Sunday, March 2, 2014

सनी ने ऑटोरिक्शा पर किया ‘रागिनी MMS-2’ का प्रमोशन


मुंबई। बॉलीवुड एक्ट्रेस सनी लियोनी ने 1 मार्च को मुंबई में अपनी अपकमिंग फिल्म ‘रागिनी MMS-2’ का प्रमोशन किया। सनी यहां एकदम हटके अंदाज में अपनी फिल्म को प्रमोट करती हुई दिखीं। उन्होंने अपनी फिल्म को प्रमोट करने के लिए ऑटोवालों का सहारा लिया।

दरअसल, सनी ने अपनी फिल्म को प्रमोट करने के लिए मुंबई के करीब 5000 ऑटो पर पोस्टर लगवाए हैं। ये पोस्टर दो तरह के है। एक पोस्टर पर लिखा है - ‘दो में ज्यादा मजा है’, जबकि दूसरे में लिखा है- ‘रागिनी का नया MMS देखा क्या’। सनी ने पोस्टर को खुद ऑटोरिक्शा पर लगाया, उसके बाद ऑटो को हरी झंडी दी। सनी फिल्म के प्रमोशन के दौरान ऑटो में भी बैठीं। उन्होंने यहां कई पोज भी दिए।

हालांकि, प्रमोशन के दौरान सनी को कुछ मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन बाद में पुलिस की देख-रेख में उन्होंने अच्छी तरह से अपनी फिल्म के प्रमोशन के काम को पूरा किया।

सनी लियोनी की ‘रागिनी MMS-2’ 2011 में आई हॉरर फिल्म ‘रागिनी MMS’ का सीक्वल है। इस फिल्म के निर्देशक भूषण पटेल हैं, जबकि शोभा और एकता कपूर ने मिलकर इस फिल्म को प्रोड्यूस किया है। ‘रागिनी MMS-2’ के हाल ही में दो गाने ‘बेबी डॉल’ और ‘चार बोतल वोदका’ रिलीज हुए हैं, जिन्हें इन दिनों यू-ट्यूब पर बहुत देखा जा रहा है। सनी की यह फिल्म 21 मार्च को रिलीज होगी।


रागिनी MMS-2’ को प्रमोट करती सनी लियोनी








(साभार)
http://bollywood.bhaskar.com/article-hf/ENT-BOL-sunny-leone-promote-ragani-mms-2-4537617-PHO.html

Tuesday, February 11, 2014

हथियारों से दिखेगी 'बाजुओं' की ताकत, चीन और पाक को पछाड़ भारत नंबर वन


नई दिल्ली. देश की राजधानी में डिफेंस एक्सपो गुरुवार को शुरू हो गया है। प्रगति मैदान में यह 9 फरवरी तक चलेगा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक यह एशिया का सबसे बड़ा एक्सपो है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने एग्जीबिशन का शुभारंभ किया। उन्होंने कहा कि डिफेंस के क्षेत्र में भारत नई टेक्नोलॉजी अपना रहा है। हम हमेशा शांतिपूर्ण तरीके से मुद्दों को सुलझाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम कमजोर हैं। डिफेंस एग्जीबिशन ऑर्गेनाइजेशन (डीईओ) इस एक्सपो का आयोजन कर रही है। एग्जीबिशन में इक्विपमेंट्स का प्रदर्शन करने के लिए फ्रांस, जर्मनी, इटली, नॉर्वे, हंगरी, इजरायल, ब्रिटेन और अमेरिका ने ज्यादा स्पेस खरीदा है।

आर्म्स इंपोर्ट कराने वाले देशों में भारत नंबर वन

दुनिया में सबसे ज्यादा आर्म्स इंपोर्ट कराने वाले देशों में भारत नंबर वन पर है। इस मामले में चीन दूसरे और पाकिस्तान तीसरे नंबर पर है।

बढ़ोतरी हुई

2008-12 के दौरान भारत के आर्म इंपोर्ट में

1.93 लाख करोड़ का डिफेंस बजट 2012 में

2 लाख करोड़ का डिफेंस बजट 2013 में

42% आर्मी, नेवी, एयर फोर्स को एडवांस करने पर खर्च

एक नजर में हथियार मेला

30 देश भाग ले रहे हैं डिफेंस एक्सपो में

256 भारतीय कंपनियां

368 विदेशी कंपनियां डिफेंस इक्विपमेंट्स का प्रदर्शन करेंगी

335 कंपनियों ने भाग लिया था 2012 में

27,700 वर्ग मीटर स्पेस की नीलामी हुई है एक्सपो के लिए

27,150 वर्ग मीटर स्पेस नीलाम हुआ था 2012 में


इजरायल की अनमैन्ड फास्ट पेट्रोलिंग बोट

इजरायली एयरोस्पेस इंडस्ट्री लिमिटेड कंपनी ने नेवी के लिए एक अनमैन्ड फास्ट पेट्रोलिंग बोट डेवलप की है।

इसलिए खास

ऑयल टर्मिनल्स और समुद्र के अंदर गैस और ऑयल पाइपलाइन की निगरानी करेगी। खतरे का संकेत मिलते ही कंट्रोल रूम में अलर्ट जारी कर देगी।


टाटा का लाइट आर्म्ड हाई मोबिलिटी व्हीकल
इसलिए खास: सभी सीटें माइन ब्लास्ट प्रोटेक्टड हैं। 12 लोग बैठ सकते हैं। इस पर तीन गन लगी हैं।
105 किमी प्रति घंटा की स्पीड व ऑल व्हील ड्राइव
हल्का बहुउद्देशीय सशस्त्र वाहन
हथियारों से लैस इस वाहन का इस्तेमाल रेतीले इलाके में आर्मी के लिए होता है। वाहन में दो मशीन गन इंस्टॉल की गई है। जिनकी क्षमता 300 राउंड फायर की है। बुलेटप्रूफ इस वाहन को गोलियों की बौछार के बीच भी दौड़ाया जा सकता है। दुश्मन की रेंज नापने के लिए इसमें दो रेडियो एक्टिव सिस्टम इंस्टॉल हैं जो इसके 700 मीटर के रेडियस में आने वाले माइन्स और विस्फोटक टैंक माइन्स को पहचान सकता है।


फिनलैंड: टीआरजी एम-10 स्नाइपर राइफल

फिनलैंड की कंपनी साको लिमिटेड ने टीआरजी एम-10 स्नाइपर राइफल पेश की है। यह पूरी तरह ऑटोमैटिक है। हर तरफ मूवमेंट करवाई जा सकती है। फिलहाल कीमत का खुलासा नहीं किया गया है।


डीआरडीओ ने पेश किया रस्टम-1 यूएवी

डीआरडीओ ने अनमैन्ड एरियल व्हीकल रस्टम वन पेश किया। मिलिट्री ऑपरेशन में इस्तेमाल होगा।


खासियतः 11,500 फीट की ऊंचाई तक जा सकता है। दुश्मन के रेडियस से ऊपर उड़ने के कारण आसानी से हमले करने की क्षमता है।




एके-104: ये स्टेनगन एके-47 के मुकाबले तीन गुना ज्यादा एडवांस है। रक्षा प्रणाली में इसका इस्तेमाल थलसेना और नेवी करती हैं। एके-104 की मारक क्षमता करीब 1200 मीटर तक है। रूसी अर्द्धसैनिक बलों के पास रहने वाली एके-104 से एक मिनट में करीब 80-90 गोलियों दागी जा सकती हैं। 
इसके मुकाबले एके-47 एक मिनट में 60 गोलियां दाग सकती है। रूसी कंपनी द्वारा निर्मित एके-104 को पिछले वर्ष ही रूसी सेना को सौंपा गया। जबकि भारत ने वर्ष 2014 के हथियारों के बजट में इस गन को शामिल किया है। 
कब बनी थी पहली मशीन गन
एके-47 दुनिया भर में मशहूर थी और कई देशों की सेना और गुरिल्ला आर्मी ने इसे अपनाया था। हीरो ऑफ रूस के सम्मान से नवाजे गए रूसी डिजाइनर मिखाइल कालाश्निकोव ने पहली मशीन गन का डिजाइन 1942 में बनाया था। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वह सोवियत यूनियन की रेड आर्मी में टैंक कमांडर के तौर पर नियुक्त थे और घायल अवस्था में थे। 1947 तक सोवियत मिलिट्री सर्विस में एके-47 को अपना लिया गया था। 1950 की शुरुआती समय सोवियत यूनियन और वार्सा संधि वाले देशों के बीच में यह मशीन गन स्टैंडर्ड मान ली गई थी। सबसे ज्यादा गन का इस्तेमाल पैरामिलिट्री सेना ने किया। एके 47 की प्रसिद्धी का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 1960 से 70 के दशक में मोजाम्बिक में जारी अस्थिरता के बीच इसे इतनी लोकप्रियता हासिल हुई कि राष्ट्रीय ध्वज पर भी इसकी तस्वीरें थी। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया भर में लगभग 10 करोड़ एके 47 राइफलें हैं।


एंटीपनडुब्बी युद्धक विमान पी-81
 
युद्धक विमान पी-81 को सबसे पहले ऑस्ट्रेलियन वाटर में पाटरोल बोट्स में इस्तेमाल किया गया। 28 मील प्रति घंटा की रफ्तार से चलने वाले इस एयरकाफ्रट की 1400 मील तक मारक क्षमता है। वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में रॉयल ऑस्ट्रेलियन नेवी रिजर्व में इसे शामिल किया गया है। एक समय में इसमें 3 सैनिक और 16 सेलर मौजूद रहते हैं। 40 एमएम क्षमता वाली गन से लैस विमान के अंदर 0.50 कैलिबर की दो एम2 मशीन गन्स भी इंस्टॉल रहती हैं।


पोर्टेबल आर्टिलरी सिस्टम 85 एमएम कार्ल-गुस्ताफ

इसका विकास जर्मनी के द्वारा किया गया और एक स्वीडिश कंपनी को इस अत्याधुनिक हथियार को तैयार करने में 27 महीने लगे थे। मारक क्षमता में इस अत्याधुनिक मिसाइल गन का जवाब नहीं। 300 मीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलने वाली इस गन की खासियत ये है कि इसे कहीं भी इस्तेमाल कर सकते हैं। 500 एमएम स्टील कोटेड ये मिसाइल गन एक बार में दो राउंड फायर करने में सक्षम है। इससे पहले जर्मन और स्वीडिश सेना के पास 84 एमएम कार्ल गुस्ताफ हुआ करती थी, जिसे 1948 में ही सेना में शामिल की गई थी। एक्सपोर्ट मार्किट में उसकी डिमांड अच्छी होने के कारण यह आज लगभग सभी देशों की सेना में शामिल है। हालांकि जर्मन और स्वीडन के बाद किसी अन्य देश की सेना में इसे 1990 में शामिल किया गया था। 


सैनिकों के लिए तैयार बॉडी सूट

थलसेना के लिए बॉडी सूट को बहुत पहले से इस्तेमाल किया जाता है। गन, चाकू और छोटे आर्म्स रखने के लिए इसे वर्दी के नीचे पहना जाता है। खासकर रेतीले बॉर्डर और ऊंची पोस्ट पर तैनात सैनिकों के लिए ये कारगर है। इस अत्याधुनिक सूट को यूएस आर्मी ने डिजाइन किया था। इसे पावर्ड आर्मर, एग्जोफ्रेम और एक्सोसूट भी कहा जाता है। सैनिकों को अपना बैग और आर्म्स इस सूट के साथ बांधकर ले जाने में आसानी रहती है। इसमें करीब 80 किलो से लेकर 300 किलो तक का भार सहने की क्षमता होती है।



बख्तरबंद गाड़ी केस्ट्रेल

केस्ट्रेल का इस्तेमाल पानी और जमीन दोनों पर होता है। इस टैंक को मरिन न्यू वैपन के नाम से भी जाना जाता है। चीन ने इसे सबसे पहले अपनी आर्मी में शामिल किया था। इसकी खासियत है कि पानी के अंदर भी ये उतनी ही मारक क्षमता रखता है जितनी जमीन पर। जमीनी इलाकों में ये जितनी तेजी से दुश्मन खेमे में पहुंच सकता है दूसरा कोई टैंक नहीं पहुंच सका। एक मिनट में तीन राउंड फायर करने की क्षमता से लैस है।



रूसी हथियारों का पंडाल
 
रूसी हथियार पंडाल में रखी ये 3 नॉट थ्री एयर गन को प्रदर्शनी में रखा गया है। यह पूरी तरह ऑटोमैटिक गन है। गन को हर तरफ मूवमेंट करवाई जा सकती है। एक समय में 30 राउंड गोली फायर करती है।



मल्टीपर्पज, हैवीवेट टॉरपिडो सी हॉक

सी हॉक एक ऐसी मिसाइल है जिसे मिग विमानों में इस्तेमाल किया जाता है। वायुसेना और नेवी इसे अपने सबसे प्रमुख हथियारों में से एक मानती हैं। 1970 में पहली बार इसे यूएस नेवी ने अपने हेलीकॉप्टर्स में इस्तेमाल किया था। 


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इजरायल का रक्षा पंडाल

इजरायल के रक्षा पंडाल में वायुसेना विमानों को देखना बेहद दिलचस्प है। इसमें खासकर इजरायल स्पेस जेट विमान को पेश किया गया है। इसके अलावा इजरायली एयरोस्पेस इंडस्ट्री लिमिटेड कंपनी ने नेवी के लिए एक अनमैन्ड फास्ट पेट्रोलिंग बोट को भी प्रदर्शित किया है।



सबसे लंबी शिप

डिफेन्स एक्सपो में पेश की गई ये शिप भारत में बनी अब तक की सबसे लंबी शिप है। एक्सपो में आने वालों की दिलचस्पी इसमें बहुत दिखाई दे रही है। 


डिफेन्स एक्सपो में पहुंचे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे

Friday, October 4, 2013

मच्छर ही नहीं पनपेंगे तो क्यों होगा डेंगू!


इस बार बारिश ने अपना पूरा रंग दिखाया। आषाढ़ से भादौ तक तो जम कर बारिश हुई। इससे देश भर में जल भराव के साथ ही डेंगू का असर गहरा हुआ है। अकेले दिल्ली-एनसीआर में पिछले आठ-दस दिनों में सैकड़ों मरीज अस्पताल पहुंचे हैं। राजस्थान के कई जिलों से लेकर बंगाल के दूरस्थ इलाकों तक, राउरकेला जैसे औघोगिक शहर से ले कर महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र तक हर इलाकों में औसतन हर रोज दस मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही चेतावनी दे चुका था कि इस साल दिल्ली में डेंगू महामारी बन सकता है। स्थानीय प्रशासन और संबंधित विभाग इंतजार कर रहा है कि मौसम में ठंडक बढ़े तो समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। अखबार व विभिन्न प्रचार माध्यम भले ही खूब विज्ञापन दिख रहे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव, कालेनी में डेंगू के मरीजों की भीड़ अस्पतालों की ओर बढ़ रही है । गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीडि़तों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रुपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आता है। डॉक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है । वहीं डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं । डेंगू फैलाने वाला एडिस मच्छर1953 में अफ्रीका से भारत आया। उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था, जिससे हजारों मौतें हुई थीं । अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं। यह तीन प्रकार को होता है । एक चार-पांच दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है, लेकिन मरीज को महीनों तक बेहद कमजोरी रहती है। दूसरे किस्म में मरीज को हेमरेज हो जाता है, जो उसकी मौत का कारण बन सकता है। तीसरे किस्म के डेंगू में हेमरेज के साथ-साथ रोगी का ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, इतना कि उसके मल-द्वार से खून आने लगता है व उसे बचाना मुश्किल हो जाता है । विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के वायरस भी चार तरह के होते हैं- सीरो-1, 2, 3 और 4। यदि किसी मरीज को इनमें से किन्हीं दो तरह के वायरस लग जाएं तो उसकी मौत लगभग तय होती है । ऐसे मरीजों के शरीर पर पहले लाल- लाल दाने पड़ जाते हैं । इसे बचाने के लिए शरीर के पूरे खून को बदलना पड़ता है । सनद रहे कि डेंगू से पीडि़त मरीज को 104 से 107 डिग्री बुखार आता है । इतना तेज बुखार मरीज की मौत का पर्याप्त कारण हो सकता है । डेंगू का पता लगाने के लिए मरीज के खून की जांच करवाई जाती है, जिसकी रिपोर्ट आने में दो-तीन दिन लग जाते हैं । तब तक मरीज की हालत लाइलाज हो जाती है । यदि इस बीच गलती से भी बुखार उतारने की कोई उलटी-सीधी दवा ले ली जाए तो लेने के देने पड़ जाते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में मच्छरों के प्रकोप की बड़ी वजह यहां बढ़ रहा दलदली क्षेत्र कहा जा रहा है। थार के रेगिस्तान की इंदिरा गांधी नहर और ऐसी ही सिंचाई परियोजनाओं के कारण दलदली क्षेत्र तेजी से बढ़ा है। इन दलदलों में नहरों का साफ पानी भर जाता है और यही एडीस मच्छर का आश्रय-स्थल बनते हैं । ठीक यही हालत देश के महानगरों की है जहां, थोड़ी सी बारिश के बाद सड़कें भर जाती हैं। ब्रिटिश गवरमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस (पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपेर्ट के मुताबिक दुनिया के गरम होने के कारण भी डेंगूरूपी मलेरिया प्रचंड रूप धारण कर सकता है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि गरम और उमस भरा मौसम, खतरनाक और बीमारियों को फैलाने वाले कीटाणुओं और विषाणुओं के लिए संवाहक जीवन-स्थिति का निर्माण कर रहे हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया में तापमान की अधिकता और अप्रवाही पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल माहौल मिल रहा है ।


बहरहाल इस मौसम में डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं और नगर निगम के कर्मचारी घर-घर जा कर मच्छर के लार्वा चैक करने की औपचारिकता निभा रहे हैं। सरकारी लाल बस्तों में दर्ज है कि हर साल करोड़ो रुपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डेंगू फैलाने वाले मच्छर न पनप सकें। परंतु हकीकत यह है कि मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं। यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लेता है । हालात इतने बुरे हैं कि पाईलेथाम और मेलाथियान दवाएं फिलहाल मच्छरों पर कारगर हैं, लेकिन दो-तीन साल में ही ये मच्छरों को और जहरीला बनाने वाली हो जाएंगी । भले की देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो, लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य तंत्र क्लोरोक्विन पर ही निर्भर है । हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है। डेंगू के इलाज में प्राइमाक्विन कुछ हद तक सटीक है, लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में जी-6 पीडी नामक एंजाइम की कमी न हो। यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है। विदित हो कि एंजाइम परीक्षण की सुविधा देश के कई जिला मुख्यालयों पर उपलब्ध ही नहीं है, अत: इस दवा के इस्तेमाल से डॉक्टर परहेज करते हैं। इसके अलावा डेंगू की क्वीनाइन नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है। कुल मिला कर मच्छर और उससे फैल रहे रोगों से निबटने की सरकारी रणनीति ही दोषपूर्ण है। पहले हम मच्छर को पनपने दे रहे हैं, फिर उसे मारने के लिए दवा का इंतजाम तलाश रहे हैं। उसके बाद मरीजों की तिमारदारी की व्यवस्था होती है। जबकि सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि मच्छरों की पैदावार रोकी जाए। उनकी प्रतिरोध क्षमता का आकलन कर नई दवाएं तैयार करने का काम त्वरित और प्राथमिकता से होना चाहिए। इसके बाद लोगों को जागरूक बनाने तथा इलाज की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है ।

क्रायोजेनिक तकनीक, अपनी झोली में कब तक



हाल में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्वदेश निर्मित क्रायोजेनिक इंजन वाले जीएसएलवी डी-5 की प्रस्तावित लांचिंग ऐन मौके पर रोक दी। इसरो प्रमुख के राधाकृष्णनन के अनुसार जीएसएलवी डी-5 में ईधन रिसाव होने के कारण प्रक्षेपण फिलहाल टाल दिया गया है। 49 मीटर लंबे और 414 टन वजनी जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के तीसरे चरण यानी देश में ही विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज में प्रणोदक भरने का काम चल रहा था तभी वैज्ञानिकों को रॉकेट के दूसरे चरण में ईधन रिसाव के संकेत मिले। इसके बाद इसरो अधिकारियों ने उलटी गिनती रोकने का निर्णय किया। रिसाव की समस्या जब सामने आई तब प्रक्षेपण में सिर्फ 74 मिनट का वक्त ही बचा था।



जीएसएलवी डी-5 प्रक्षेपण यान के निर्माण पर लगभग 160 करोड़ रुपये तथा उपग्रह के निर्माण पर लगभग 45 करोड़ रुपए की लागत आई है। अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अब भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। क्रायोजेनिक तकनीक के परिप्रेक्ष्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलने के कारण भारत इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लांच किए गए प्रक्षेपण यान सक्त्र्जीएसएलवीसक्ज्ञ् की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है। इससे पहले 2010 में भी भारत के दो महत्वाकांक्षी अभियान तकनीकी और संचालन संबंधी दिक्कतों के कारण असफल हो गए थे। इसरो अध्यक्ष के अनुसार वैज्ञानिक जीएसएलवी डी-5 में रिसाव के कारणों का विश्लेषण करेंगे और इसके बाद ही नई तिथि की घोषणा की जाएगी।



वास्तव में अप्रैल 2010 की तरह विफलता का जोखिम लेने से बेहतर था कि प्रक्षेपण को टाल दिया जाए और खामी दूर करने के बाद नए समय पर इसे प्रक्षेपित किया जाए। इसरो ने तीन चरणों वाले जीएसएलवी को नए सिरे से बनाया है और इसमें लगे क्रायोजेनिक इंजन का विकास पूर्णत स्वदेशी तकनीक से किया गया है। भारत के लिए यह पहला मौका नहीं है कि क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी के जरिए उपग्रह का प्रक्षेपण हो रहा है। इससे पहले 2010 में जीएसएलवी-एफ 06 से जीसैट-5 उपग्रह को लांच किया गया था मगर वह हवा में फट गया और महज 62 सेकंड में 175 करोड़ का अभियान स्वाहा हो गया। बाद में यह बंगाल की खाड़ी की ओर गिर गया। इस अभियान में भी तकनीकी खराबी आई थी जिसकी वजह से प्रक्षेपण की तारीख बदली गई थी, लेकिन बाद में भी यह अभियान पूर्ण रूप से विफल रहा। उस समय भी देश की उम्मीदों को गहरा झटका लगा था। इसके पीछे असली समस्या क्रायोजेनिक इंजन तकनीक के मामले में भारत का पूरी तरह आत्मनिर्भर न होना है। असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला द्रव्य ईधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं।



इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवित गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईधन क्रमश: ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है। क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत: ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टरबाइनों और ईधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है। फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्र-धातु विकसित कर ली है। अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप, जो ईधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है। द्रव्य हाइड्रोजन और द्रव्य ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा-सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना और पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है । जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है। दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो-तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है। जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए बेहद अहम है क्योंकि दूरसंचार उपग्रहों, मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं है। इस प्रक्षेपण में सफलता इसरो के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली है लेकिन अब इसके लिए देश को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा।


सुदूर अंतरिक्ष का सैलानी



पृथ्वी का एक सैलानी इस समय गहन अंतरिक्ष में भ्रमण कर रहा है। यह सैलानी और कोई नहीं, नासा का वॉएजर-1 है। सौरमंडल को पार करके अंतर-नक्षत्रीय में पहुंचने वाला यह पहला मानव निर्मित यान है। एक छोटी कार के आकार के इस यान का पिछले 36 साल से अंतरिक्ष में बने रहना अपने आप में एक बड़ा अजूबा है। इससे यह भी साबित होता है कि 70 के दशक की टेक्नोलॉजी आज भी अंतरिक्ष की विषम परिस्थितियों को ङोलने में सक्षम है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि वॉएजर-1 के कंप्यूटरों की मेमरी आज के एक आईफोन की तुलना में 2,40,000 गुणा कम है। फिर भी यह बखूबी काम कर रहा है। वॉएजर की सबसे खास बात यह है कि यह अंतरिक्ष की बुद्धिमान सभ्यताओं के लिए सोने की प्लेटिंग वाली तांबे की एक डिस्क ले गया है। यदि पारलौकिक प्राणी वॉएजर के संपर्क में आते हैं तो उन्हें इस डिस्क के जरिए पृथ्वी और मानवता की विविधताओं का परिचय मिल जाएगा। इस डिस्क में 116 तस्वीरों के अलावा प्राकृतिक ध्वनियों की रिकार्डिंग है जिनमें पक्षियों की चहचाहट, व्हेल मछली के संगीत, हवा और तूफान की आवाज आदि शामिल है। इसमें तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर और तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव कुर्ट वाल्दाइम के पारलौकिक सभ्यताओं के नाम दोस्ती के पैगाम भी हैं। डिस्क में शामिल संगीत में बीथोवन और मोजार्ट की कृतियों के अलावा केसरबाई केरकर की कृति जात कहां हो के रूप में भारतीय शास्त्रीय संगीत का नमूना भी है।
वॉएजर-1 इस समय सूरज से करीब 18.30 अरब किलोमीटर दूर है। वॉएजर-1 के पीछे-पीछे वॉएजर-2 चल रहा है। वैज्ञानिकों अनुसार तीन साल के भीतर दूसरा वॉएजर भी सौरमंडल को पार जाएगा। दोनों यान परमाणु ईंधन से चल रहे हैं, लेकिन इनकी आणविक बैटरियां धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। फिर भी नासा के वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि ये दोनों यान कम से कम 2025 तक पृथ्वी के संपर्क में बने रहेंगे। पृथ्वी से संपर्क टूटने के बाद भी ये यांत्रिक सैलानी गहन अंतरिक्ष में 40,000 वर्ष तक भ्रमण रहेंगे। पिछले साल वैज्ञानिकों ने पता लगाया था कि वॉएजर-1 के उपकरणों ने सूरज से निकलने वाले ऊर्जावान कणों को ग्रहण करना बंद कर दिया है। दूसरी तरफ सौरमंडल के बाहर से आने वाली ब्रह्मांडीय किरणों में भी वृद्धि देखी गई थी। इस आधार पर वैज्ञानिकों ने यान के सौरमंडल को पार करने का अंदाजा लगाया था। अब नासा के वैज्ञानिकों का मानना है कि वॉएजर-1 ने पिछले साल 25 अगस्त को अंतर-नक्षत्रीय अंतरिक्ष में प्रवेश कर लिया था। नए डेटा से पता चलता है कि वॉएजर-1 पिछले एक साल से ऊर्जावान गैस से गुजर रहा है जो तारों के बीच अंतरिक्ष में फैली हुई है। वॉएजर-1 के सौरमंडल को पार करने की घटना की तुलना चांद पर मनुष्य के उतरने की ऐतिहासिक घटना से की जा रही है। गौरतलब है कि वॉएजर-1 और उसके जुड़वां भाई, वॉएजर-2 को सौरमंडल के बड़े ग्रहों के अध्ययन के लिए 1977 में 16 दिन के अंतराल में रवाना किया गया था। दोनों यान बृहस्पति और शनि के बगल से गुजरे थे। वॉएजर-2 ने बृहस्पति के विशाल लाल धब्बों और शनि के चमकीले छल्लों की तस्वीरें भेजने के बाद यूरेनस और नेपच्यून को भी नजदीक से देखा था।



नासा के वॉएजर-मिशन के संचालक आज भी इन दोनों यानों से संकेत प्राप्त कर रहे हैं, हालांकि ये संकेत बेहद कमजोर हैं। इन संकेतों की पावर महज 22 वाट है। कुछ वैज्ञानिक वॉएजर -1 के अंतर-नक्षत्रीय अंतरिक्ष में पहुंचने के बारे में नासा के दावे से सहमत नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में अंतरिक्ष विज्ञान के प्रोफेसर लेनार्ड फिस्क का कहना है कि हमें अभी कुछ समय और इंतजार करना चाहिए।