इस बार बारिश ने अपना पूरा रंग दिखाया। आषाढ़ से भादौ तक तो जम कर बारिश हुई। इससे देश भर में जल भराव के साथ ही डेंगू का असर गहरा हुआ है। अकेले दिल्ली-एनसीआर में पिछले आठ-दस दिनों में सैकड़ों मरीज अस्पताल पहुंचे हैं। राजस्थान के कई जिलों से लेकर बंगाल के दूरस्थ इलाकों तक, राउरकेला जैसे औघोगिक शहर से ले कर महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र तक हर इलाकों में औसतन हर रोज दस मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही चेतावनी दे चुका था कि इस साल दिल्ली में डेंगू महामारी बन सकता है। स्थानीय प्रशासन और संबंधित विभाग इंतजार कर रहा है कि मौसम में ठंडक बढ़े तो समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। अखबार व विभिन्न प्रचार माध्यम भले ही खूब विज्ञापन दिख रहे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव, कालेनी में डेंगू के मरीजों की भीड़ अस्पतालों की ओर बढ़ रही है । गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीडि़तों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रुपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आता है। डॉक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है । वहीं डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं । डेंगू फैलाने वाला एडिस मच्छर1953 में अफ्रीका से भारत आया। उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था, जिससे हजारों मौतें हुई थीं । अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं। यह तीन प्रकार को होता है । एक चार-पांच दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है, लेकिन मरीज को महीनों तक बेहद कमजोरी रहती है। दूसरे किस्म में मरीज को हेमरेज हो जाता है, जो उसकी मौत का कारण बन सकता है। तीसरे किस्म के डेंगू में हेमरेज के साथ-साथ रोगी का ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, इतना कि उसके मल-द्वार से खून आने लगता है व उसे बचाना मुश्किल हो जाता है । विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के वायरस भी चार तरह के होते हैं- सीरो-1, 2, 3 और 4। यदि किसी मरीज को इनमें से किन्हीं दो तरह के वायरस लग जाएं तो उसकी मौत लगभग तय होती है । ऐसे मरीजों के शरीर पर पहले लाल- लाल दाने पड़ जाते हैं । इसे बचाने के लिए शरीर के पूरे खून को बदलना पड़ता है । सनद रहे कि डेंगू से पीडि़त मरीज को 104 से 107 डिग्री बुखार आता है । इतना तेज बुखार मरीज की मौत का पर्याप्त कारण हो सकता है । डेंगू का पता लगाने के लिए मरीज के खून की जांच करवाई जाती है, जिसकी रिपोर्ट आने में दो-तीन दिन लग जाते हैं । तब तक मरीज की हालत लाइलाज हो जाती है । यदि इस बीच गलती से भी बुखार उतारने की कोई उलटी-सीधी दवा ले ली जाए तो लेने के देने पड़ जाते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में मच्छरों के प्रकोप की बड़ी वजह यहां बढ़ रहा दलदली क्षेत्र कहा जा रहा है। थार के रेगिस्तान की इंदिरा गांधी नहर और ऐसी ही सिंचाई परियोजनाओं के कारण दलदली क्षेत्र तेजी से बढ़ा है। इन दलदलों में नहरों का साफ पानी भर जाता है और यही एडीस मच्छर का आश्रय-स्थल बनते हैं । ठीक यही हालत देश के महानगरों की है जहां, थोड़ी सी बारिश के बाद सड़कें भर जाती हैं। ब्रिटिश गवरमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस (पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपेर्ट के मुताबिक दुनिया के गरम होने के कारण भी डेंगूरूपी मलेरिया प्रचंड रूप धारण कर सकता है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि गरम और उमस भरा मौसम, खतरनाक और बीमारियों को फैलाने वाले कीटाणुओं और विषाणुओं के लिए संवाहक जीवन-स्थिति का निर्माण कर रहे हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया में तापमान की अधिकता और अप्रवाही पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल माहौल मिल रहा है ।
बहरहाल इस मौसम में डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं और नगर निगम के कर्मचारी घर-घर जा कर मच्छर के लार्वा चैक करने की औपचारिकता निभा रहे हैं। सरकारी लाल बस्तों में दर्ज है कि हर साल करोड़ो रुपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डेंगू फैलाने वाले मच्छर न पनप सकें। परंतु हकीकत यह है कि मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं। यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लेता है । हालात इतने बुरे हैं कि पाईलेथाम और मेलाथियान दवाएं फिलहाल मच्छरों पर कारगर हैं, लेकिन दो-तीन साल में ही ये मच्छरों को और जहरीला बनाने वाली हो जाएंगी । भले की देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो, लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य तंत्र क्लोरोक्विन पर ही निर्भर है । हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है। डेंगू के इलाज में प्राइमाक्विन कुछ हद तक सटीक है, लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में जी-6 पीडी नामक एंजाइम की कमी न हो। यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है। विदित हो कि एंजाइम परीक्षण की सुविधा देश के कई जिला मुख्यालयों पर उपलब्ध ही नहीं है, अत: इस दवा के इस्तेमाल से डॉक्टर परहेज करते हैं। इसके अलावा डेंगू की क्वीनाइन नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है। कुल मिला कर मच्छर और उससे फैल रहे रोगों से निबटने की सरकारी रणनीति ही दोषपूर्ण है। पहले हम मच्छर को पनपने दे रहे हैं, फिर उसे मारने के लिए दवा का इंतजाम तलाश रहे हैं। उसके बाद मरीजों की तिमारदारी की व्यवस्था होती है। जबकि सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि मच्छरों की पैदावार रोकी जाए। उनकी प्रतिरोध क्षमता का आकलन कर नई दवाएं तैयार करने का काम त्वरित और प्राथमिकता से होना चाहिए। इसके बाद लोगों को जागरूक बनाने तथा इलाज की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है ।
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