।
- यह ञ्ज आकार की तांबे की एक डिवाइस होती है, जिसे गर्भाशय में फिट कर दिया जाता है। इसके शेप की वजह से ही इसे कॉपर-टी कहा जाता है।
- कई तरह के मल्टि-लोड भी इस श्रेणी में आते हैं।
- लंबे समय तक गर्भ रोकने का बहुत सटीक तरीका है और डॉक्टरों के मुताबिक काफी कारगर है।
- इसे वे महिलाएं अपनाती हैं जो एक बच्चे को जन्म दे चुकी हैं।
- जरूरत पडऩे पर इसे हटवाया भी जा सकता है और महिलाएं फिर से गर्भधारण करने में सक्षम हो जाती हैं।
- जो महिलाएं मां नहीं बनी हैं, उन्हें यह तरीका रिकमंड नहीं किया जाता है।
4. स्टरलाइजेशन
- यह एक स्थायी गर्भनिरोधक है। इसे पुरुष और महिला दोनों अपना सकते हैं।
- आम भाषा इसे ऑपरेशन या नसबंदी कहते हैं।
- सर्जरी से पुरुष और महिला के उन अंगों को निष्क्रिय कर दिया जाता है, जो गर्भधारण में भूमिका अदा करते हैं।
- पुरुष नसबंदी ज्यादा कारगर साबित होती है और इससे उनकी सेक्स क्षमता पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
- यह तरीका वे लोग अपनाते हैं जो आगे नैचरल तरीके से कभी बच्चा नहीं चाहते।
5. बिहेवेरियल (रिदम मैथड)
- इस तरीके में कुछ खास दिनों में सहवास से बच कर प्रेग्नेंसी को रोका जाता है।
- इस तरीके में ओव्युलेशन यानी शरीर में अंडे के निर्माण के समय को सही से काउंट करते हैं और उस समय संबंध नहीं बनाते।
- नए शादीशुदा लोगों में यह तरीका काफी पॉप्युलर है लेकिन इसमें रिस्क भी है।
- काउंटिंग में जरा-सी गलती गड़बड़ कर सकती है। हालांकि नैचरल तरीका होने की वजह से यह काफी हेल्थी भी है।
6. विड्रॉल
- इसमें संबंध बनाते वक्त कपल इस बात का ध्यान रखते हैं कि स्पर्म शरीर के अंदर न जाए।
- पुरुष डिस्चार्ज की अवस्था में पहुंचने से पहले ही प्राइवेट पार्ट को बाहर निकाल लेते हैं, जिससे स्पर्म शरीर में प्रवेश नहीं कर पाता।
- इस तरीके को यंग कपल अधिक अपनाते हैं।
- डॉक्टरों का मानना है कि यह भी एक रिस्की तरीका है और स्पर्म का एक छोटा सा कतरा भी प्रेग्नेंसी के लिए काफी है।
7. परहेज
- इस मेथड में हर तरह की सेक्शुअल ऐक्टिविटी को बंद कर दिया जाता है।
- यह तरीका पूरी तरह से सेफ है लेकिन लंबे वक्त तक संबंध न बनाने से कामेच्छा पर विपरीत असर पड़ता है ।
8. लैक्टेशन
- डिलिवरी के बाद जब मां स्तनपान करवाती है तब कुछ दिनों तक पीरियड्स रुक जाते हैं। इस दौरान भी गर्भधारण की संभावना नहीं रहती।
- इस तरीके को भी लोग गर्भनिरोधक की तरह इस्तेमाल करते हैं।
- जो महिलाएं स्तनपान नहीं करवाती उनका लगभग 4 हफ्ते में पीरियड फिर से शुरू हो जाता है और ऐसे में फिर से गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है।
9. इमरजेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव
- यह मुख्यत: वे गर्भनिरोधक हैं जिन्हें असुरक्षित सेक्स के बाद इस्तेमाल किया जा सकता है।
- जब किसी गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं हो पाता और गर्भधारण का खतरा महसूस होता है, तब महिला अगले 72 घंटे के अंदर एक गोली खाकर अनचाहे गर्भ से बच सकती हैं। इस गोली को आई-पिल कहा जाता है।
- डॉक्टरों की सलाह है कि इस तरह के गर्भनिरोधक इमरजेंसी में इस्तेमाल किए जाने चाहिए न कि एक रेग्युलर कॉन्ट्रसेप्टिव की तरह। इसके अधिक इस्तेमाल से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा है।
10. डुअल प्रोटेक्शन
- यह तरीका संक्रामक यौन रोगों और गर्भधारण दोनों से एक साथ बचने के लिए अपनाया जाता है।
- इसमें बर्थ कंट्रोल के अन्य तरीके को कॉन्डम के साथ इस्तेमाल किया जाता है या पूरी तरह ही सेक्स से बचा जाता है।
- कई तरह का प्रोटेक्शन लेने की सलाह उन लोगों को दी जाती है जो ऐंटि-एक्ने (मुंहासे के लिए दवा) जैसी दवा का इस्तेमाल करते हैं। इनके प्रभाव से एक प्रोटेक्शन काम नहीं करता, इसलिए बेहतर है कि दोहरा प्रोटेक्शन अपनाएं।
लोड कम करे मल्टि-लोड
गाइनकॉलजिस्ट कहते हैं कि एक बच्चे के बाद महिलाओं में सबसे पॉप्युलर कॉन्ट्रसेप्टिव मल्टि-लोड हैं।
- यह एक इंट्रा-यूटेराइन डिवाइस(ढ्ढष्ठ) है, जो अनचाही प्रेग्नेंसी रोकने का एक सटीक तरीका है।
- इसमें कॉपर तार लिपटी एक प्लास्टिक की रॉड होती है, जिसमें दो प्लास्टिक के हाथ होते हैं। इसके एक सिरे पर नायलॉन का धागा होता है।
- इसे गर्भाशय के अंदर इस तरह से लगाया जाता है कि ओव्युलेशन के बाद अंडे निषेचित होने के लिए गर्भाशय में न पहुंच सकें।
किनके लिए बेस्ट?
- आईयूडी के दूसरे विकल्पों के मुकाबले इसका इस्तेमाल काफी सरल है।
- इसके इस्तेमाल का प्रमुख कारण लंबे समय तक गर्भधारण की चिंता से मुक्ति है।
-मल्टि-लोड चुनते वक्त महिलाएं 3, 5 या 10 साल तक का विकल्प चुन सकती हैं। जरूरत पडऩे पर वह इसे डॉक्टर की मदद से बाहर निकलवा कर फिर से गर्भधारण करने में सक्षम हो सकती हैं।
सावधानी जरूरी
- मल्टि-लोड इस्तेमाल करना तो सरल है, लेकिन कोई परेशानी होने पर ध्यान देना भी जरूरी है।
- मल्टि-लोड के इस्तेमाल के बाद अगर आपको सेहत में कुछ गिरावट महसूस होती है तो सतर्क हो जाएं।
- कुछ लोगों के शरीर के अंदर इस तरह की डिवाइस इन्फेक्शन भी कर सकती हैं।
- अगर आपको मल्टि-लोड लगवाने के बाद पीरियड्स में 2-3 हफ्ते की देरी, अधिक ब्लीडिंग और लोअर ऐब्डॉमेनल में दर्द हो रहा हो तो यह इन्फेक्शन के लक्षण हैं।
- मल्टि-लोड लगवाने के बाद अगर लगातार बुखार रहे और लोअर ऐब्डॉमेनल में दर्द की शिकायत भी इन्फेक्शन के लक्षण हैं।
- कई बार मल्टि-लोड अपनी जगह से हट भी जाते हैं और इसका पता देर से चलता है।
- ऐसी किसी भी स्थिति में डॉक्टर से तुरंत संपर्क करना चाहिए।
इमर्जेंसी पिल न बने लाइफ स्टाइल
इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल यूज करने वाले यंगस्टर्स इसे सेक्शुअल लिबर्टी का सिंबल मानते हैं। उन्हें लगता है कि इसकी वजह से अनचाहे गर्भ से आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है। यह एक सचाई है कि इमरजेंसी पिल की वजह से गर्भ ठहरने के डर से मुक्ति मिल जाती है। मगर दूसरा सच यह भी है कि इसकी वजह से कैजुअल सेक्स की प्रवृत्ति के साथ ही कई तरह की बीमारियां भी बढ़ रही है। यंगस्टर्स को यह बात समझनी चाहिए कि लंबे समय तक इसका इस्तेमाल उन्हें भविष्य में गर्भधारण में पूरी तरह अक्षम बना सकता है।
उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि इमर्जेंसी पिल सेफ सेक्स का ऑप्शन नहीं है। अगर कभी अनसेफ सेक्स हो गया है, तो इसे लेना समझदारी है, मगर इसे रुटीन का हिस्सा नहीं बनाना चाहिए। सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रकाश कोठारी का कहना है कि यह प्रेग्नेंसी से बचने का एक कॉम्प्लिमेंट्री तरीका है न कि सप्लिमेंट्री।
- इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल के ऐड भी इसके यूज को लेकर भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं। कुछ साल पहले ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने ऐड को रोकने के लिए ऐसी ही एक कंपनी को नोटिस भी भेजा था।
- इन पिल्स के ऐड में दावा किया जाता है कि ये 72 घंटे तक कारगर रहती हैं, मगर डॉक्टरों का मानना है कि जितनी देर से इन पिल्स को खाया जाता है, इनका असर उतना ही कम हो जाता है।
- किसी भी रिलेशनशिप में इमोशनल कनेक्शन भी उतना ही अहम है, जितना फिजिकल। लंबे समय तक इमर्जेंसी पिल के सहारा लेने वालों को कई तरह की मानसिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है।
- सेफ सेक्स के लिए सबसे बेहतर ऑप्शन कॉन्डम का इस्तेमाल है। इसकी वजह से प्रेग्नेंसी का डर ही खत्म नहीं होता, बल्कि सेक्स से जुड़ी दूसरी बीमारियों से भी बचाव होता है।
- इमरजेंसी पिल का यूज करें, मिसयूज नहीं। अनसेफ सेक्स के बाद गर्भ ठहरने के डर से होने वाले तनाव से बचाव के लिए यह बेहतर ऑप्शन है।
- अनसेफ सेक्स की वजह से गर्भ ठहरने और फिर अबॉर्शन के तकलीफ देह प्रोसेस से भी इमरजेंसी पिल बचाती है।
- इमरजेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल को अनसेफ सेक्स के बाद जल्द से जल्द खाना चाहिए। इस मामले में ऐड की लाइन पर चलते हुए तीन दिनों की डेडलाइन के फेर में नहीं पडऩा चाहिए।
- बेहतर होगा कि इसके इस्तेमाल से पहले किसी डॉक्टर से सलाह लें। इसके साइड इफेक्ट्स के बारे में पूरी जानकारी रखें।
आई-पिल की परेशानियां
नॉजिया (उल्टी की हालत होना) और वोमेटिंग (उल्टी)। डॉक्टरों के मुताबिक पिल्स से होने वाला यह सबसे आम साइड इफेक्ट है। अगर इमर्जेंसी पिल खाने के दो घंटों के अंदर वोमेटिंग होती है, तो पिल दोबारा खानी चाहिए, वरना सुरक्षा चक्र टूट सकता है और गर्भ ठहरने की संभावना रहती है।
- पिल की वजह से पेट में दर्द या फिर सिरदर्द की शिकायत भी हो सकती है। ज्यादातर मामलों में ये शिकायतें पिल के लगातार इस्तेमाल से सामने आती हैं।
- ब्रेस्ट हेवी या फिर बहुत ज्यादा सॉफ्ट होने लगते हैं। दोनों ही वजहों से महिलाओं को आम जिंदगी में दिक्कत होती है।
- इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से अक्सर महिलाओं का मंथली पीरियड साइकल गड़बड़ा जाता है।
- कुछ डॉक्टरों का यह भी मानना है कि इमरजेंसी पिल से पीरियड्स पर पडऩे वाले असर को लेकर कोई आखिरी नतीजा देना जल्दबाजी होगी। उनके मुताबिक कई महिलाओं को ओवरी में प्रॉब्लम होती है, जिसकी वजह से उनके पीरियड रेग्युलर नहीं होते। इमरजेंसी पिल यूज करने पर पीरियड कुछ ज्यादा दिन खिंच सकते हैं, मगर इन्हें लेकर परेशान होने के बजाय डॉक्टर से कंसल्ट करना बेहतर होगा।
- इमर्जेंसी या दूसरी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल एसटीडी (दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों) के खतरे से बचाव नहीं करती हैं। जो लोग एक ही पार्टनर के साथ सेक्स करते हैं, उन्हें तो कम रिस्क है, मगर एक से ज्यादा पार्टनर होने पर एसटीडी(सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) का खतरा ज्यादा रहता है।
- इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से यौन रोगों का रिस्क ज्यादा रहता है। इसमें भी सबसे ज्यादा खतरनाक एचपीवी ह्यूमन पैसिलोमा वायरस होता है, जो आगे जाकर सर्वाइकल कैंसर का कारण बन जाता है।
रिदम मैथड की रिदम
- रिदम मेथड महिलाओं के पीरियड जिस दिन शुरू होते हैं, उसके हिसाब से सेफ दिनों में अनप्रोटेक्टेड सेक्स रिदम मेथड कहलाता है।
- महिलाओं के शरीर में हर महीने एक एग (अंडा) पैदा होता है और 48 घंटे तक जीवित रह सकता है। पीरियड होने पर यह एग ब्लड के साथ रिलीज हो जाता है।
- पीरियड शुरू होने के पहले दिन से नौवें दिन तक का पीरियड सेफ माना जाता है। इसके बाद 10वें से 19वें दिन तक का टाइम अनसेफ होता है। यानी इस दौरान अनसेफ सेक्स करने पर महिला के प्रेग्नेंट होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है।
- इसका कारण महिला शरीर में होने वाला ऑव्युलेशन है जिससे इन 10 दिनों के बीच किसी भी 48 घंटे अंडा शरीर में मौजूद और ऐक्टिव रहता है।
- उसके बाद के 8-10 दिन फिर सेफ पीरियड होते हैं। डॉक्टरों का मानना है कि पीरियड रेग्युलर होने पर रिदम मेथड अपनाया जा सकता है, मगर इस मेथड से दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों (एसटीडी) से बचाव मुमकिन नहीं है।
- जिन महिलाओं के पीरियड रेग्युलर (अमूमन 28 दिन का साइकल) नहीं होते, उनके लिए यह मेथड जोखिम भरा हो सकता है।
- स्पर्म शरीर के अंदर 5 दिनों तक जीवित रह सकता है। अगर इस दौरान महिला सेफ से अनसेफ दिनों में प्रवेश कर गई और अंडे का निर्माण हो गया तो प्रेग्नेंसी हो सकती है।
- शादीशुदा लोग या लंबे वक्त से एक ही पार्टनर के साथ शारीरिक संबंध रखने वाले ही इस मेथड को ठीक तरह से अपना सकते हैं।
- रिदम मेथड के दौरान चूंकि कॉन्डम या प्रेग्नेंसी रोकने वाले किसी दूसरे साधन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, इसलिए पुरुष और महिला, दोनों ही पार्टनर यौन रोगों के शिकार हो सकते हैं।
- सेफ पीरियड भी 100 फीसदी सेफ नहीं है। सेफ पीरियड में गर्भ ठहर जाने के कुछ केस सामने आए हैं।
- यानी रिदम मेथड पॉप्युलर तो है, मगर पूरी तरह से फूलप्रूफ नहीं।
कॉन्डम का कॉमन सेंस
- हमेशा नया कॉन्डम ही इस्तेमाल करें।
- इसकी मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपाइरी डेट को ध्यान से पढ़ें और एक्सपाइरी डेट वाले कॉन्डम का इस्तेमाल न करें।
- इसे फुला कर या खींच कर टेस्ट न करें। मैन्युफेक्चरर इसे कई तरह से पहले ही टेस्ट कर चुके होते हैं।
- इसे अनरोल या पूरी तरह न खोलें।
- अप्लाई करने में शुरुआती टिप पर कुछ जगह छोडऩा न भूलें।
- सहवास क्रिया शुरू करने से पहले ही इसे अप्लाई करें, बीच में ऐसा करना रिस्की हो सकता है।
- इस बात का ध्यान रखें कि कॉन्डम भी सीधा या उल्टा खुल सकता है। ध्यान से सीधी तरफ से ही अप्लाई करें।
- इस पर किसी तरह का लूब्रिकेंट इस्तेमाल न करें और अगर करना ही है तो वॉटर बेस लुब्रिकेंट का इस्तेमाल ही करें।
- इस्तेमाल के समय इसे रिम से ही पकडें और टिप से पकड़ कर इसकी हवा को बाहर निकाल दें।
- डिस्चार्ज के समय इसे बेस से पकड़ कर सावधानी से अलग करें। वरना वीर्य फैलने का खतरा रहता है।
- अगर कॉन्डम लीक हो जाए तो परेशान न हों और डॉक्टर से सलाह लें।
- एक बार में एक कॉन्डम ही इस्तेमाल करें। कुछ लोग सुरक्षा के लिहाज से दो का इस्तेमाल करते हैं जो परेशानी का सबब बन सकता है।
- हमेशा साधारण और बगैर फ्लेवर का कॉन्डम इस्तेमाल करें। फ्लेवर और दूसरे तरीके मार्केटिंग स्ट्रैटिजी का हिस्सा हैं। इसका क्वॉलिटी और सुरक्षा पर कोई असर नहीं पड़ता।
- अगर इच्छा हो तो डॉटेड कॉन्डम इस्तेमाल किया जा सकता है।
- कॉन्डम को सीधी धूप या अपनी जेब में रखने से बचें। दोनों ही हालत में यह खराब हो सकता है।
भविष्य के गर्भनिरोधक
कॉन्ट्रसेप्टिव की दुनिया को बदलने के लिए दुनिया भर में प्रयोग हो रहे हैं और इनका मकसद बस एक है, कम से कम जटिलता में सौ फीसदी नतीजे। कई तरह के ट्रायल जोरों पर हैं, और कुछेक ने परिणाम दिखाने भी शुरू कर दिए हैं। आइए झांकते हैं गर्भ निरोधकों के भविष्य में...
मैजिक रिंग
क्या है: इसे वजाइनल रिंग भी कहा जाता है। इसे महिला के प्राइवेट पार्ट के अंदर फिट कर दिया जाता है।
कैसे करता है काम: ढाई इंच डायमीटर वाली यह रिंग अंदर जाकर अन्य हॉर्मोनल गोलियों की तरह ओव्युलेशन और प्रजनन में मददगार हॉर्मोन्स को रोक देते हैं।
फायदा: यह दूसरी गोलियों की तरह पेट में जाकर पाचन तंत्र में नहीं जाती बल्कि खून के बहाव में ही घुल जाती है जिससे लिवर में होने वाली परेशानी से बचा जा सकता है। लैब से इसकी रिपोर्ट काफी पॉजिटिव है और इसके यूजर्स काफी संतुष्ट नजर आए।
कब मिलेगी: इसकी रिसर्च और ट्रायल पूरे हो चुके हैं। अमेरिका अपने ड्रग रेग्युलेटर की हरी झंडी का इंतजार कर रहा है और ब्रिटेन में यह अगले साल से बाजार में मिलने लगेगी।
करयिर पिल
क्या है: यह गोली महिलाओं की पीरियड को रोक देगी।
कैसे करती है काम: यह महिलाओं के अंदर बनने वाले अंडों को यथावत सुरक्षित कर लेगी और जरूरत पडऩे पर फिर ऐक्टिव कर देगी।
फायदा: कम उम्र में मां बनने की समस्या से काफी हद तक निजात मिल पाएगी। कामकाजी महिलाओं के लिए एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
कब मिलेगी: इस पर चल रही अमेरिकी रिसर्च अभी प्राइमरी स्टेज में ही है। 10 साल तक लग सकते हैं।
मेल पिल
क्या है: यह पुरुष गर्भ निरोधक गोली है जो उनके एक खास अंतराल पर लेने से गर्भ निरोधक का काम करेगी।
कैसे करती है काम: इस गोली से पुरुष के स्पर्म बनने की क्रिया को रोक दिया जाता है। सेक्स क्षमता बनाए रखने के लिए गोली के साथ ही कुछ इन्जेक्शन भी लेने पड़ेंगे।
फायदा: अब पुरुषों के पास भी गर्भ निरोधक के और ऑप्शन होंगे। इस वक्त मौजूद कुछ 13 तरीके के गर्भ निरोधकों में पुरुष केवल 3 ही इस्तेमाल कर सकते हैं।
कब मिलेगी: अभी ट्रायल शुरुआती चरण में है और लगभग 10 साल का समय लग सकता है।
गर्भ निरोधक इंप्लांट
क्या है: यह एक खास तरीके का महिला गर्भनिरोधक है जो शरीर के अंदर फिट किया जा सकता है।
कैसे करता है काम: यह एक छोटी रॉड की तरह होती है जो शरीर में छोटे ऑपरेशन के जरिए फिट की जा सकती है। इससे निकलने वाला हॉ्मोन बरसों तक गर्भधारण को रोके रख सकता है।
फायदा: यह लंबे वक्त तक गर्भधारण से मुक्ति देता है इसलिए बार बार याद करने की दिक्कत से आजादी मिल जाती है। जब गर्भधारण की जरूरत हो तो इसे शरीर से बाहर निकलवाया जा सकता है। वैज्ञानिक ऐसे विकल्प भी खोज रहे हैं जिसमें इसे इंप्लांट को बाहर न निकालना पड़े और एक तय वक्त के बाद वह शरीर में ही गल जाए।
कब मिलेगा: फिलहाल ट्रायल जारी है और इसे आने में भी एक दशक तक का समय लग सकता है।
वायुसेना का मजबूत होता परिवहन बेड़ा
भारतीय वायुसेना की सामरिक क्षमता को मजबूत बनाने की कवायद के तहत रक्षा मंत्री एके एंटनी द्वारा दो सितम्बर 2013 को हिंडन एयर बेस पर 75 से 80 टन क्षमता वाले सी-17 ग्लोबमास्टर- 3 (भारी मालवाहक विमान) को औपचारिक रूप से सेवा में शामिल कर लिया गया है। यह मालवाहक परिवहन विमान भारी टैंकों, रसद और सैनिकों को ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर पहुंचाने में सक्षम है। रक्षामंत्री एके एंटनी ने कहा कि यह विमान सामरिक तथा गैर सामरिक सभी अभियानों को अंजाम देगा। वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउन ने कहा कि सी-17 ग्लोबमास्टर परिवहन विमान का परिचालन पूर्वोत्तर राज्यों में एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड से और उत्तर व अंडमान निकोबार क्षेत्र के अत्यधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों से किया जा सकता है। वायुसेना के अधिकारियों के मुताबिक इसे नवनिर्मित 81वीं सडन में शामिल किया गया है। इस विमान की क्षमता 80 टन भार ढोने की है और इसमें 150 सैनिकों को ले जाया जा सकता है। यह मालवाहक विमान वायुसेना के अब तक के सबसे बड़े रूसी परिवहन विमान आईएल-76 का स्थान लेंगे जो 40 टन भार को ढोने में सक्षम थे। अमेरिका की हथियार निर्माता कम्पनी बोइंग ने इसे अपने यहां से 20 अगस्त को रवाना करवाया था।
23 अगस्त 2013 को भारतीय वायुसेना को तीसरा और इससे एक माह पहले 23 जुलाई को दूसरा सी-17 ग्लोब मास्टर प्राप्त हुआ था। वायुसेना के लिए खरीदे गए 10 बोइंग सैन्य परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर में से पहले विमान के हिस्सों को कैलिफोर्निया के लांगबीच में 31 जुलाई 2012 को एक समारोह के दौरान जोड़ा गया था। उसके बाद यह 18 जून 2013 को भारत आया था। इस तरह अब तक देश को अत्याधुनिक किस्म के कुल तीन सी-17 ग्लोबमास्टर भारी मालवाहक परिवहन विमान प्राप्त हो चुके हैं। सैन्य परिवहन विमानों की यह खरीदारी भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण अभियान का प्रमुख और महत्वपूर्ण हिस्सा है। इन्हें तुरंत इनके मिशन पर लगा दिया गया है। बोइंग कंपनी के उपाध्यक्ष और सी-17 विमान कार्यक्रम के प्रबंधक नैन बोचार्ड के मुताबिक सी-17 में हिमालयी तथा दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों में अभियान संचालित करने की क्षमता है और इससे उसकी अभियान क्षमता में काफी वृद्धि होगी। अमेरिका के बाद भारतीय वायुसेना सी-17 विमानों का संचालन करने वाली दूसरी सबसे बड़ी वायुसेना होगी। सी-17 ग्लोबमास्टर के चालक दल में दो पायलट व एक लोडमास्टर होता है। इसकी लम्बाई 174 फुट तथा उंचाई 55.1 फुट है। इसके डैने 169.8 फुट ऊंचे हैं।
77,519 किलोग्राम पेलोड के साथ इसकी गति 0.76 मैक है। चार इंजनों से लैस सी-17 ग्लोबमास्टर की रेंज 2420 नॉटिकल मील है। टी आकार के पिछले भाग वाले इस विमान के पिछले हिस्से में माल चढ़ाने के लिए रैंप है। यह विमान सात हजार फुट लंबी हवाई पट्टी से उड़ान भर सकता है, ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी उतरने में सक्षम है और आपातकालीन परिस्थितियों में मात्र 3000 फुट लंबी हवाई पट्टी पर उतर सकता है। फिलहाल ऐसी विशेषताओं वाले विमान अमेरिका, कनाडा, कतर, हंगरी व ब्रिटेन जैसे 18 देशों के पास हैं। नाटो संगठन के 12 सदस्य देश इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक यह कम्पनी 256 सी-17 विमान विभिन्न देशों को बेच चुकी है। इस भरोसेमंद विमान से भारतीय वायुसेना की ताकत दो गुना हो गई है। इसकी रफ्तार 830 किलोमीटर प्रति घंटा और ईंधन क्षमता 134556 लीटर है। सी-17 विमान बख्तरबंद गाडिय़ां ले जा सकता है। इस पर टैंक व हेलीकाप्टर भी लादकर ले जाए जा सकते हैं। मल्टी परपज वाला यह दुनिया का अत्याधुनिक विमान है। यह संकीर्ण स्थानों पर सैनिक टुकड़ी पहुंचाने में सक्षम है और ऐसी जगहों में इसे उतारा जा सकेगा। जम्मू-कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व जैसे इलाकों में यह कारगर भूमिका निभाएगा। भारत ने इस मालवाहक विमान का चयन जून 2009 में किया था। जून 2011 में बोइंग कम्पनी के साथ ऐसे 10 विमानों की खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर कर आपूर्ति का ऑर्डर दिया गया। यह सौदा 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का होने की उम्मीद है। इसके साथ भारत इन विमानों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया और इनके निर्माण की शुरुआत जनवरी 2012 में हो गई थी। इनके आ जाने से पुराने हो चुके रूस निर्मित भारतीय मालवाहक विमानों के बेड़े को आधुनिक रूप दिया जा सकेगा। सैन्य कायरें के अतिरिक्त इनका उपयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में मदद पहुंचाने में भी किया जाएगा। समुद्री क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल का जवाब देने के लिए अंडमान निकोबार द्वीप समूह की कैम्पबेल खाड़ी में भारतीय नौसेना का पहला एयर स्टेशन कुछ समय पहले खोला गया है। यह क्षेत्र मलक्का स्टेट्स से मात्र 75 मील की समुद्री दूरी पर है। इस एयर स्टेशन पर सबसे बड़े परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर व हरक्यूलिस को रखा जाएगा। चार इंजन वाला सी-17 ग्लोब मास्टर 2400 मील समुद्री दूरी तक कार्रवाई करने में सक्षम है। इसकी पहाड़ी व समुद्री इलाकों की मारक क्षमता से चीन व पाकिस्तान की चिंताएं बढ़ गई हैं। निश्चित रूप से इसने हमें रणनीतिक रूप से चीन के मुकाबले मजबूत किया है। तिब्बत जैसे स्वायत्तशासी इलाके में जिस तरह चीन की गतिविधियां बढ़ी हैं, उसके मद्देनजर सी-17 से चीन के खिलाफ विशेष सामरिक बढ़त मिलेगी। उम्मीद है कि 2013 के अन्त तक दो और विमानों की आपूर्ति हो जाएगी। 2014 में शेष पांच और विमानों भारत को सौंप दिए जाएंगे। इन सभी विमानों के मिलने के बाद भारतीय वायुसेना का परिवहन बेड़ा काफी मजबूत हो जाएगा।
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