तेल और गैस के भारी आयात ने भारत का व्यापार घाटा बहुत बढ़ा दिया है। यह चीज देश की तेज आर्थिक वृद्धि की राह में रोड़ा बन रही है। लेकिन पिछले हफ्ते जापान ऑयल गैस एंड मेटल्स नैशनल कॉरपोरेशन (जेओजीएमईसी) की एक तकनीकी उपलब्धि हमारे लिए अंधेरे में आशा की किरण बनकर आई है। वे लोग समुद तल पर जमा मीथेन हाइड्रेट के भंडार से प्राकृतिक गैस निकालने में कामयाब रहे। इस चीज को आम बोलचाल में फायर आइस या जलती बर्फ भी कहते हैं, क्योंकि यह चीज सफेद ठोस क्रिस्टलाइन रूप में पाई जाती है और ज्वलनशील होती है। भारत के पास संसार के सबसे बड़े मीथेन हाइड्रेट भंडार हैं। तकनीकी प्रगति के जरिये अगर इसके दोहन का कोई सस्ता और सुरक्षित तरीका निकाला जा सका तो देश के लिए यह बहुत बड़ा वरदान साबित होगा।
गैस का भंडार
जेओजीएमईसी का कहना है कि 2016 तक वह इस स्त्रोत से वाणिज्यिक पैमाने पर गैस का उत्पादन शुरू कर सकता है। इस बीच चीन और अमेरिका ने भी फायर आइस की खोज और इसके प्रायोगिक उत्कर्षण को लेकर बड़े कार्यक्रम बनाए हैं। अफसोस की बात है कि भारत इस तस्वीर में कहीं नहीं है। दुनिया में इस चीज की कुल मात्रा के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है। यह मात्रा 28 हजार खरब से लेकर 80 अरब खरब घन मीटर गैस के समतुल्य आंकी जाती है। संसार में मौजूद कुल 4400 खरब घन मीटर पारंपरिक गैस की तुलना में यह मात्रा कई गुना ज्यादा है। यह बात और है कि हाइड्रेट भंडारों के एक छोटे हिस्से का ही इस्तेमाल गैस उत्पादन में किया जा सकेगा।
जलती बर्फ का राज
मीथेन हाइड्रेट प्राकृतिक गैस और पानी का मिश्रण है। गहरे समुद्र तल पर पाई जाने वाली निम्न ताप और उच्च दाब की विशेष स्थितियों में यह ठोस रूप धारण कर लेता है। कनाडा और रूस के स्थायी रूप से जमे रहने वाले उत्तरी समुद्रतटीय इलाकों में यह जमीन पर भी पाया जाता है। इन जगहों से निकाले जाने के बाद इसे गरम करके या कम दबाव की स्थिति में लाकर (जेओजीएमईसी ने यही तकनीक अपनाई थी) इससे प्राकृतिक गैस निकाली जा सकती है। एक लीटर ठोस हाइड्रेट से 165 लीटर गैस प्राप्त होती है। यह जानकारी काफी पहले से है कि भारत के पास मीथेन हाइड्रेट के बहुत बड़े भंडार हैं। अपने यहां इसकी मात्रा का अनुमान 18,900 खरब घन मीटर का लगाया गया है। भारत और अमेरिका के एक संयुक्त वैज्ञानिक अभियान के तहत 2006 में चार इलाकों की खोजबीन की गई। ये थे- केरल-कोंकण बेसिन, कृष्णा गोदावरी बेसिन, महानदी बेसिन और अंडमान द्वीप समूह के आसपास के समुद्री इलाके। इनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन हाइड्रेट के मामले में संसार का सबसे समृद्ध और सबसे बड़ा इलाका साबित हुआ। अंडमान क्षेत्र में समुद तल से 600 मीटर नीचे ज्वालामुखी की राख में हाइड्रेट के सबसे सघन भंडार पाए गए। महानदी बेसिन में भी हाइड्रेट्स का पता लगा।
बहरहाल, आगे का रास्ता आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से होकर गुजरता है। हाइड्रेट से गैस निकालने का किफायती तरीका अभी तक कोई नहीं खोज पाया है। उद्योग जगत का मोटा अनुमान है कि इस पर प्रारंभिक लागत 30 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट) आएगी, जो एशिया में इसके हाजिर भाव का दोगुना और अमेरिका में इसकी घरेलू कीमत का नौगुना है। जेओजीएमईसी को उम्मीद है कि नई तकनीक और बड़े पैमाने के उत्पादन के क्रम में इस पर आने वाली लागत घटाई जा सकेगी। लेकिन पर्यावरण की चुनौतियां फिर भी अपनी जगह कायम रहेंगी। गैस निकालने के लिए चाहे हाइड्रेट को गरम करने का तरीका अपनाया जाए, या इसे कम दाब की स्थिति में ले जाने का, या फिर ये दोनों तरीके एक साथ अपनाए जाएं, लेकिन हर हाल में गैस की काफी बड़ी मात्रा रिसकर वायुमंडल में जाएगी और इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा। कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में प्राकृतिक गैस 15-20 गुना गर्मी रोकती है। पर्यावरण से जुड़ी इन आशंकाओं के चलते कई देशों ने अपने यहां शेल गैस का उत्पादन ठप कर दिया है और हाइड्रेट से गैस निकालने के तो पर्यावरणवादी बिल्कुल ही खिलाफ हैं। लेकिन शेल गैस के रिसाव को रोकना ज्यादा कठिन नहीं है। कौन जाने आगे हाइड्रेट गैस के मामले में भी ऐसा हो सके।
काफी पहले, सन 2006 में मुकेश अंबानी ने गैस हाइड्रेट्स के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाने को कहा था, लेकिन आज तक दिशा में कुछ किया नहीं जा सका है। अमेरिका, जापान और चीन में हाइड्रेट्स पर काफी शोध चल रहे हैं लेकिन भारत में इस पर न के बराबर ही काम हो पाया है। राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट कार्यक्रम के तहत पहला इसके भंडार खोजने के लिए पहला समुदी अभियान भी 2006 में चला था। दूसरे अभियान की तब से अब तक बात ही चल रही है। कुछ लोग इस उम्मीद में हैं कि अमेरिका और जापान जब गैस निकालने की तकनीक विकसित कर लेंगे तो हम इसे सीधे उनसे ही खरीद लेंगे। लेकिन यह उम्मीद बेमानी है। भारत के बड़े सबसे बड़े हाइड्रेट भंडार, जिनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन भी शामिल है, समुदी चट्टानों की दरारों में हैं, जबकि जापान और अमेरिका में ये बलुआ पत्थरों में पाए जाते हैं। जाहिर है, अमेरिका और जापान की उत्कर्षण तकनीकें बिना सुधार के हमारे यहां काम नहीं आने वाली। अपनी तकनीकी क्षमता हमें खुद ही विकसित करनी होगी।
गलत प्राथमिकताएं
भारत के हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय ने काफी पहले एक राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट शोध व विकास केंद्र स्थापित करने की गुजारिश की थी। इसे सरकारी निकाय न बनाया जाए। निजी क्षेत्र की तेल व गैस कंपनियों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके साथ ही भारतीय समुद्री क्षेत्र में हाइड्रेट भंडारों की और ज्यादा खोज और पुष्टि के लिए जापान और अमेरिका के साथ कुछ और साझा अभियान भी चलाए जाने चाहिए। अभी तो ड्रिलिंग के जरिये निकाले गए हाइड्रेट्स के नमूनों को जांच के लिए विदेशी प्रयोगशालाओं में भेजा जा रहा है। यह दयनीय स्थिति हमारी गलत प्राथमिकताओं की ओर इशारा करती है, और हर हाल में इसे बदलना ही होगा।
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