Friday, October 4, 2013

मच्छर ही नहीं पनपेंगे तो क्यों होगा डेंगू!


इस बार बारिश ने अपना पूरा रंग दिखाया। आषाढ़ से भादौ तक तो जम कर बारिश हुई। इससे देश भर में जल भराव के साथ ही डेंगू का असर गहरा हुआ है। अकेले दिल्ली-एनसीआर में पिछले आठ-दस दिनों में सैकड़ों मरीज अस्पताल पहुंचे हैं। राजस्थान के कई जिलों से लेकर बंगाल के दूरस्थ इलाकों तक, राउरकेला जैसे औघोगिक शहर से ले कर महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र तक हर इलाकों में औसतन हर रोज दस मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही चेतावनी दे चुका था कि इस साल दिल्ली में डेंगू महामारी बन सकता है। स्थानीय प्रशासन और संबंधित विभाग इंतजार कर रहा है कि मौसम में ठंडक बढ़े तो समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। अखबार व विभिन्न प्रचार माध्यम भले ही खूब विज्ञापन दिख रहे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव, कालेनी में डेंगू के मरीजों की भीड़ अस्पतालों की ओर बढ़ रही है । गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीडि़तों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रुपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आता है। डॉक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है । वहीं डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं । डेंगू फैलाने वाला एडिस मच्छर1953 में अफ्रीका से भारत आया। उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था, जिससे हजारों मौतें हुई थीं । अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं। यह तीन प्रकार को होता है । एक चार-पांच दिनों में अपने आप ठीक हो जाता है, लेकिन मरीज को महीनों तक बेहद कमजोरी रहती है। दूसरे किस्म में मरीज को हेमरेज हो जाता है, जो उसकी मौत का कारण बन सकता है। तीसरे किस्म के डेंगू में हेमरेज के साथ-साथ रोगी का ब्लड प्रेशर बहुत कम हो जाता है, इतना कि उसके मल-द्वार से खून आने लगता है व उसे बचाना मुश्किल हो जाता है । विशेषज्ञों के मुताबिक डेंगू के वायरस भी चार तरह के होते हैं- सीरो-1, 2, 3 और 4। यदि किसी मरीज को इनमें से किन्हीं दो तरह के वायरस लग जाएं तो उसकी मौत लगभग तय होती है । ऐसे मरीजों के शरीर पर पहले लाल- लाल दाने पड़ जाते हैं । इसे बचाने के लिए शरीर के पूरे खून को बदलना पड़ता है । सनद रहे कि डेंगू से पीडि़त मरीज को 104 से 107 डिग्री बुखार आता है । इतना तेज बुखार मरीज की मौत का पर्याप्त कारण हो सकता है । डेंगू का पता लगाने के लिए मरीज के खून की जांच करवाई जाती है, जिसकी रिपोर्ट आने में दो-तीन दिन लग जाते हैं । तब तक मरीज की हालत लाइलाज हो जाती है । यदि इस बीच गलती से भी बुखार उतारने की कोई उलटी-सीधी दवा ले ली जाए तो लेने के देने पड़ जाते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में मच्छरों के प्रकोप की बड़ी वजह यहां बढ़ रहा दलदली क्षेत्र कहा जा रहा है। थार के रेगिस्तान की इंदिरा गांधी नहर और ऐसी ही सिंचाई परियोजनाओं के कारण दलदली क्षेत्र तेजी से बढ़ा है। इन दलदलों में नहरों का साफ पानी भर जाता है और यही एडीस मच्छर का आश्रय-स्थल बनते हैं । ठीक यही हालत देश के महानगरों की है जहां, थोड़ी सी बारिश के बाद सड़कें भर जाती हैं। ब्रिटिश गवरमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस (पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपेर्ट के मुताबिक दुनिया के गरम होने के कारण भी डेंगूरूपी मलेरिया प्रचंड रूप धारण कर सकता है। जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि गरम और उमस भरा मौसम, खतरनाक और बीमारियों को फैलाने वाले कीटाणुओं और विषाणुओं के लिए संवाहक जीवन-स्थिति का निर्माण कर रहे हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि एशिया में तापमान की अधिकता और अप्रवाही पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल माहौल मिल रहा है ।


बहरहाल इस मौसम में डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं और नगर निगम के कर्मचारी घर-घर जा कर मच्छर के लार्वा चैक करने की औपचारिकता निभा रहे हैं। सरकारी लाल बस्तों में दर्ज है कि हर साल करोड़ो रुपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डेंगू फैलाने वाले मच्छर न पनप सकें। परंतु हकीकत यह है कि मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं। यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लेता है । हालात इतने बुरे हैं कि पाईलेथाम और मेलाथियान दवाएं फिलहाल मच्छरों पर कारगर हैं, लेकिन दो-तीन साल में ही ये मच्छरों को और जहरीला बनाने वाली हो जाएंगी । भले की देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो, लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य तंत्र क्लोरोक्विन पर ही निर्भर है । हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है। डेंगू के इलाज में प्राइमाक्विन कुछ हद तक सटीक है, लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में जी-6 पीडी नामक एंजाइम की कमी न हो। यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है। विदित हो कि एंजाइम परीक्षण की सुविधा देश के कई जिला मुख्यालयों पर उपलब्ध ही नहीं है, अत: इस दवा के इस्तेमाल से डॉक्टर परहेज करते हैं। इसके अलावा डेंगू की क्वीनाइन नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है। कुल मिला कर मच्छर और उससे फैल रहे रोगों से निबटने की सरकारी रणनीति ही दोषपूर्ण है। पहले हम मच्छर को पनपने दे रहे हैं, फिर उसे मारने के लिए दवा का इंतजाम तलाश रहे हैं। उसके बाद मरीजों की तिमारदारी की व्यवस्था होती है। जबकि सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि मच्छरों की पैदावार रोकी जाए। उनकी प्रतिरोध क्षमता का आकलन कर नई दवाएं तैयार करने का काम त्वरित और प्राथमिकता से होना चाहिए। इसके बाद लोगों को जागरूक बनाने तथा इलाज की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है ।

क्रायोजेनिक तकनीक, अपनी झोली में कब तक



हाल में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्वदेश निर्मित क्रायोजेनिक इंजन वाले जीएसएलवी डी-5 की प्रस्तावित लांचिंग ऐन मौके पर रोक दी। इसरो प्रमुख के राधाकृष्णनन के अनुसार जीएसएलवी डी-5 में ईधन रिसाव होने के कारण प्रक्षेपण फिलहाल टाल दिया गया है। 49 मीटर लंबे और 414 टन वजनी जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के तीसरे चरण यानी देश में ही विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज में प्रणोदक भरने का काम चल रहा था तभी वैज्ञानिकों को रॉकेट के दूसरे चरण में ईधन रिसाव के संकेत मिले। इसके बाद इसरो अधिकारियों ने उलटी गिनती रोकने का निर्णय किया। रिसाव की समस्या जब सामने आई तब प्रक्षेपण में सिर्फ 74 मिनट का वक्त ही बचा था।



जीएसएलवी डी-5 प्रक्षेपण यान के निर्माण पर लगभग 160 करोड़ रुपये तथा उपग्रह के निर्माण पर लगभग 45 करोड़ रुपए की लागत आई है। अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अब भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। क्रायोजेनिक तकनीक के परिप्रेक्ष्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलने के कारण भारत इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लांच किए गए प्रक्षेपण यान सक्त्र्जीएसएलवीसक्ज्ञ् की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है। इससे पहले 2010 में भी भारत के दो महत्वाकांक्षी अभियान तकनीकी और संचालन संबंधी दिक्कतों के कारण असफल हो गए थे। इसरो अध्यक्ष के अनुसार वैज्ञानिक जीएसएलवी डी-5 में रिसाव के कारणों का विश्लेषण करेंगे और इसके बाद ही नई तिथि की घोषणा की जाएगी।



वास्तव में अप्रैल 2010 की तरह विफलता का जोखिम लेने से बेहतर था कि प्रक्षेपण को टाल दिया जाए और खामी दूर करने के बाद नए समय पर इसे प्रक्षेपित किया जाए। इसरो ने तीन चरणों वाले जीएसएलवी को नए सिरे से बनाया है और इसमें लगे क्रायोजेनिक इंजन का विकास पूर्णत स्वदेशी तकनीक से किया गया है। भारत के लिए यह पहला मौका नहीं है कि क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी के जरिए उपग्रह का प्रक्षेपण हो रहा है। इससे पहले 2010 में जीएसएलवी-एफ 06 से जीसैट-5 उपग्रह को लांच किया गया था मगर वह हवा में फट गया और महज 62 सेकंड में 175 करोड़ का अभियान स्वाहा हो गया। बाद में यह बंगाल की खाड़ी की ओर गिर गया। इस अभियान में भी तकनीकी खराबी आई थी जिसकी वजह से प्रक्षेपण की तारीख बदली गई थी, लेकिन बाद में भी यह अभियान पूर्ण रूप से विफल रहा। उस समय भी देश की उम्मीदों को गहरा झटका लगा था। इसके पीछे असली समस्या क्रायोजेनिक इंजन तकनीक के मामले में भारत का पूरी तरह आत्मनिर्भर न होना है। असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला द्रव्य ईधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं।



इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवित गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईधन क्रमश: ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है। क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत: ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टरबाइनों और ईधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है। फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्र-धातु विकसित कर ली है। अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप, जो ईधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है। द्रव्य हाइड्रोजन और द्रव्य ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा-सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना और पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है । जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है। दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो-तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है। जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए बेहद अहम है क्योंकि दूरसंचार उपग्रहों, मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं है। इस प्रक्षेपण में सफलता इसरो के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली है लेकिन अब इसके लिए देश को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा।


सुदूर अंतरिक्ष का सैलानी



पृथ्वी का एक सैलानी इस समय गहन अंतरिक्ष में भ्रमण कर रहा है। यह सैलानी और कोई नहीं, नासा का वॉएजर-1 है। सौरमंडल को पार करके अंतर-नक्षत्रीय में पहुंचने वाला यह पहला मानव निर्मित यान है। एक छोटी कार के आकार के इस यान का पिछले 36 साल से अंतरिक्ष में बने रहना अपने आप में एक बड़ा अजूबा है। इससे यह भी साबित होता है कि 70 के दशक की टेक्नोलॉजी आज भी अंतरिक्ष की विषम परिस्थितियों को ङोलने में सक्षम है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि वॉएजर-1 के कंप्यूटरों की मेमरी आज के एक आईफोन की तुलना में 2,40,000 गुणा कम है। फिर भी यह बखूबी काम कर रहा है। वॉएजर की सबसे खास बात यह है कि यह अंतरिक्ष की बुद्धिमान सभ्यताओं के लिए सोने की प्लेटिंग वाली तांबे की एक डिस्क ले गया है। यदि पारलौकिक प्राणी वॉएजर के संपर्क में आते हैं तो उन्हें इस डिस्क के जरिए पृथ्वी और मानवता की विविधताओं का परिचय मिल जाएगा। इस डिस्क में 116 तस्वीरों के अलावा प्राकृतिक ध्वनियों की रिकार्डिंग है जिनमें पक्षियों की चहचाहट, व्हेल मछली के संगीत, हवा और तूफान की आवाज आदि शामिल है। इसमें तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर और तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव कुर्ट वाल्दाइम के पारलौकिक सभ्यताओं के नाम दोस्ती के पैगाम भी हैं। डिस्क में शामिल संगीत में बीथोवन और मोजार्ट की कृतियों के अलावा केसरबाई केरकर की कृति जात कहां हो के रूप में भारतीय शास्त्रीय संगीत का नमूना भी है।
वॉएजर-1 इस समय सूरज से करीब 18.30 अरब किलोमीटर दूर है। वॉएजर-1 के पीछे-पीछे वॉएजर-2 चल रहा है। वैज्ञानिकों अनुसार तीन साल के भीतर दूसरा वॉएजर भी सौरमंडल को पार जाएगा। दोनों यान परमाणु ईंधन से चल रहे हैं, लेकिन इनकी आणविक बैटरियां धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। फिर भी नासा के वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि ये दोनों यान कम से कम 2025 तक पृथ्वी के संपर्क में बने रहेंगे। पृथ्वी से संपर्क टूटने के बाद भी ये यांत्रिक सैलानी गहन अंतरिक्ष में 40,000 वर्ष तक भ्रमण रहेंगे। पिछले साल वैज्ञानिकों ने पता लगाया था कि वॉएजर-1 के उपकरणों ने सूरज से निकलने वाले ऊर्जावान कणों को ग्रहण करना बंद कर दिया है। दूसरी तरफ सौरमंडल के बाहर से आने वाली ब्रह्मांडीय किरणों में भी वृद्धि देखी गई थी। इस आधार पर वैज्ञानिकों ने यान के सौरमंडल को पार करने का अंदाजा लगाया था। अब नासा के वैज्ञानिकों का मानना है कि वॉएजर-1 ने पिछले साल 25 अगस्त को अंतर-नक्षत्रीय अंतरिक्ष में प्रवेश कर लिया था। नए डेटा से पता चलता है कि वॉएजर-1 पिछले एक साल से ऊर्जावान गैस से गुजर रहा है जो तारों के बीच अंतरिक्ष में फैली हुई है। वॉएजर-1 के सौरमंडल को पार करने की घटना की तुलना चांद पर मनुष्य के उतरने की ऐतिहासिक घटना से की जा रही है। गौरतलब है कि वॉएजर-1 और उसके जुड़वां भाई, वॉएजर-2 को सौरमंडल के बड़े ग्रहों के अध्ययन के लिए 1977 में 16 दिन के अंतराल में रवाना किया गया था। दोनों यान बृहस्पति और शनि के बगल से गुजरे थे। वॉएजर-2 ने बृहस्पति के विशाल लाल धब्बों और शनि के चमकीले छल्लों की तस्वीरें भेजने के बाद यूरेनस और नेपच्यून को भी नजदीक से देखा था।



नासा के वॉएजर-मिशन के संचालक आज भी इन दोनों यानों से संकेत प्राप्त कर रहे हैं, हालांकि ये संकेत बेहद कमजोर हैं। इन संकेतों की पावर महज 22 वाट है। कुछ वैज्ञानिक वॉएजर -1 के अंतर-नक्षत्रीय अंतरिक्ष में पहुंचने के बारे में नासा के दावे से सहमत नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में अंतरिक्ष विज्ञान के प्रोफेसर लेनार्ड फिस्क का कहना है कि हमें अभी कुछ समय और इंतजार करना चाहिए।

Wednesday, October 2, 2013

सूरज की हदों से पार निकले हम


अगर हम अपने सौरमंडल को ब्रह्मांड में तैरता एक विशाल बुलबुला मानें, तो मानवनिर्मिंत दो उपग्रहों, वॉयजर-1 और वॉयजर-2 के बारे में कह सकते हैं कि वे इस बुलबुले की कैद से छूट रहे हैं। खास तौर से वॉयजर-1 इस मामले में उल्लेखनीय है क्योंकि इसके बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा ने हाल में घोषणा की है कि यह हमारे सौरमंडल की हदों के पार चला गया है। इंसान के हाथों बनी किसी चीज का इतनी दूर पहुंचना साइंस की दुनिया में एक ऐतिहासिक घटना है, ठीक वैसे ही जैसे, चंद्रमा पर इंसान का पहुंचना। करीब 36 साल पहले 1977 में नासा ने ये दो यान इस मकसद से रवाना किए थे कि इनसे सोलर सिस्टम के साथ- साथ अंतरतारकीय स्पेस के बारे में हमारी जानकारियों में विस्तार हो सके। इन्होंने अभी तक यह काम बखूबी किया भी है। वॉयजर-1 ने इस दौरान बृहस्पति और शनि जैसे बड़े ग्रहों और उनके चंद्रमाओं की बारीक पड़ताल की है, तो उधर वॉयजर-2 ने 2003 में पहले तो विशालकाय सौर ज्वालाओं का अता-पता दिया और फिर 2004 में इन ज्वालाओं के कारण पैदा होने वाली शॉक वेव्स के सोलर सिस्टम में भ्रमण की जानकारी दी। फिलहाल वॉयजर-1 यान हमसे करीब 19 अरब किलोमीटर दूर है। पिछले लंबे अरसे तक यह सूरज के बेइंतहा असर वाले ऐसे क्षेत्र में रहा है जिसे हेलियोस्फीयर कहा जाता है। इस इलाके में सूरज से छिटके हुए तेज रफ्तार से आते विद्युत आवेशित कणों की भरमार होती है और वे दूसरे सितारों से आए पदार्थ के खिलाफ घर्षण करते हैं। टर्मिंनेशन शॉक कहलाने वाले इस इलाके में सौर हवाएं औसतन 300-700 किमी प्रति सेकंड की भीषण गति से चलती हैं और बेहद घनी और गर्म होती हैं। इस इलाके में वॉयजर यान पिछले करीब 10 साल तक रहे हैं। इस क्षेत्र को पार करने के बाद वॉयजर-1 सौरमंडल के अंतिम सिरे यानी हेलियोपॉज में मौजूद रहा है। यह वह सरहद है, जहां सौर हवाएं और बाहरी स्पेस से आने वाली अंतरतारकीय हवाएं (तारों के बीच मौजूद गैस और धूल का समूह) एक-दूसरे से टकराती और दबाव बनाती हैं। इस टकराहट और परस्पर दबाव से ही वहां संतुलन कायम होता है। अब वॉयजर-1 की आगे की यात्रा बेहद महत्व की है। सौरमंडल से बाहर निकलने पर यह ऐसे स्पेस में पहुंच रहा है, जहां उसका सामना तूफानी सौर हवाओं और वैसी आवेशित गैसों से हो सकता है जो सूर्य को भी सुपरसॉनिक गति से भगा ले जाती हैं। वैसे तो विज्ञानियों के मुताबिक वॉयजर यानों का यह मिशन 2020 के बाद शायद ही कायम रह सके, क्योंकि तब तक ये यान वह जरूरी ऊर्जा खो चुके होंगे, जिसके बूते वे अभी पृथ्वी तक संकेत भेजने में सफल हो रहे हैं। वॉयजर अभियान की शुरु आत काफी दिलचस्प रही है। इसके पीछे 70 के दशक के अंत में घटित एक खगोलीय घटना है। असल में उस वक्त बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून ऐसी विशेष स्थिति में आ रहे थे कि तब कोई अंतरिक्ष यान एक के बाद एक इन चारों ग्रहों के करीब से होकर गुजर सकता था। इस तरह किसी ग्रह के करीब से गुजरने को साइंस की भाषा में फ्लाई-बाई कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों की यह स्थिति हर 177 साल बाद बनती है। नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के एयरोस्पेस इंजीनियर गैरी फ्लैंड्रो ने ग्रहों की बन रही इस खास स्थिति का अध्ययन कर एक अनोखी बात खोज निकाली थी। गैरी ने गणित की मदद से समझाया था कि अगर कोई अंतरिक्ष यान एक खास कोण से बृहस्पति के करीब से गुजरता है तो इस ग्रह का गुरुत्वाकर्षण बल उसे एक ऐसी जबरदस्त अतिरिक्त उछाल दे देगा, जिससे वह अंतरिक्ष यान बिना ईधन खर्च किए सीधे शनि तक जा पहुंचेगा। बृहस्पति की तरह शनि के गुरु त्वाकर्षण से मिली अतिरिक्त उछाल से उसे आगे के ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और उससे भी आगे निकल जाने में मदद मिलेगी। यह बिल्कुल नया विचार था क्योंकि इससे नाममात्र के ईधन के खर्च से और केवल गुरु त्वाकर्षण की उछाल का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में दूरदराज का सफर मुमकिन हो रहा था। इस तरह नासा ने वॉयजर मिशन पर काम शुरू किया, जिसके तहत वॉयजर-1 और वॉयजर-2 को बृहस्पति और शनि के लिए भेजना तय हुआ। उल्लेखनीय है कि वॉयजर-1 और इसका जुड़वां अंतरिक्ष यान वॉयजर- 2 अंतरिक्ष में अब दो अलग-अलग दिशाओं में हैं और एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि वॉयजर- 1 की रफ्तार वॉयजर-2 के मुकाबले 10 फीसद ज्यादा है। बहरहाल, अब 722 किलो वजनी अंतरिक्ष यान वॉयजर-1 हेलियोस्फीयर (सूर्य किरणों की पहुंच की सीमा वाले अंतरिक्ष) और सूर्य के नजदीकी इलाके- हेलियोशीथ को पीछे छोड़कर इंटरस्टेलर स्पेस कहलाने वाले गहन ब्रह्मांड में प्रवेश कर चुका है। आगे इससे हमें क्या जानकारी मिलेगी, इस पर अभी वैज्ञानिक कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। पर आगे अगर किसी अन्य सभ्यता से वॉयजरों की कोई मुलाकात होती है, तो इस संभावना से अंतहीन जिज्ञासाओं का कोई ठोस जवाब पाने का इंतजाम भी इन यानों में किया गया है। परग्रही एलियंस को हैलो कहने वाला एक ग्रीटिंग (संदेश) इसमें साथ है। करीब 12 इंच की गोल्ड प्लेटेड कॉपर डिस्क के रूप में एक ऐसा फोनोग्राफ इसमें मौजूद है, जो मौका आने पर कुछ ध्वनियां सुना सकता है और पृथ्वी के जीवन व संस्कृति की छवियां बिखेर सकता है। खास बात यह है कि इस कॉपर डिस्क में भारतीय गायिका केसरबाई केरकर का एक गीत- जात कहां हो भी दर्ज है जिसका चयन प्रख्यात खगोल विज्ञानी कार्ल सगॉन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने किया था। वॉयजर की यह यात्रा अचंभित करने वाली है। आश्र्चय है कि कैसे इसकी संचार पण्रालियां और यंत्र पृथ्वी से इतनी दूर होने पर काम कर पा रहे हैं और कैसे यह हम तक संकेत भेज पा रहा है। नासा के मुताबिक वॉयजर-1 में तीन रेडियोआइसोटॉप र्थमोइलेक्ट्रिक जेनरेटर लगे हैं, जो इसकी तमाम पण्रालियों/उपकरणों को जीवित रखे हुए हैं।

Monday, September 30, 2013

नदियों से इतनी बेरहमी


कभी मिट्टी के मोल बिकने वाली रेत और बजरी आज अनमोल हो गई है! राजनीतिज्ञ, माफिया और ठेकेदार सब इसके गोरखधंधे में लगे हुए हैं। यहां तक कि देश की सबसे प्रतिष्ठित सेवा के कई अधिकारियों तक को यह रेत-बजरी लील चुकी है। पूरे देश में रेत-बजरी का हजारों करोड़ रुपये का वैध-अवैध धंधा हो रहा है, शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां इस कारोबार को फलने-फूलने का मौका न मिल रहा हो। यह धंधा है बहुत चोखा, क्योंकि रेत-बजरी तो नदियां भर-भर कर लाती हैं, सिर्फ परिवहन का खर्च है। एक रुपये की लागत, पांच रुपये का मुनाफा! यही नहीं, एक ही परमिट की आड़ में फर्जीवाड़ा भी कम नहीं होता।
सरकार ने वर्ष 1957 में खदान व लवण नियम बनाए थे, जिस पर फिर कभी बहस नहीं हुई। इसके अनुसार हर राज्य खनन के लिए खुद ही नियम बनाएगा। मगर कई राज्य सरकारों ने कोई भी नियम नहीं बनाए। मध्य प्रदेश को ही देख लीजिए। अभी तक वहां इस संबंध में कोई भी नियम नहीं बनाया गया है, लेकिन वहां रेत-बजरी का व्यापार खूब जोर-शोर से पनपा है।
वैसे केंद्र ने अब जाकर खनन के लिए पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव के आकलन करने की व्यवस्था की है। इसके तहत पांच से लेकर 50 हेक्टेयर तक के खनन के लिए संबंधित राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होगी। इससे ऊपर के क्षेत्र में खनन के लिए केंद्र से मंजूरी लेनी जरूरी होगी, पर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों ने इन नियमों को ताक पर रख दिया है। इस वर्ष फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय ने इन सब परिस्थितियों को देखते हुए प्रत्येक खनन के लिए ग्रीन सिग्नल की आवश्यकता पर जोर दिया है। इस निर्णय की पृष्ठभूमि में अकेले वर्ष 2010 में अवैध खनन के 82,000 मामले सामने आए थे। इसी तरह पिछले वर्ष 47,000 से अधिक अवैध रेत-बजरी खनन के मामले सामने आए। ऐसे मामलों में कुल बिक्री के आठ प्रतिशत के बराबर जुर्माना भरना पड़ता है या फिर 25,000 रुपये जुर्माना और दो वर्ष तक की जेल। फिर कोई परमिट से चार गुना रेत निकाल ले या सौ गुना, जुर्माना ऊपर वाला ही होगा।
अनुमान के मुताबिक, देश में रेत-बजरी का सालाना 18,734 करोड़ रुपये का कारोबार होता है और हम इस मामले में दुनिया में दसवें नंबर पर हैं। इसमें अवैध खनन का भी हिस्सा है। पर्यावरण से जुड़े एक दल ने स्वीकार किया है कि राजधानी और उसके आसपास यमुना और हिंडन नदियों में अवैध खनन जारी है, जिस पर नियंत्रण आवश्यक है।
हकीकत यह है कि देश की लगभग सभी नदियां खनन की मार झेल रही हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में नर्मदा, चंबल, बेतवा, बेनगंगा आदि नदियों के हालात खनन के कारण गंभीर हैं, तो केरल में भारतपूजा, कुटटुमाड़ी, अचनकोकिला, पम्पा व मेटियार नदियां संकट में हैं। इसी तरह तमिलनाडु में कावेरी, बेगी, पलार, चेटयार नदियों को बेहतर नहीं कहा जा सकता। कर्नाटक में हरंगी, कावेरी और पपलानी जैसी नदियों पर भी खनन का बुलडोजर लगातार चल रहा है। गोदावरी, तुंगभद्रा व नागवली आंध्र प्रदेश की मुख्य नदियां हैं, जो लगातार खनन के कारण मरी जा रही हैं। गुजरात की तापी और बिहार की गंडक, हरियाणा की सतलुज और छत्तीसगढ़ की महानदी की स्थिति भी अत्यधिक खनन से खराब हो रही है। नदियों के इस बेरहम दोहन के पीछे होने वाली कमाई की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। यही नहीं, विभिन्न राज्यों में रेत और बजरी की कीमतों में भी भारी अंतर है। बंगलूरू में एक ट्रक रेत की कीमत 30,000 रुपये है, तो हरियाणा में 15,000 रुपये और पश्चिम बंगाल में 16,000 से 20,000 रुपये तक। अकेले राजस्थान में यह तीन से चार सौ करोड़ का व्यापार है, तो बिहार में करीब आठ हजार करोड़ रुपये का।
इस मारामारी में अगर कुछ बिगड़ा है, तो सिर्फ नदियों का। नदियों की संस्कृति को समझने की आवश्यकता है। हमने इस दिशा में कभी कोई कोशिश नहीं की। हमने नदियों को मात्र अपनी खेती-पानी या रेत-बजरी, पत्थर की आवश्यकता से ज्यादा कुछ नहीं माना। इसके विज्ञान को, जो प्रकृति की देन भी है, हमने सिरे से नकार दिया। नदी प्रकृति के आपसी मंथन का परिणाम होती है। ये हजारों-लाखों वर्षों की पारिस्थितिकीय हलचलों का उत्पाद होती हैं। हमारी नदियों को अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग में लाने की कोशिश आने वाले भविष्य के लिए घातक सिद्ध होगी। नदियों का अत्यधिक खनन उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। देश-दुनिया की सभ्यता नदियों की ही देन है। नदियों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि पानी ही जीवन का मूल तत्व है। नदियों के शोषण की हमने सारी सीमाएं लांघ दी हैं।



नदियों में रेत-पत्थरों के कई मायने होते हैं। इनकी गति के नियंत्रण और भूमिगत जल की आपूर्ति में इनका बड़ा योगदान होता है। देश में भूमिगत पानी की आपूर्ति का बड़ा स्रोत नदियां ही हैं। आज इसकी कमी के कारणों में नदियों का गिरता जलस्तर भी है। नदियों के वेग को थामने और जल संग्रहण में रेत-बजरी की बड़ी अहम भूमिका होती है, ताकि पानी भूमिगत हो सके। यह भी सत्य है कि नदियों में भरी रेत-बजरी को एक सीमा तक हटाया जाना जरूरी है, क्योंकि अत्यधिक मात्रा में इनके जमा होने पर नदियों के रास्ते बदले जाने का भी भय होता है, पर इसकी तय सीमा को कभी भी माना नहीं जाता। ठेके के बाद खनन के सारे नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। पिछले दशकों में यही हुआ है और नदियों को चौतरफा मार मिली है। यदि हम अब भी नहीं चेते, तो स्थिति और खतरनाक हो सकती है।


Sunday, September 22, 2013

कई निशाने साधेगी यह मिसाइल



यकीनन यह बड़ी कामयाबी है। बैलिस्टिक के बाद भारत ने अब अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल तैयार कर इस क्षेत्र में महारत हासिल कर ली है, वह भी स्वदेशी तकनीक से। हालांकि, इसके कुछ कल-पुर्जे दूसरे देशों से खरीदे गए हैं और उनकी मदद से बनाए भी गए हैं। लेकिन अग्नि-पांच का सफल प्रक्षेपण यह बताता है कि साल 1983 में एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम की जो पहल हुई थी, वह आज सही दशा और दिशा में है। इसी के बूते भारत में 'पृथ्वीÓ से लेकर 'अग्निÓ तक कई मिसाइलों की श्रृंखला बनी और मिसाइल शोध तथा विकास के क्षेत्र में भारत को कई बेमिसाल उपलब्धियां हासिल हुईं।
आज भारत अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल संपन्न देशों की सूची में छठे सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका है। अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल की जमीन से जमीन मारक क्षमता 5,000 किलोमीटर से 13,000 किलोमीटर तक होती है। इस हिसाब से देखें, तो अमेरिका अपने यहां से ग्लोब के किसी भी हिस्से में मिसाइल दाग सकता है। यह भी सच है कि चीन अपनी मिसाइलों की क्षमता के कारण अमेरिका को अक्सर घुड़की देता रहता है। ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के पास भी लगभग इतनी ही मारक क्षमता की मिसाइलें हैं। गौर करने वाली बात यह भी है कि ये पांचों देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, जबकि छठे देश भारत को अभी सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। इसके बावजूद, वह 5,000-8,000 किलोमीटर दूर तक अब मिसाइलें दाग सकता है। इसे ऐसे समझों कि अग्नि-पांच पूरे चीन को अपनी गिरफ्त में ले सकता है, पूरा एशिया इसकी जद में आ गया है, बल्कि यूरोप के कुछ हिस्से भी। इसलिए इसे दुनिया भर में भारत की बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है और नए तरीके से इस क्षेत्र में भू-सामरिक तथा भू-कूटनीतिक समीकरण पर प्रकाश डालने की शुरुआत हो चुकी है।
यह मिसाइल डेढ़ टन के परमाणु हथियार को ले जाने में सक्षम है। एक ही मिसाइल में कई परमाणु हथियारों के तकनीकी प्रयोग की बात भी कही जा रही है। ऐसा अनुमान है कि साल 2016 में इसे भारतीय सेना में शामिल कर लिया जाएगा और जरूरत पडऩे पर राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश पर इसे छोड़ा जाएगा। लेकिन इसका अगला संस्करण क्या होगा, जिस पर रक्षा शोध तथा विकास संगठन, यानी डीआरडीओ इस समय जुटा हुआ है? वह है- केनेस्टर मिसाइल टेक्नोलॉजी। यह एक ऐसी तकनीक है, जिससे मिलिटरी ट्रांसपोर्ट के ऊपर इस मिसाइल को कहीं भी भेजा जा सकता है और वहीं से लॉन्च करना भी मुमकिन हो सकेगा। इस स्थिति में, शत्रु पक्ष ऐसी मिसाइल को आसानी से न्यूट्रलाइज नहीं कर पाएगा। केनेस्टर का मतलब है-एक बड़ा डिब्बा, जिसके अंदर कई परमाणु वारहेड या बम हो सकते हैं। अग्नि-पांच का प्रक्षेपण इतना आसान है कि इसे कहीं से भी छोड़ा जा सकता है। ऐसे में, नए वजर्न से अगर इस मिसाइल को पूवरेत्तर सीमा पर तैनात कर दिया जाए, तो चीन के लिए मुश्किल हो जाएगी। इस मिसाइल का माइक्रो नेवीगेशन सिस्टम यह सुनिश्चित करता है कि यह अपने निशाने से तनिक भी नहीं भटकेगी।
निस्संदेह, डीआरडीओ ने मिसाइल के क्षेत्र में बड़ी बाजी मार ली है। बीते वर्षो में इस संगठन की आलोचना इस आधार पर होती रही है कि यह छोटे और उपयोगी हथियार, मसलन कार्बाइन नहीं बना सकता, पर मिसाइल और क्रिटिकल टेन्टेटिव टेक्नोलॉजी में काफी आगे जा चुका है। यह ठीक भी है, क्योंकि हमारे सैन्य शस्त्रगार लगभग खाली होते जा रहे हैं और बड़े-बड़े हथियार, जिनके इस्तेमाल नहीं हो पा रहे हैं, लगातार बनते जा रहे हैं। लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो अति उन्नत हथियार और दूर तक मार करने वाली क्षमता की मिसाइल की तकनीक हमें कोई दूसरा देश मुहैया नहीं करा सकता या फिर लंबे वक्त तक नहीं दे सकता है। इसलिए इसके निर्माण की स्वदेशी क्षमता का होना जरूरी था और डीआरडीओ इस लक्ष्य में काफी हद तक कामयाब रहा है।
युद्ध में आधुनिक मिसाइलों का इस्तेमाल आखिरी विकल्प होता है। इस मामले में भारत की शुरू से ही 'सेकेंड स्ट्राइकÓ पॉलिसी रही है। 'फर्स्ट स्ट्राइकÓ का मतलब होता है, सबसे पहले मिसाइल दागना। और हमारी रणनीति है कि कोई भी देश अगर हम पर मिसाइल दागता है, तो उसे न्यूट्रलाइज करने के लिए हम उसका जवाब अवश्य देंगे।



हालांकि, अभी जो तनाव है, उसे देखते हुए लगता है कि चीन की नीति हम पर मिसाइल दागने की कभी नहीं रही है, बल्कि वह धीरे-धीरे हमारी जमीन हड़पने की नीति रखता है। हाल की घटनाएं इस तथ्य को और भी पुष्ट करती हैं। ऐसे में, यह तर्क जायज है कि हमें अपनी सेना के तीनों अंगों को अत्याधुनिक और क्षमतावान बनाना होगा। मिलिटरी रिसोर्स व इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक काम करने की आवश्यकता है और इसके लिए हथियारों की खरीद बढ़ानी होगी। साथ ही, स्वदेशी हथियार निर्माण में निजी क्षेत्र को भी आने की इजाजत देनी होगी। अगर हम 'री-इन्वेंटिंग द ह्वीलÓ, यानी हर बार फिर से बैलगाड़ी बनाने की सोच से बाहर निकलें, तो यह सब बड़ी आसानी से मुमकिन है और इसे हमारी उन्नत मिसाइल टेक्नोलॉजी साबित कर चुकी है।
इसमें कोई शक नहीं कि मिसाइल डिफेंस पड़ोसी देशों पर एक किस्म का दबाव बनाता है कि अगर उनमें से किसी ने भी सीमाओं का अतिक्रमण किया, तो उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। यह 'सीमित युद्धÓ का भी विकल्प देता है। लेकिन भारत जैसे देश के सामने, जो दोनों तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ है, सुरक्षा व रक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं और उनसे निपटने का हमारे पास सबसे बड़ा अचूक हथियार युवा शक्ति के रूप में है। पश्चिम के देश चाहते हैं कि भारत अपनी इस क्षमता का अधिक से अधिक इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र में करे। अगर भारत उनके सहयोग से इस शक्ति का इस्तेमाल स्वदेशी हथियार निर्माण और विकास प्रणाली में करता है तथा निजी क्षेत्रों के सहयोग से अपने यहां हथियार बनाने के कल-कारखाने खोलता है, तो अगले दस साल में वह न केवल सुरक्षा तैयारियों के तमाम क्षेत्रों में शिखर पर होगा, बल्कि अपने हथियारों को मित्र देशों में बेचकर काफी धन भी कमा पाएगा। ऐसी स्थिति में, भारत की अर्थव्यवस्था में रक्षा क्षेत्र का भी महत्वपूर्ण योगदान होगा, जो अब तक नहीं है, लेकिन इसके लिए मिसाइल टेक्नोलॉजी जैसी नीतियां अपनानी होंगी।

Wednesday, September 18, 2013

कॉन्ट्रसेप्टिव से जान पहचान


इनका जिक्र होते ही त्योरियां चढ़ जाती हैं और कभी-कभी चर्चा में असहजता भी महसूस होती है। लेकिन यकीन मानिए आने वाले वक्त में धरती पर इंसानी मौजूदगी का भविष्य यही तय करेंगे।:
दस के बस में दुनिया
बच्चे का जन्म कुदरत का कारनामा है और इस पर कोई कंट्रोल मुमकिन नहीं, इस मिथक से निकलने में इंसान को हजारों बरस लगे। लेकिन अब हालात काफी बदल चुके हैं, 20 वीं शताब्दी में गर्भनिरोधकों ने दुनिया के कई देशों की भविष्य निर्धारक नीतियों का हिस्सा बन चुके हैं। संक्रामक बीमारियों ने भी गर्भ निरोधकों की जरूरत को बढ़ा दिया है। आज इसके तमाम तरीके हमारे सामने हैं। एक नजर डालते हैं बर्थ कंट्रोल के मुख्य तरीकों पर:

1. हॉर्मोनल
यह तरीका शरीर में उन हॉर्मोन्स को पहुंचाने का है, जिससे गर्भधारण को रोका जा सके। मुख्यत: इस तरह के कॉन्ट्रसेप्टिव महिलाएं ही इस्तेमाल करती हैं और यह उनके शरीर में ऑव्युलेशन या अंडों के बनने की प्रक्रिया को रोक देते हैं।
- इनमें खाने वाली गोलियां, इंप्लांट, इंजेक्शन से दिया जाने वाले हॉर्मोन्स और गर्भाशय में लगने वाली डिवाइस शामिल हैं।
- डॉक्टर खाने वाली गोलियां को ही इस तरह के कॉन्ट्रसेप्टिव में प्रभावी मानते हैं।
- गोलियां बेहतर तरीका है और इंप्लांट से लोगों को कई बार परहेज करते देखा गया है क्योंकि वह कभी-कभी ब्लीडिंग को बढ़ा देती है।

2. बैरियर
यह प्रेग्नेंसी से बचने के ऐसे तरीके हैं, जिसमें स्पर्म को अंडों तक पहुंचने से रोका जाता है। मोटे तौर पर यह स्पर्म को रोकने में इस्तेमाल होने वाला गर्भनिरोधक है।
- पुरुष कॉन्डम, महिला कॉन्डम, डायफ्रॉम, कॉन्ट्रसेप्टिव स्पंज (महिलाएं स्पर्म को अंदर पहुंचने से पहले ही सोख लेने के लिए इस्तेमाल करती हैं) और स्पर्मीसाइड इस कैटिगरी में आते हैं।
- इस समय कॉन्डम ही बेहतर बैरियर साबित हो रहा है।
- डायफ्रॉम और स्पंज जैसे तरीके अब पुराने जमाने की बात हो गई है और बैरियर के तौर पर कॉन्डम ही सबसे ज्यादा असरदार है।
- बर्थ कंट्रोल के अलावा संक्रामक बीमारियों को रोकने में भी कॉन्डम कारगर है।

3. इंट्रा यूटेराइन डिवाइस ढ्ढष्ठ (गर्भाशय में लगने वाली डिवाइस)
- यह एक महिला कॉन्ट्रसेप्टिव है।
- यह ञ्ज आकार की तांबे की एक डिवाइस होती है, जिसे गर्भाशय में फिट कर दिया जाता है। इसके शेप की वजह से ही इसे कॉपर-टी कहा जाता है।
- कई तरह के मल्टि-लोड भी इस श्रेणी में आते हैं।
- लंबे समय तक गर्भ रोकने का बहुत सटीक तरीका है और डॉक्टरों के मुताबिक काफी कारगर है।
- इसे वे महिलाएं अपनाती हैं जो एक बच्चे को जन्म दे चुकी हैं।
- जरूरत पडऩे पर इसे हटवाया भी जा सकता है और महिलाएं फिर से गर्भधारण करने में सक्षम हो जाती हैं।
- जो महिलाएं मां नहीं बनी हैं, उन्हें यह तरीका रिकमंड नहीं किया जाता है।

4. स्टरलाइजेशन
- यह एक स्थायी गर्भनिरोधक है। इसे पुरुष और महिला दोनों अपना सकते हैं।
- आम भाषा इसे ऑपरेशन या नसबंदी कहते हैं।
- सर्जरी से पुरुष और महिला के उन अंगों को निष्क्रिय कर दिया जाता है, जो गर्भधारण में भूमिका अदा करते हैं।
- पुरुष नसबंदी ज्यादा कारगर साबित होती है और इससे उनकी सेक्स क्षमता पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
- यह तरीका वे लोग अपनाते हैं जो आगे नैचरल तरीके से कभी बच्चा नहीं चाहते।

5. बिहेवेरियल (रिदम मैथड)
- इस तरीके में कुछ खास दिनों में सहवास से बच कर प्रेग्नेंसी को रोका जाता है।
- इस तरीके में ओव्युलेशन यानी शरीर में अंडे के निर्माण के समय को सही से काउंट करते हैं और उस समय संबंध नहीं बनाते।
- नए शादीशुदा लोगों में यह तरीका काफी पॉप्युलर है लेकिन इसमें रिस्क भी है।
- काउंटिंग में जरा-सी गलती गड़बड़ कर सकती है। हालांकि नैचरल तरीका होने की वजह से यह काफी हेल्थी भी है।

6. विड्रॉल
- इसमें संबंध बनाते वक्त कपल इस बात का ध्यान रखते हैं कि स्पर्म शरीर के अंदर न जाए।
- पुरुष डिस्चार्ज की अवस्था में पहुंचने से पहले ही प्राइवेट पार्ट को बाहर निकाल लेते हैं, जिससे स्पर्म शरीर में प्रवेश नहीं कर पाता।
- इस तरीके को यंग कपल अधिक अपनाते हैं।
- डॉक्टरों का मानना है कि यह भी एक रिस्की तरीका है और स्पर्म का एक छोटा सा कतरा भी प्रेग्नेंसी के लिए काफी है।

7. परहेज
- इस मेथड में हर तरह की सेक्शुअल ऐक्टिविटी को बंद कर दिया जाता है।
- यह तरीका पूरी तरह से सेफ है लेकिन लंबे वक्त तक संबंध न बनाने से कामेच्छा पर विपरीत असर पड़ता है ।

8. लैक्टेशन
- डिलिवरी के बाद जब मां स्तनपान करवाती है तब कुछ दिनों तक पीरियड्स रुक जाते हैं। इस दौरान भी गर्भधारण की संभावना नहीं रहती।
- इस तरीके को भी लोग गर्भनिरोधक की तरह इस्तेमाल करते हैं।
- जो महिलाएं स्तनपान नहीं करवाती उनका लगभग 4 हफ्ते में पीरियड फिर से शुरू हो जाता है और ऐसे में फिर से गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है।

9. इमरजेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव
- यह मुख्यत: वे गर्भनिरोधक हैं जिन्हें असुरक्षित सेक्स के बाद इस्तेमाल किया जा सकता है।
- जब किसी गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं हो पाता और गर्भधारण का खतरा महसूस होता है, तब महिला अगले 72 घंटे के अंदर एक गोली खाकर अनचाहे गर्भ से बच सकती हैं। इस गोली को आई-पिल कहा जाता है।
- डॉक्टरों की सलाह है कि इस तरह के गर्भनिरोधक इमरजेंसी में इस्तेमाल किए जाने चाहिए न कि एक रेग्युलर कॉन्ट्रसेप्टिव की तरह। इसके अधिक इस्तेमाल से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा है।

10. डुअल प्रोटेक्शन
- यह तरीका संक्रामक यौन रोगों और गर्भधारण दोनों से एक साथ बचने के लिए अपनाया जाता है।
- इसमें बर्थ कंट्रोल के अन्य तरीके को कॉन्डम के साथ इस्तेमाल किया जाता है या पूरी तरह ही सेक्स से बचा जाता है।
- कई तरह का प्रोटेक्शन लेने की सलाह उन लोगों को दी जाती है जो ऐंटि-एक्ने (मुंहासे के लिए दवा) जैसी दवा का इस्तेमाल करते हैं। इनके प्रभाव से एक प्रोटेक्शन काम नहीं करता, इसलिए बेहतर है कि दोहरा प्रोटेक्शन अपनाएं।

लोड कम करे मल्टि-लोड
गाइनकॉलजिस्ट कहते हैं कि एक बच्चे के बाद महिलाओं में सबसे पॉप्युलर कॉन्ट्रसेप्टिव मल्टि-लोड हैं।
- यह एक इंट्रा-यूटेराइन डिवाइस(ढ्ढष्ठ) है, जो अनचाही प्रेग्नेंसी रोकने का एक सटीक तरीका है।
- इसमें कॉपर तार लिपटी एक प्लास्टिक की रॉड होती है, जिसमें दो प्लास्टिक के हाथ होते हैं। इसके एक सिरे पर नायलॉन का धागा होता है।
- इसे गर्भाशय के अंदर इस तरह से लगाया जाता है कि ओव्युलेशन के बाद अंडे निषेचित होने के लिए गर्भाशय में न पहुंच सकें।

किनके लिए बेस्ट?
- आईयूडी के दूसरे विकल्पों के मुकाबले इसका इस्तेमाल काफी सरल है।
- इसके इस्तेमाल का प्रमुख कारण लंबे समय तक गर्भधारण की चिंता से मुक्ति है।
-मल्टि-लोड चुनते वक्त महिलाएं 3, 5 या 10 साल तक का विकल्प चुन सकती हैं। जरूरत पडऩे पर वह इसे डॉक्टर की मदद से बाहर निकलवा कर फिर से गर्भधारण करने में सक्षम हो सकती हैं।

सावधानी जरूरी
- मल्टि-लोड इस्तेमाल करना तो सरल है, लेकिन कोई परेशानी होने पर ध्यान देना भी जरूरी है।
- मल्टि-लोड के इस्तेमाल के बाद अगर आपको सेहत में कुछ गिरावट महसूस होती है तो सतर्क हो जाएं।
- कुछ लोगों के शरीर के अंदर इस तरह की डिवाइस इन्फेक्शन भी कर सकती हैं।
- अगर आपको मल्टि-लोड लगवाने के बाद पीरियड्स में 2-3 हफ्ते की देरी, अधिक ब्लीडिंग और लोअर ऐब्डॉमेनल में दर्द हो रहा हो तो यह इन्फेक्शन के लक्षण हैं।
- मल्टि-लोड लगवाने के बाद अगर लगातार बुखार रहे और लोअर ऐब्डॉमेनल में दर्द की शिकायत भी इन्फेक्शन के लक्षण हैं।
- कई बार मल्टि-लोड अपनी जगह से हट भी जाते हैं और इसका पता देर से चलता है।
- ऐसी किसी भी स्थिति में डॉक्टर से तुरंत संपर्क करना चाहिए।

इमर्जेंसी पिल न बने लाइफ स्टाइल
इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल यूज करने वाले यंगस्टर्स इसे सेक्शुअल लिबर्टी का सिंबल मानते हैं। उन्हें लगता है कि इसकी वजह से अनचाहे गर्भ से आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है। यह एक सचाई है कि इमरजेंसी पिल की वजह से गर्भ ठहरने के डर से मुक्ति मिल जाती है। मगर दूसरा सच यह भी है कि इसकी वजह से कैजुअल सेक्स की प्रवृत्ति के साथ ही कई तरह की बीमारियां भी बढ़ रही है। यंगस्टर्स को यह बात समझनी चाहिए कि लंबे समय तक इसका इस्तेमाल उन्हें भविष्य में गर्भधारण में पूरी तरह अक्षम बना सकता है।
उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि इमर्जेंसी पिल सेफ सेक्स का ऑप्शन नहीं है। अगर कभी अनसेफ सेक्स हो गया है, तो इसे लेना समझदारी है, मगर इसे रुटीन का हिस्सा नहीं बनाना चाहिए। सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रकाश कोठारी का कहना है कि यह प्रेग्नेंसी से बचने का एक कॉम्प्लिमेंट्री तरीका है न कि सप्लिमेंट्री।
- इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल के ऐड भी इसके यूज को लेकर भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं। कुछ साल पहले ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने ऐड को रोकने के लिए ऐसी ही एक कंपनी को नोटिस भी भेजा था।
- इन पिल्स के ऐड में दावा किया जाता है कि ये 72 घंटे तक कारगर रहती हैं, मगर डॉक्टरों का मानना है कि जितनी देर से इन पिल्स को खाया जाता है, इनका असर उतना ही कम हो जाता है।
- किसी भी रिलेशनशिप में इमोशनल कनेक्शन भी उतना ही अहम है, जितना फिजिकल। लंबे समय तक इमर्जेंसी पिल के सहारा लेने वालों को कई तरह की मानसिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है।
- सेफ सेक्स के लिए सबसे बेहतर ऑप्शन कॉन्डम का इस्तेमाल है। इसकी वजह से प्रेग्नेंसी का डर ही खत्म नहीं होता, बल्कि सेक्स से जुड़ी दूसरी बीमारियों से भी बचाव होता है।
- इमरजेंसी पिल का यूज करें, मिसयूज नहीं। अनसेफ सेक्स के बाद गर्भ ठहरने के डर से होने वाले तनाव से बचाव के लिए यह बेहतर ऑप्शन है।
- अनसेफ सेक्स की वजह से गर्भ ठहरने और फिर अबॉर्शन के तकलीफ देह प्रोसेस से भी इमरजेंसी पिल बचाती है।
- इमरजेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल को अनसेफ सेक्स के बाद जल्द से जल्द खाना चाहिए। इस मामले में ऐड की लाइन पर चलते हुए तीन दिनों की डेडलाइन के फेर में नहीं पडऩा चाहिए।
- बेहतर होगा कि इसके इस्तेमाल से पहले किसी डॉक्टर से सलाह लें। इसके साइड इफेक्ट्स के बारे में पूरी जानकारी रखें।

आई-पिल की परेशानियां
नॉजिया (उल्टी की हालत होना) और वोमेटिंग (उल्टी)। डॉक्टरों के मुताबिक पिल्स से होने वाला यह सबसे आम साइड इफेक्ट है। अगर इमर्जेंसी पिल खाने के दो घंटों के अंदर वोमेटिंग होती है, तो पिल दोबारा खानी चाहिए, वरना सुरक्षा चक्र टूट सकता है और गर्भ ठहरने की संभावना रहती है।
- पिल की वजह से पेट में दर्द या फिर सिरदर्द की शिकायत भी हो सकती है। ज्यादातर मामलों में ये शिकायतें पिल के लगातार इस्तेमाल से सामने आती हैं।
- ब्रेस्ट हेवी या फिर बहुत ज्यादा सॉफ्ट होने लगते हैं। दोनों ही वजहों से महिलाओं को आम जिंदगी में दिक्कत होती है।
- इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से अक्सर महिलाओं का मंथली पीरियड साइकल गड़बड़ा जाता है।
- कुछ डॉक्टरों का यह भी मानना है कि इमरजेंसी पिल से पीरियड्स पर पडऩे वाले असर को लेकर कोई आखिरी नतीजा देना जल्दबाजी होगी। उनके मुताबिक कई महिलाओं को ओवरी में प्रॉब्लम होती है, जिसकी वजह से उनके पीरियड रेग्युलर नहीं होते। इमरजेंसी पिल यूज करने पर पीरियड कुछ ज्यादा दिन खिंच सकते हैं, मगर इन्हें लेकर परेशान होने के बजाय डॉक्टर से कंसल्ट करना बेहतर होगा।
- इमर्जेंसी या दूसरी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल एसटीडी (दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों) के खतरे से बचाव नहीं करती हैं। जो लोग एक ही पार्टनर के साथ सेक्स करते हैं, उन्हें तो कम रिस्क है, मगर एक से ज्यादा पार्टनर होने पर एसटीडी(सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) का खतरा ज्यादा रहता है।
- इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से यौन रोगों का रिस्क ज्यादा रहता है। इसमें भी सबसे ज्यादा खतरनाक एचपीवी ह्यूमन पैसिलोमा वायरस होता है, जो आगे जाकर सर्वाइकल कैंसर का कारण बन जाता है।

रिदम मैथड की रिदम
- रिदम मेथड महिलाओं के पीरियड जिस दिन शुरू होते हैं, उसके हिसाब से सेफ दिनों में अनप्रोटेक्टेड सेक्स रिदम मेथड कहलाता है।
- महिलाओं के शरीर में हर महीने एक एग (अंडा) पैदा होता है और 48 घंटे तक जीवित रह सकता है। पीरियड होने पर यह एग ब्लड के साथ रिलीज हो जाता है।
- पीरियड शुरू होने के पहले दिन से नौवें दिन तक का पीरियड सेफ माना जाता है। इसके बाद 10वें से 19वें दिन तक का टाइम अनसेफ होता है। यानी इस दौरान अनसेफ सेक्स करने पर महिला के प्रेग्नेंट होने की संभावना सबसे ज्यादा होती है।
- इसका कारण महिला शरीर में होने वाला ऑव्युलेशन है जिससे इन 10 दिनों के बीच किसी भी 48 घंटे अंडा शरीर में मौजूद और ऐक्टिव रहता है।
- उसके बाद के 8-10 दिन फिर सेफ पीरियड होते हैं। डॉक्टरों का मानना है कि पीरियड रेग्युलर होने पर रिदम मेथड अपनाया जा सकता है, मगर इस मेथड से दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों (एसटीडी) से बचाव मुमकिन नहीं है।
- जिन महिलाओं के पीरियड रेग्युलर (अमूमन 28 दिन का साइकल) नहीं होते, उनके लिए यह मेथड जोखिम भरा हो सकता है।
- स्पर्म शरीर के अंदर 5 दिनों तक जीवित रह सकता है। अगर इस दौरान महिला सेफ से अनसेफ दिनों में प्रवेश कर गई और अंडे का निर्माण हो गया तो प्रेग्नेंसी हो सकती है।
- शादीशुदा लोग या लंबे वक्त से एक ही पार्टनर के साथ शारीरिक संबंध रखने वाले ही इस मेथड को ठीक तरह से अपना सकते हैं।
- रिदम मेथड के दौरान चूंकि कॉन्डम या प्रेग्नेंसी रोकने वाले किसी दूसरे साधन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, इसलिए पुरुष और महिला, दोनों ही पार्टनर यौन रोगों के शिकार हो सकते हैं।
- सेफ पीरियड भी 100 फीसदी सेफ नहीं है। सेफ पीरियड में गर्भ ठहर जाने के कुछ केस सामने आए हैं।
- यानी रिदम मेथड पॉप्युलर तो है, मगर पूरी तरह से फूलप्रूफ नहीं।

कॉन्डम का कॉमन सेंस
- हमेशा नया कॉन्डम ही इस्तेमाल करें।
- इसकी मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपाइरी डेट को ध्यान से पढ़ें और एक्सपाइरी डेट वाले कॉन्डम का इस्तेमाल न करें।
- इसे फुला कर या खींच कर टेस्ट न करें। मैन्युफेक्चरर इसे कई तरह से पहले ही टेस्ट कर चुके होते हैं।
- इसे अनरोल या पूरी तरह न खोलें।
- अप्लाई करने में शुरुआती टिप पर कुछ जगह छोडऩा न भूलें।
- सहवास क्रिया शुरू करने से पहले ही इसे अप्लाई करें, बीच में ऐसा करना रिस्की हो सकता है।
- इस बात का ध्यान रखें कि कॉन्डम भी सीधा या उल्टा खुल सकता है। ध्यान से सीधी तरफ से ही अप्लाई करें।
- इस पर किसी तरह का लूब्रिकेंट इस्तेमाल न करें और अगर करना ही है तो वॉटर बेस लुब्रिकेंट का इस्तेमाल ही करें।
- इस्तेमाल के समय इसे रिम से ही पकडें और टिप से पकड़ कर इसकी हवा को बाहर निकाल दें।
- डिस्चार्ज के समय इसे बेस से पकड़ कर सावधानी से अलग करें। वरना वीर्य फैलने का खतरा रहता है।
- अगर कॉन्डम लीक हो जाए तो परेशान न हों और डॉक्टर से सलाह लें।
- एक बार में एक कॉन्डम ही इस्तेमाल करें। कुछ लोग सुरक्षा के लिहाज से दो का इस्तेमाल करते हैं जो परेशानी का सबब बन सकता है।
- हमेशा साधारण और बगैर फ्लेवर का कॉन्डम इस्तेमाल करें। फ्लेवर और दूसरे तरीके मार्केटिंग स्ट्रैटिजी का हिस्सा हैं। इसका क्वॉलिटी और सुरक्षा पर कोई असर नहीं पड़ता।
- अगर इच्छा हो तो डॉटेड कॉन्डम इस्तेमाल किया जा सकता है।
- कॉन्डम को सीधी धूप या अपनी जेब में रखने से बचें। दोनों ही हालत में यह खराब हो सकता है।

भविष्य के गर्भनिरोधक

कॉन्ट्रसेप्टिव की दुनिया को बदलने के लिए दुनिया भर में प्रयोग हो रहे हैं और इनका मकसद बस एक है, कम से कम जटिलता में सौ फीसदी नतीजे। कई तरह के ट्रायल जोरों पर हैं, और कुछेक ने परिणाम दिखाने भी शुरू कर दिए हैं। आइए झांकते हैं गर्भ निरोधकों के भविष्य में...

मैजिक रिंग

क्या है: इसे वजाइनल रिंग भी कहा जाता है। इसे महिला के प्राइवेट पार्ट के अंदर फिट कर दिया जाता है।
कैसे करता है काम: ढाई इंच डायमीटर वाली यह रिंग अंदर जाकर अन्य हॉर्मोनल गोलियों की तरह ओव्युलेशन और प्रजनन में मददगार हॉर्मोन्स को रोक देते हैं।
फायदा: यह दूसरी गोलियों की तरह पेट में जाकर पाचन तंत्र में नहीं जाती बल्कि खून के बहाव में ही घुल जाती है जिससे लिवर में होने वाली परेशानी से बचा जा सकता है। लैब से इसकी रिपोर्ट काफी पॉजिटिव है और इसके यूजर्स काफी संतुष्ट नजर आए।
कब मिलेगी: इसकी रिसर्च और ट्रायल पूरे हो चुके हैं। अमेरिका अपने ड्रग रेग्युलेटर की हरी झंडी का इंतजार कर रहा है और ब्रिटेन में यह अगले साल से बाजार में मिलने लगेगी।

करयिर पिल

क्या है: यह गोली महिलाओं की पीरियड को रोक देगी।
कैसे करती है काम: यह महिलाओं के अंदर बनने वाले अंडों को यथावत सुरक्षित कर लेगी और जरूरत पडऩे पर फिर ऐक्टिव कर देगी।
फायदा: कम उम्र में मां बनने की समस्या से काफी हद तक निजात मिल पाएगी। कामकाजी महिलाओं के लिए एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
कब मिलेगी: इस पर चल रही अमेरिकी रिसर्च अभी प्राइमरी स्टेज में ही है। 10 साल तक लग सकते हैं।

मेल पिल

क्या है: यह पुरुष गर्भ निरोधक गोली है जो उनके एक खास अंतराल पर लेने से गर्भ निरोधक का काम करेगी।
कैसे करती है काम: इस गोली से पुरुष के स्पर्म बनने की क्रिया को रोक दिया जाता है। सेक्स क्षमता बनाए रखने के लिए गोली के साथ ही कुछ इन्जेक्शन भी लेने पड़ेंगे।
फायदा: अब पुरुषों के पास भी गर्भ निरोधक के और ऑप्शन होंगे। इस वक्त मौजूद कुछ 13 तरीके के गर्भ निरोधकों में पुरुष केवल 3 ही इस्तेमाल कर सकते हैं।
कब मिलेगी: अभी ट्रायल शुरुआती चरण में है और लगभग 10 साल का समय लग सकता है।

गर्भ निरोधक इंप्लांट

क्या है: यह एक खास तरीके का महिला गर्भनिरोधक है जो शरीर के अंदर फिट किया जा सकता है।
कैसे करता है काम: यह एक छोटी रॉड की तरह होती है जो शरीर में छोटे ऑपरेशन के जरिए फिट की जा सकती है। इससे निकलने वाला हॉ्मोन बरसों तक गर्भधारण को रोके रख सकता है।
फायदा: यह लंबे वक्त तक गर्भधारण से मुक्ति देता है इसलिए बार बार याद करने की दिक्कत से आजादी मिल जाती है। जब गर्भधारण की जरूरत हो तो इसे शरीर से बाहर निकलवाया जा सकता है। वैज्ञानिक ऐसे विकल्प भी खोज रहे हैं जिसमें इसे इंप्लांट को बाहर न निकालना पड़े और एक तय वक्त के बाद वह शरीर में ही गल जाए।
कब मिलेगा: फिलहाल ट्रायल जारी है और इसे आने में भी एक दशक तक का समय लग सकता है।

वायुसेना का मजबूत होता परिवहन बेड़ा




भारतीय वायुसेना की सामरिक क्षमता को मजबूत बनाने की कवायद के तहत रक्षा मंत्री एके एंटनी द्वारा दो सितम्बर 2013 को हिंडन एयर बेस पर 75 से 80 टन क्षमता वाले सी-17 ग्लोबमास्टर- 3 (भारी मालवाहक विमान) को औपचारिक रूप से सेवा में शामिल कर लिया गया है। यह मालवाहक परिवहन विमान भारी टैंकों, रसद और सैनिकों को ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर पहुंचाने में सक्षम है। रक्षामंत्री एके एंटनी ने कहा कि यह विमान सामरिक तथा गैर सामरिक सभी अभियानों को अंजाम देगा। वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउन ने कहा कि सी-17 ग्लोबमास्टर परिवहन विमान का परिचालन पूर्वोत्तर राज्यों में एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड से और उत्तर व अंडमान निकोबार क्षेत्र के अत्यधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों से किया जा सकता है। वायुसेना के अधिकारियों के मुताबिक इसे नवनिर्मित 81वीं सडन में शामिल किया गया है। इस विमान की क्षमता 80 टन भार ढोने की है और इसमें 150 सैनिकों को ले जाया जा सकता है। यह मालवाहक विमान वायुसेना के अब तक के सबसे बड़े रूसी परिवहन विमान आईएल-76 का स्थान लेंगे जो 40 टन भार को ढोने में सक्षम थे। अमेरिका की हथियार निर्माता कम्पनी बोइंग ने इसे अपने यहां से 20 अगस्त को रवाना करवाया था।


 23 अगस्त 2013 को भारतीय वायुसेना को तीसरा और इससे एक माह पहले 23 जुलाई को दूसरा सी-17 ग्लोब मास्टर प्राप्त हुआ था। वायुसेना के लिए खरीदे गए 10 बोइंग सैन्य परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर में से पहले विमान के हिस्सों को कैलिफोर्निया के लांगबीच में 31 जुलाई 2012 को एक समारोह के दौरान जोड़ा गया था। उसके बाद यह 18 जून 2013 को भारत आया था। इस तरह अब तक देश को अत्याधुनिक किस्म के कुल तीन सी-17 ग्लोबमास्टर भारी मालवाहक परिवहन विमान प्राप्त हो चुके हैं। सैन्य परिवहन विमानों की यह खरीदारी भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण अभियान का प्रमुख और महत्वपूर्ण हिस्सा है। इन्हें तुरंत इनके मिशन पर लगा दिया गया है। बोइंग कंपनी के उपाध्यक्ष और सी-17 विमान कार्यक्रम के प्रबंधक नैन बोचार्ड के मुताबिक सी-17 में हिमालयी तथा दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों में अभियान संचालित करने की क्षमता है और इससे उसकी अभियान क्षमता में काफी वृद्धि होगी। अमेरिका के बाद भारतीय वायुसेना सी-17 विमानों का संचालन करने वाली दूसरी सबसे बड़ी वायुसेना होगी। सी-17 ग्लोबमास्टर के चालक दल में दो पायलट व एक लोडमास्टर होता है। इसकी लम्बाई 174 फुट तथा उंचाई 55.1 फुट है। इसके डैने 169.8 फुट ऊंचे हैं।



77,519 किलोग्राम पेलोड के साथ इसकी गति 0.76 मैक है। चार इंजनों से लैस सी-17 ग्लोबमास्टर की रेंज 2420 नॉटिकल मील है। टी आकार के पिछले भाग वाले इस विमान के पिछले हिस्से में माल चढ़ाने के लिए रैंप है। यह विमान सात हजार फुट लंबी हवाई पट्टी से उड़ान भर सकता है, ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी उतरने में सक्षम है और आपातकालीन परिस्थितियों में मात्र 3000 फुट लंबी हवाई पट्टी पर उतर सकता है। फिलहाल ऐसी विशेषताओं वाले विमान अमेरिका, कनाडा, कतर, हंगरी व ब्रिटेन जैसे 18 देशों के पास हैं। नाटो संगठन के 12 सदस्य देश इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक यह कम्पनी 256 सी-17 विमान विभिन्न देशों को बेच चुकी है। इस भरोसेमंद विमान से भारतीय वायुसेना की ताकत दो गुना हो गई है। इसकी रफ्तार 830 किलोमीटर प्रति घंटा और ईंधन क्षमता 134556 लीटर है। सी-17 विमान बख्तरबंद गाडिय़ां ले जा सकता है। इस पर टैंक व हेलीकाप्टर भी लादकर ले जाए जा सकते हैं। मल्टी परपज वाला यह दुनिया का अत्याधुनिक विमान है। यह संकीर्ण स्थानों पर सैनिक टुकड़ी पहुंचाने में सक्षम है और ऐसी जगहों में इसे उतारा जा सकेगा। जम्मू-कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व जैसे इलाकों में यह कारगर भूमिका निभाएगा। भारत ने इस मालवाहक विमान का चयन जून 2009 में किया था। जून 2011 में बोइंग कम्पनी के साथ ऐसे 10 विमानों की खरीद के समझौते पर हस्ताक्षर कर आपूर्ति का ऑर्डर दिया गया। यह सौदा 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का होने की उम्मीद है। इसके साथ भारत इन विमानों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया और इनके निर्माण की शुरुआत जनवरी 2012 में हो गई थी। इनके आ जाने से पुराने हो चुके रूस निर्मित भारतीय मालवाहक विमानों के बेड़े को आधुनिक रूप दिया जा सकेगा। सैन्य कायरें के अतिरिक्त इनका उपयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में मदद पहुंचाने में भी किया जाएगा। समुद्री क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल का जवाब देने के लिए अंडमान निकोबार द्वीप समूह की कैम्पबेल खाड़ी में भारतीय नौसेना का पहला एयर स्टेशन कुछ समय पहले खोला गया है। यह क्षेत्र मलक्का स्टेट्स से मात्र 75 मील की समुद्री दूरी पर है। इस एयर स्टेशन पर सबसे बड़े परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर व हरक्यूलिस को रखा जाएगा। चार इंजन वाला सी-17 ग्लोब मास्टर 2400 मील समुद्री दूरी तक कार्रवाई करने में सक्षम है। इसकी पहाड़ी व समुद्री इलाकों की मारक क्षमता से चीन व पाकिस्तान की चिंताएं बढ़ गई हैं। निश्चित रूप से इसने हमें रणनीतिक रूप से चीन के मुकाबले मजबूत किया है। तिब्बत जैसे स्वायत्तशासी इलाके में जिस तरह चीन की गतिविधियां बढ़ी हैं, उसके मद्देनजर सी-17 से चीन के खिलाफ विशेष सामरिक बढ़त मिलेगी। उम्मीद है कि 2013 के अन्त तक दो और विमानों की आपूर्ति हो जाएगी। 2014 में शेष पांच और विमानों भारत को सौंप दिए जाएंगे। इन सभी विमानों के मिलने के बाद भारतीय वायुसेना का परिवहन बेड़ा काफी मजबूत हो जाएगा।

Tuesday, September 17, 2013

परमाणु बिजली, उम्मीद की नई रोशनी



तेरह जुलाई 2013 की आधी रात को जब हिन्दुस्तान की लगभग पूरी आबादी सोने की तैयारी में थी वहीं तमिलनाडु स्थित एक एक छोटे से शहर तिरुनेल्वेल्लि में बन रहे कुडनकुलम परमाणु बिजली घर में देश के परमाणु वैज्ञानिकों और अभियंताओं का दस्ता लगातार एक मिशन को अंजाम देने में जुटा था। रात 11 बजकर 5 मिनट पर ब््रोकिंग न्यूज आयी जिसका इंतजार हर किसी को काफी समय से था- परमाणु बिजली घर की क्रिटिकैलिटी का..(एक ऐसी प्रक्रिया जिसमे रिक्टर कोर में न्यूक्लियर फिशन की शुरुआत होती है।) रूस के सौजन्य से निर्मिंत 1000 मेगावाट का यह बिजलीघर, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार, तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व एईआरबी के दिशा निर्देशों और विभिन्न प्रकार के मानदंडों पर खरा उतरने के बाद राष्ट्र को समर्पित होने की प्रक्रिया में पूरी तरह तैयार था। देश में बढ़ती बिजली समस्या के चलते कुडनकुलम परमाणु बिजली घर उभरते भारत के लिए नयी जगमगाहट की तरह है। आजादी के लगभग 67 वषा बाद भी हिन्दुस्तान की जो 40 प्रतिशत आबादी बिजली की आस में है, इसके शुरू होने से शायद कुछ हद तक कमी पूरी हो सकेगी। दो वर्ष पूर्व जापान के फुकुशिमा में आई भारी दैवीय विपदा के चलते वहां के परमाणु बिजली घरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिस से हमारे देश में भी परमाणु ऊर्जा और इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर विरोध के स्वर मुखिरत होने लगे। परमाणु ऊर्जा के प्रति वैचारिक मतभेद रखने वालों ने विरोध शुरू कर दिया। अंतत: सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद बिजलीघर शुरू होने का मार्ग प्रशस्त हो सका। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना कि ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए परमाणु ऊर्जा का विकल्प अपनाना ही होगा। दक्षिण के राज्यों पर नजर डालें तो जानकर हैरानी होगी की ये राज्य अभूतपूर्व बिजली संकट से जूझ रहें है। उद्योग धंधे बुरी तरह से प्रभावित है। बिजली के अभाव में तमाम राज्यों में विकास की मंद रफ्तार इशारा करती है कि किस तरह से लोड शेडिंग और बिजली की कटौती से लोगों का जीवन यापन दुलर्भ हो गया है। आज भी तमिलनाडु में सैकड़ो गांवों को बिजली के दर्शन तक नसीब नही है। ऐसे में इस परियोजना का विरोध समझ से परे है। आखिर हम कैसे विकास का लक्ष्य हासिल पाएंगे। रूस के सहयोग से निर्मिंत भारत का यह पहला लाइट वॉटर रिएक्टर होगा जिससे बिजली का निर्माण किया जाएगा। सुरक्षा और संरक्षा की ष्टि से बेहतरीन व बेमिसाल खूबियों से युक्त जेनरेशन- 3 प्लस के इस रिएक्टर की संरक्षा संबंधी कई खूबियां इसे अपने तरीके का सर्वश्रेष्ठ रिएक्टर बनाती है। इस विश्व स्तरीय रिएक्टर में कोर केचर, पैसीव हीट रिमूवल सिस्टम, हाइड्रोजन री-काबाइनर्स जैसे फीचर इसे जनता और पर्यावरण दोनों को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करने में मददगार साबित होंगे। प्रारंभ में इस परियोजना से 400 मेगावाट और धीरे धीरे चरणबद्ध तरीके बढ़ाकर 1000 मेगावाट बिजली उत्पन्न की जाएगी। कुडनकुलम परमाणु बिजली घर की दूसरी इकाई अगले वर्ष तक प्रारंभ होने की संभावना है जिससे 1000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली का निर्माण हो सकेगा और बड़े पैमाने पर दक्षिण समेत देश के कई राज्यों को बिजली मिल सकेगी। एक तरफ जहां देश में विभिन्न ऊर्जा ाोतों से बिजली का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है, जिसमे लगभग 68 प्रतिशत बिजली थर्मल से, 18 प्रतिशत हाइड्रो से, 12 प्रतिशत अन्य ाोतों से, जिनमे (सोलर और विंड प्रमुख है) वहीं परमाणु ऊर्जा से महज 2.3 प्रतिशत ही बिजली का उत्पादन होता है। आज संपूर्ण विश्व में थर्मल पावर से निर्मिंत बिजली ग्लोबल वॉर्मिग और वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कई हानिकारक गैसों के चलते गहन चिंता का विषय बनी हुई है, जबकि दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा स्वच्छ और हरित ऊर्जा का किफायती विकल्प साबित हो रही है। विश्व की बात करें तो फ्रांस जैसे देश में परमाणु ऊर्जा से लगभग 80 प्रतिशत बिजली का निर्माण किया जाता है। न केवल फ्रांस बल्कि बेल्जियम, स्वीडेन, हंगरी, जर्मनी, स्विट्जरलैड, अमेरिका, जापान, चीन, रूस आदि देशों की लगभग 20-50 प्रतिशत बिजली परमाणु ऊर्जा से ही निर्मिंत होती है और इनकी समृद्धि किसी से छिपी नहीं है। इसके विपरीत देश में वर्तमान में जहां 3-3.5 लाख मेगावाट बिजली की मांग की तुलना में महज 2.25 लाख मेगावाट का ही उत्पादन हो रहा है, तो एक लाख मेगावाट का अंतर कैसे मिटेगा? कोयले का भंडार सीमित है और हाइड्रो का हमने लगभग दोहन कर लिया है। सोलर और विंड की उत्पादन क्षमता, ज्यादा जगह, धूप और हवा के प्रवाह की समुचित उपलब्धता पर निर्भर होने के साथ ही कम किफायती और अल्प विकसित तकनीक पर आधारित है। ऐसे में परमाणु बिजली को नकार नहीं सकते। सोचिए, 40-50 साल बाद जब परंपरागत ऊर्जा ाोत खत्म हो जाएंगे और आबादी दोगुनी हो जाएगी, हम बिजली कहां से लाएंगे? ऐसे में परमाणु ऊर्जा के अलावा क्या कोई विकल्प बचता है? देश में 20 परमाणु बिजलीघरों के लगभग 380 रिएक्टर पिछले करीब 44 वषा से सुरक्षित तरीके से कार्यशील है। इनसे लगभग 4780 मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है। भुज के भूकंप और तमिलनाडु की सुनामी के बावजूद देश के परमाणु बिजलीघर सुरक्षित रहे। दो वर्ष पूर्व जापान के फुकुशिमा में भूकंप और सुनामी जैसी दुर्घटना के मद्देनजर हमारे देश के सभी परमाणु बिजली घर को सुरक्षा की ष्टि से और बेहतर और उन्नत तकनीक युक्त कर दिया गया है। विश्व में लाखों लोग सड़क और अन्य दुर्घटनाओं में जान गवां देते है। लाखों बाढ़, भूस्खलन और अन्य दैवीय आपदाओं में मारे जाते है, लेकिन इससे भयभीत होकर घर तो नहीं बैठ जाते है। इसलिए मन से डर निकाल इसे खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। विश्व के तमाम विकसित राष्ट्रों ने इसे खुले दिल से अपनाया है और आज वो किस मुकाम पर है, यह सबके सामने है। विरोधियों को समझना होगा कि अगर त्रि-चरणीय परमाणु कार्यक्रम चरणबद्ध तरीके से लागू हो तो देश में प्रचुर मात्रा में मौजूद थॉरियम से बिजली की तकनीक विकसित कर कई पीढिय़ों को बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी।

अंतरिक्ष में 3डी प्रिंटर से बनेंगे रॉकेट


मुकुल व्यास 

भविष्य में ऐसे 3डी प्रिंटर बन जाएंगे जो अंतरिक्ष में ही रॉकेट के इंजनों और अंतरिक्षयानों का निर्माण करने में सक्षम होंगे। इस दिशा में कोशिश शुरू भी हो गई है।

नासा के इंजीनियर एक ऐसे 3डी प्रिंटर का परीक्षण कर रहे हैं, जो निम्न गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में प्लास्टिक की वस्तुएं निर्मित कर सकता है। बहुचर्चित साइंस फिक्शन सीरियल, स्टार ट्रेक के ‘रेप्लीकेटर’ में कुछ ऐसी ही टेक्नोलॉजी दर्शाई गई थी। नासा अगले साल जून में इस प्रिंटर को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने की तैयारी कर रहा है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी के इंजीनियरों को उम्मीद है कि इससे भविष्य में और अधिक उन्नत 3डी प्रिंटरों के निर्माण का आधार तैयार हो जाएगा जो अंतरिक्ष में हर तरह की जरूरत का सामान निर्मित कर सकेंगे।

3डी प्रिंटर को अंतरिक्ष में रवाना करने से पहले उसमें उन सारे कलपुर्जो और हिस्सों के ब्ल्यूप्रिंट लोड किए जाएंगे जो बदले जाने के लायक हैं। कुछ अन्य चीजों के बारे में पृथ्वी से ही निर्देश भेजे जा सकते हैं। 3डी प्रिंटर का एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि अंतरिक्षयात्री अपने सम्मुख आने वाली समस्या से निपटने के लिए अपनी जरूरत के हिसाब से कलपुजरें का निर्माण कर सकेंगे। इस सिस्टम से पृथ्वी से अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजे जाने वाले एवजी कलपुजरें की मात्रा में कमी आएगी।

इससे आपात स्थिति में अंतरिक्षयात्रियों को जल्दी से जल्दी अंतरिक्ष स्टेशन पर पहुंचाने में भी मदद मिलेगी।

1970 में एपोलो-13 के अंतरिक्षयात्रियों को अपने यान में ऑक्सीजन टैंक में विस्फोट के बाद अपने यान के कार्बन डायोक्साइड फिल्टर की मरम्मत करनी पड़ी थी। लेकिन मरम्मत के लिए उन्हें डक्ट टेप और प्लास्टिक की थैली जैसी चीजों से ही काम चलना पड़ा था। अभी हाल ही में इटली के अंतरिक्षयात्री लुका पर्मिटानो के हेलमेट में वेंटिलेशन सिस्टन से पानी घुस गया था, जिसकी वजह से उसे अंतरिक्ष में चहलकदमी की योजना त्यागनी पड़ी थी। इस गड़बड़ी को दूर करने के लिए नासा को आवश्यक सप्लाई के साथ मरम्मत का सामान भी भेजना पड़ा था। भविष्य में इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए अंतरिक्षयात्री अपने स्टेशन पर ही जरूरी उपकरणों की प्रिंटिंग कर सकेंगे।

नासा के मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर में 3डी प्रिंटिंग पर रिसर्च चल रही है। रिसर्च टीम के प्रमुख निकी वर्कहाइस्रर का कहना है कि हम सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में 3डी प्रिंटिंग को आजमाना चाहते हैं और अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं। कई बार कलपुर्जे टूट-फूट जाते हैं या गुम हो जाते हैं। उन्हें बदलने के लिए बहुत से अतिरिक्त कजपुज्रे भेजने पड़ते हैं। नई टेक्नोलॉजी से इन हिस्सों को आवश्यकतानुसार अंतरिक्ष में ही निर्मित करना संभव है। इस टेक्नोलॉजी के बारे में अभी कोई खुलासा नहीं किया गया है, लेकिन समझ जाता है कि इसमें प्लास्टिक के पेस्ट का उपयोग किया जाता है। पिछले कुछ दिनों से इस प्रिंटर का शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में परीक्षण चल रहा है। नासा ने एक वीडियो जारी करके इस प्रिंटर की कार्य प्रणाली दर्शाई है।

नासा ने एक अन्य प्रोजेक्ट के तहत पिछले महीने एक ऐसे रॉकेट इंजन का परीक्षण किया, जिसका निर्माण 3डी प्रिंटिंग से तैयार किए गए हिस्सों से किया गया था।

रॉकेट इंजेक्टर के निर्माण के लिए धातु के पाउडर को गलाने और उसे एक त्रिआयामी संचरना में बदलने के लिए लेजर तरंगों का प्रयोग किया गया था। नासा का मानना है कि 3डी प्रिंटिंग से धरती पर और अंतरिक्ष में कलपुर्जो, इंजन के पार्ट्स और यहां तक कि पूरे अंतरिक्षयान को प्रिंट करके उत्पादन समय और उत्पादन लागत में भारी कमी की जा सकती है। इससे अंतरिक्ष के समस्त भावी मिशनों में बहुत मदद मिल सकती है।

अंतरिक्ष स्टेशन पर छह महीने बिताने वाले अमेरिकी अंतरिक्षयात्री टिमोथी क्रीमर का कहना है कि 3डी प्रिंटिंग से हम भी मौके पर ही स्टार ट्रेक के रेप्लीकेटर की तरह वे चीजें बना सकते हैं, जिन्हें हम गंवा बैठे हैं या जो हमसे छूट गई हैं। साथ ही हम अंतरिक्ष में उपयोग के लिए दूसरी नई चीजें भी निर्मित कर सकते हैं रिसर्चरों का ख्याल है कि अगले वर्ष पूरी तरह से तैयार 3डी प्रिंटर अंतरिक्ष स्टेशन के लिए जरूरी करीब एक-तिहाई अतिरिक्त कलपुजरें को प्रिंट करने में सक्षम होगा।

Saturday, September 14, 2013

रिप्लाई ढंग का होना चाहिए, ‘हम्म’ तो भैंस भी करती है!


लड़का हैंडसम होना चाहिए, ‘स्मार्ट’ तो फोन भी होते हैं।

फोन तो आईफोन होना चाहिए, ‘S1, S2...S4’ तो ट्रेन के डिब्बे भी होते हैं।

इंसान का दिल बड़ा होना चाहिए, ‘छोटा’ तो भीम भी है।

व्यक्ति को समझदार होना चाहिए, ‘सेंसटिव’ तो टूथपेस्ट भी है।

टीचर ज्यादा नंबर देने वाला होना चाहिए, ‘अंडा’ तो मुर्गी भी देती है।

युवा राष्ट्रवादी होना चाहिए, ‘कूल’ तो नवरत्न तेल भी है।

राष्ट्रपति कलाम होना चाहिए, ‘मुखर्जी’ तो रानी भी है।

कैप्टन दादा जैसा होना चाहिए, ‘एमएस’ तो ऑफिस भी है।

बाथरूम में हेयर ड्रायर होना चाहिए, ‘टॉवल’ तो श्रीसंत के पास भी है।

लड़की में अक्ल होनी चाहिए, ‘सूरत’ तो गुजरात में भी है।

मोबाइल जनरल मोड पर होना चाहिए, ‘साइलेंट’ तो चनमोहन भी हैं।

सेब मीठा होना चाहिए, ‘लाल’ तो आडवाणी भी हैं।

घूमना तो हिल स्टेशन पर चाहिए, ‘गोवा’ तो पान मसाला भी है।

दवाई ठीक करने के लिए होना चाहिए, ‘टेबलेट’ तो सैमसंग का भी है।

रिप्लाई ढंग का होना चाहिए, ‘हम्म’ तो भैंस भी करती है।


Thursday, August 29, 2013

दुनिया के सबसे लम्बे बाल


25 सालों से नहीं की बालों में कंघी
उसके बाल साफ करने में एक बार में छ: शंपू के बॉटल लग जाते हैं। बाल सूखने में दो दिन लगते हैं। 17 किलोग्राम सिर्फ उसके बालों का वजन है, जिसे वह सिर पर हमेशा ढोती है। डॉक्टर कहते हैं कि उसके बालों के वजन के कारण उसे लकवा मार सकता है और वह अपाहिज हो सकती है। 25 सालों से उसने बाल नहीं कटाए, न कंघी किया है। आज भी अपने बाल कटवाने को वह अपनी मौत के समान मानती है। बालों के बीच बैठी यह महिला आशा मंडेला हैं। आशा मंडेला मूल रूप से त्रिनिदाद की हैं। त्रिनिदाद से न्यूयॉर्क आने के बाद ही उन्होंने अपने बालों को प्राकृतिक रूप से बढ़ाने का फैसला किया।
आशा की मां को इनका यह फैसला मंजूर नहीं था, परन्तु आशा अपनी बात पर अटल रहीं। शुरूआत में उन्होंने बस बाल बढ़ाए, धीरे-धीरे इसमें कंघी न कर लटें बनाने का फैसला किया। सुनने में आसान लगने वाला यह फैसला इतना आसान नहीं था। बालों की लटें बढऩे के साथ ही उसका भार भी बढ़ रहा था जो आशा की कमर और कंधे को नुकसान पहुंचा सकता था।
असामान्य रूप से इतने लंबे बालों की देखरेख भी आसान नहीं थी, लेकिन आशा ने हार नहीं मानी। इस तरह वर्ष 2008 में विश्व की सबसे लंबी लटों के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में उनका नाम दर्ज हुआ। इसे कायम रखते हुए 2010 में उन्होंने अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ा। आज भी आशा विश्व की सबसे लंबी लटों की मल्लिका हैं और उनका नाम गिनीज बुक में दर्ज है।
डॉक्टर बालों के भार से उन्हें लकवा होने की आशंका जता चुके हैं, परन्तु आशा को अपने इन लंबी लटों से इतनी मुहब्बत है कि वे इसके बिना जीने की कल्पना भी दुखद मानती हैं। आशा का अपनी लटों के लिए प्रेम तो स्वाभाविक है। इन्होंने इसके लिए 25 साल मेहनत की है, लेकिन आम लोगों के लिए उनकी लटें अजूबा से कम नहीं।
न्यूयॉर्क की आशा के बाल 55 फीट 7 इंच लंबे हैं। आशा ने अपने बालों को बढ़ाने के साथ ही उसमें कंघी करना भी छोड़ दिया है। आज उनकी 55 फीट 7 इंच लंबे बालों की लटें हैं। इसके लिए आशा का नाम गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज हो चुका है।







Tuesday, August 13, 2013

इस अमृत से बनती है नौनिहालों की सेहत


एक शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि मां के दूध पर पलने बढऩे वाले बच्चे भविष्य में ऊंचाईयों पर पहुंचते हैं। इस अमृत को पीकर ही बच्चे हर प्रकार की बीमारी से बचे रहते हैं। और मानसिक रूप से भी उतने ही सुदृढ़ होते हैं। प्रेगनेंसी के दौरान या डिलिवरी के तुरंत बाद बनने वाला गाढ़ा पीला दूध नवजात के लिए सवरेत्तम माना जाता है। इसमें कई प्रकार के पोषक तत्व होते हैं, जो बच्चों की सुरक्षा करने में सहायक होते हैं।
पचने में आसान बच्चों को और खासतौर से प्रीमेच्योर बेबीज को मां के दूध के अलावा कोई अन्य दूध पचाने में परेशानी आती है। बाजार में मिलने वाले डिब्बाबंद दूध में प्रोटीन होता है, यह गाय के दूध से तैयार किया जाता है, जिसे नवजातों को पचाने में दिक्कत आती है।
और भी मिलता है लाभ
विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रेस्टफीडिंग से ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा भी कम होता है और यह डिलिवरी के बाद वजन को नियंत्रित करने का भी काम करता है। ब्रेस्टफीडिंग कराने वाली कामकाजी महिलाओं को अपने काम से कम ब्रेक लेना पड़ता है क्योंकि उनके बच्चे कम बीमार पड़ते हैं। बीमारियों से सुरक्षा दूध में मौजूद सेल्स, हार्मोन, एंटीबॉडीज की मौजूदगी बच्चों को कई बीमारियों से बचाती है।
डिब्बाबंद दूध पोषण के मामले में मां के दूध की तुलना नहीं कर सकता है। जो बच्चे डिब्बाबंद दूध पर बड़े होते हैं उनमें ईयर इंफेक्शन और डायरिया काफी आम होता है। साथ ही कई अन्य बीमारियां होने की आशंका बनी रहती है।
. लोअर रेस्पेरेटरी इंफेक्शन. दमा. मोटापा. टाइप 2 डायबिटीज. एक शोध में यह बात स्पष्ट हुई है कि ब्रेस्टफीडिंग से टाइप 1 डायबिटीज, चाइल्डहुड ल्युकेमिया और स्किन रैश जैसे अटॉपिक डर्मटाइटिस का खतरा भी कम होता है। साथ ही यह सडन इनफेंट डेथ सिंड्रोम के खतरे से भी बच्चे को बचाता है। मां को भी होता है फायदा. ब्रेस्टफीडिंग से बच्चे के साथ-साथ मां की सेहत पर भी प्रभाव पड़ता है।
. टाइप 2 डायबिटीज की आशंका कम होती है।
. ब्रेस्ट कैंसर का खतरा कम हो जाता है।
. ओवेरियन कैंसर की आशंका कम होती है।
. पोस्टपार्टम डिप्रेशन कम होता है। नहीं मिल रहा हो पर्याप्त दूध अधिकांश मांओं को इस बात की चिंता रहती है कि उनके बच्चे को पर्याप्त मात्रा में दूध नहीं मिल रहा है,लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम होती है। वैसे अपनी तसल्ली के लिए डॉक्टर से इस बारे में सलाह ली जा सकती है।
. यदि बच्चा करीब छह हफ्ते या दो महीने का हो चुका है और वक्षों में लंबे समय तक खालीपन महसूस हो तो यह सामान्य प्रक्रिया है। इस अवस्था तक पहुंचते- पहुंचते बच्चों को पांच मिनट तक ब्रेस्टफीडिंग की जरूरत होती है। इसका अर्थ है कि मां और बच्चा स्तनपान की प्रक्रिया से संतुलन बनाना सीख गए हैं और बेहतर तरीके से दोनों अपना काम कर रहे हैं।
. बच्चे का विकास तेजी से हो रहा है तो उसे और अधिक फीड कराने की जरूरत होती है। दो से तीन हफ्ते, छह हफ्ते से तीन महीने के बीच बच्चे का विकास तेजी होता है। वैसे यह वृद्धि किसी भी उम्र में हो सकती है। बच्चे के विकास के अनुसार पूर्ति करें। मां के दूध की तुलना अमृत से की गई है।
बच्चों को जन्म के तुरंत बाद मां का पीला गाढ़ा दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। कोलोस्ट्रम नाम से जाना जाने वाला यह पीला गाढ़ा दूध लिक्विड गोल्ड कहलाता है। इस अमृत को पीने वाले नवजातों को भविष्य में स्वास्थ्य संबंधी परेशानी नहीं होती। इंफेक्शन होने पर स्तनपान कराने वाली मां को यदि बुखार और कमजोरी जैसे लक्षण नजर आएं तो तुरंत डॉक्टर को दिखाएं। यह इंफे क्शन के कारण हो सकता है। इसके कुछ लक्षण इस प्रकार नजर आते हैं।
. इसमें दोनों ही ब्रेस्ट प्रभावित नजर आते हैं।
. दूध में पस या खून का नजर आना।
. ब्रेस्ट के आस-पास लालिमा छा जाना।
विशेषज्ञ की राय भारतीय महिलाएं बच्चों को फॉमरूला दूध देना पसंद नहीं करतीं। स्तनपान से मां को भी फायदा होता है। डिलवरी के बाद की ब्लीडिंग जल्दी ठीक हो जाती है। महिलाएं पहले की तरह ही शेप में आ जाती हैं। स्तनपान के दौरान साफ-सफाई रखें ताकि बच्चे को इंफेक्शन न हो।

नए इंटरनेट प्रोटोकॉल की तैयारी


आने वाले समय में मशीनें आपस में बात करेंगी। आप खुद भी अपने फ्रिज, एयर कंडिशनर, वॉशिंग मशीन या अवन से सीधे संवाद कर सकेंगे क्योंकि ये सब मशीनें इंटरनेट के जरिए एक-दूसरे से, और फोन या किसी और प्राइवेट गैजट के जरिए आप से भी जुड़ जाएंगी। लेकिन मशीनों को आपस में जोडऩे के लिए हमें इंटरनेट प्रोटोकॉल (आईपी) के नए वर्जन की जरूरत पड़ेगी। यदि आज दुनिया नेट से जुडी हुई है तो उसका श्रेय इंटरनेट प्रोटोकॉल को ही जाता है। इंटरनेट प्रोटोकॉल बुनियादी रूप से एक कम्युनिकेशन प्रोटोकॉल है, जिसका इस्तेमाल नेटवर्क पर डेटा के पैकेट्स भेजने के लिए किया जाता है। इस वक्त हम इसी प्रोटोकॉल का आईपीवी 4 नामक वर्जन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो 35 वर्ष पुराना हो चुका है।


आईपीवी 4 में पतों के लिए 32 बिट की जगह है, जिसकी वजह से कुल मिला कर 4.3 अरब आईपी अड्रेस संभव हो पाए हैं। लेकिन जिस तेजी से इंटरनेट, ब्रॉडबैंड और मोबाइल सेवाओं का विस्तार हो रहा है, उससे आईपी अड्रेस की मांग में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। इसका नतीजा यह है कि पूरी दुनिया में आईपीवी 4 के अड्रेस अब लगभग खत्म होने के मुकाम पर पहुंच चुके हैं और नए अड्रेस की गुंजाइश बहुत कम बची है। आईपीवी 4 की सीमाओं को भांपते हुए इंटरनेट इंजिनियरिंग टास्क फोर्स ने नब्बे के दशक में इंटरनेट प्रोटोकॉल वर्जन 6 (आईपीवी 6) का विकास किया था। इस वर्जन में पतों के लिए 128 बिट की जगह है। इस तरह इसमें असीमित आईपी अड्रेस की गुंजाइश है। इस वर्जन में सुरक्षा और सेवाओं की बेहतर क्वालिटी देने वाले फीचर भी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आईपीवी 6 का विकास आईपीवी 4 के समक्ष आई चुनौतियों को ध्यान में रख कर किया गया है।
इंटरनेट प्रोटोकॉल के मौजूदा संस्करण की सबसे बड़ी समस्या अभी सुरक्षा की बनी हुई है। आए दिन कोई न कोई वायरस, वॉर्म या कोई और मालवेयर लोगों की नींद हराम किए रहता है। आईपीवी 4 में इन चीजों से बचने के लिए जो सुरक्षा उपाय तैयार किए जाते हैं, वे नए मालवेयर्स के सामने थोड़ी देर भी नहीं टिक पाते। हैकरों के लिए भी किसी सिस्टम में घुसकर अति गोपनीय जानकारियां निकाल लेना, किसी भी बैंक का अकाउंट कर लेना या किसी क्रेडिट कार्ड का क्लोन तैयार करके अच्छे-भले आदमी को मिनटों में कंगाल कर देना बच्चों का खेल हो गया है। इसकी अकेली वजह यह है कि मात्र 32 बिट के पते में सेंधमारी करना उनके लिए बहुत आसान है। इसकी चार गुना या यानी 128 बिट में लिखे जाने वाले आईपीवी 6 के पते कहीं ज्यादा जटिल होंगे और आने वाले दिनों में इसका इस्तेमाल करने वाले लोग खुद को कहीं ज्यादा सुरक्षित महसूस कर सकेंगे।



आईपीवी 4 के स्थान पर आईपीवी 6 को अपनाने की जरूरत दुनिया में काफी समय से महसूस की जा रही है। आईपी के नए वर्जन को अपनाने में अभी जापान काफी आगे चल रहा है। उसने नब्बे के दशक में ही नए वर्जन की तैनाती शुरू कर दी थी। वहां लाखों स्मार्टफोन, टैबलट और दूसरे उपकरण आईपीवी 6 नेटवर्क पर निर्भर हैं। एशिया के दूसरे दिग्गज चीन ने भी अपने नेक्स्ट जेनरेशन इंटरनेट प्रोजेक्ट के जरिए दुनिया का सबसे बड़ा आईपीवी 6 नेटवर्क खड़ा कर दिया है। यूरोप में नए वर्जन को अपनाने में अपेक्षाकृत पिछड़ा समझा जाने वाला मध्य यूरोपीय देश फिलहाल रोमानिया 8.43 प्रतिशत की दर के साथ सबसे आगे चल रहा है। फ्रांस में यह दर 4.69 है, जबकि अमेरिका की दर 1.7 प्रतिशत है। भारत ने भी इसकी गंभीरता को समझा है, हालांकि इंटरनेट प्रोटोकॉल के नए वर्जन को अपनाने की हमारी दर अभी सिर्फ 0.24 प्रतिशत है। नेट संचालित अर्थव्यवस्था के युग में आईपी के नए वर्जन में पारंगत होना बेहद जरूरी है।
भारतीय दूरसंचार विभाग ने नए वर्जन के बारे में पहला रोडमैप अथवा नीतिगत दस्तावेज 2010 में तैयार किया था। पिछले साल जारी की गई राष्ट्रीय दूरसंचार नीति ने आईपीवी 6 के महत्व को समझते हुए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में इसके उपयोग को रेखांकित किया था। लेकिन आईपीवी 4 के स्थान पर आईपीवी 6 को लागू करना आसान नहीं है। इसके लिए कोई निश्चित समय तय करना बहुत मुश्किल है। प्रोटोकॉल बदलना एक बहुत जटिल और दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इसका संक्रमण काल बहुत लंबा है। आईपीवी 6 की शुरुआत होने पर भी आईपीवी 4 का उपयोग कई वर्षों तक जारी रहेगा। यह स्थिति भारत ही नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों में बनी रहेगी। आईपीवी 6 को सिर्फ चरणबद्ध तरीके से ही लागू किया जा सकता है।
सरकार ने सभी स्टेक होल्डरों अथवा पक्षकारों से विस्तृत विचार-विमर्श के बाद आईपीवी 6 रोडमैप का दूसरा संस्करण पिछले मार्च में जारी किया था। इस नए रोडमैप में सभी सर्विस प्रोवाइडरों, उपकरण निर्माताओं और सरकारी संगठनों के लिए कुछ खास निर्देश जारी किए गए हैं। रोडमैप के अनुसार भारत में अगले साल 30 जून के बाद बेचे जाने वाले सभी मोबाइल फोनों, टैब्लेट्स और दूसरे उपकरणों में आईपीवी 6 ट्रैफिक के वहन की क्षमता होनी चाहिए। सरकारी संगठनों को प्रोटोकॉल का नवीनतम वर्जन अपनाने के लिए इस साल दिसंबर तक अपनी योजनाओं को अंतिम रूप देने को कहा गया है। इस रोडमैप पर आगे बढऩा सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अधिकांश सरकारी संगठन इस बारे में जागरूक नहीं हैं और न ही उन्होंने तकनीकी अपग्रेडेशन के लिए अपने वार्षिक बजटों में कोई प्रावधान किया है। सरकारी दफ्तरों में रखे उपकरणों का नवीकरण अथवा नए उपकरणों की खरीद अपने आपमें एक बड़ी समस्या है। आईपीवी 4 से आईपीवी 6 में जाने की प्रक्रिया की देखरेख करने के लिए आईपीवी 6 में प्रशिक्षित इंजिनियरों की भी भारी कमी है। रोडमैप में कॉलेजों के तकनीकी कोर्सों में अब आईपीवी 6 को शामिल करने का सुझाव दिया गया है, जिस पर तुरंत अमल किया जाना चाहिए। हालांकि यह काम कुछ साल पहले शुरू हो गया होता तो अभी हम ज्यादा बेहतर स्थिति में होते। भारत ने 2017 तक 17.5 करोड़ और 2020 तक 60 करोड़ ब्रॉडबैंड कनेक्शन देने का लक्ष्य बनाया है। देश में मौजूद डिजिटल खाई को पाटने के लिए अगर हमें ब्रॉडबैंड क्रांति को सफल बनाना है तो हमें जल्द से जल्द आईपी के नए वर्जन को अपनाना पड़ेगा। नई पीढ़ी का नेटवर्क भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से भी बहुत फायदेमंद हो सकता है। आईपीवी 6 आधारित प्रॉडक्ट्स और सेवाओं को देश में ही विकसित करके दुनिया के दूसरे देशों को निर्यात भी किया जा सकता है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा, टेली एजुकेशन, स्मार्ट ग्रिड, स्मार्ट सिटी और स्मार्ट बिल्डिंग आदि में आईपीवी 6 आधारित एप्लिकेशंस देश के आर्थिक-सामाजिक विकास को काफी तेजी से आगे ले जा सकते हैं, और हमें इसका भरपूर लाभ उठाना चहिए।

Saturday, August 10, 2013

बनाएं प्लास्टिक के खिलौने

भारत में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या को देखते हुए मानव संसाधन और लघु उद्योग मंत्रालय ने स्वरोजगार को बढ़ावा देने की अच्छी पहल की है। 'प्लास्टिक टॉय मेकिंगÓ भी इसी का हिस्सा है। इसके अंतर्गत प्लास्टिक खिलौनों के डिजाइन से लेकर उनके रंग-रूप एवं उन्हें अंतिम रूप देने संबंधी हर कार्य किए जाते हैं।
खिलौने बनाने के लिए जरूरी
स्वयं में कलात्मक क्षमता, बच्चों की पसंद-नापसंद को परखना, रंगों का संयोजन, मार्केटिंग एवं बिजनेस स्किल्स आदि को आत्मसात करना बेहद जरूरी है।
प्रशिक्षण एवं खर्च
प्लास्टिक टॉय मेकर बनने के लिए प्रशिक्षण बेहद जरूरी है, क्योंकि इसके लिए डिजाइनिंग, क्रिएटिविटी, बाजार की मांग तथा अन्य सम्यक जानकारी जरूरी है। सरकारी संस्थानों में छह माह से वर्ष भर की फीस 4,000 रुपए और गैर सरकारी संस्थानों में दोगुनी है।
यूनिट खर्च
यूनिट लगाने में काफी कम खर्च आता है। आप चाहें तो 50 हजार से भी मैन्युफैक्चरिंग शुरू कर सकते हैं।
मार्केटिंग
वैसे तो प्लास्टिक टॉय की मांग भारत के बाजारों में भी काफी है, लेकिन अन्तरराष्ट्रीय डिमांड भी बहुत है। हालांकि चीन जैसा विकसित देश इन मांगों को पूरा करने के लिए अग्रसर है, इसके बावजूद खिलौनों का उद्योग दिन-प्रतिदिन फल-फूल रहा है।
ऋण देने वाले बैंक
पब्लिक सेक्टर व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
कॉरपोरेशन बैंक
केंद्रीय व राज्य सरकार की वित्तीय संस्थाएं
आमदनी
आज अन्तरराष्ट्रीय मांग को देखते हुए उद्यमी छोटी से छोटी यूनिट भी स्थापित करता है तो महीने में 25 से 30 हजार रुपए का फायदा होता है।
प्रशिक्षण संस्थान
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली
ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ प्लास्टिक इंडस्ट्रीज, नई दिल्ली-15
इंडियन प्लास्टिक इंस्टीट्यूट, विले पाले, मुम्बई-4000056
इंस्टीट्यूट ऑफ टॉय मेकिंग टेक्नोलॉजी, कोलकाता-700091


Thursday, August 8, 2013

अंगोरा खरगोश पाल कर बढ़ाएं कमाई


खरगोश पालन क्यों अत्यधिक सन्तति उत्पादन के कारण मांस व ऊ न उत्पादन प्रति खरगोश सभी पालतू जीवों से अधिक है। यह जीव शोर व कोलाहल नहीं करता है। इसकी ऊ न बहुत बारीक व मुलायम होती है और इसकी ऊ न की ताप अवरोधक शक्ति भेड़ की ऊ न से लगभग तीन गुना होती है। इस कारण इसके पैसे ज्यादा मिलते हैं।
जलवायु: यद्यपि अंगोरा खरगोश 7 डिग्री से 28 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में पाले जा सकते हैं, परंतु 20 डिग्री सेंटीग्रेड पर इनकी उत्पादन क्षमता अच्छी रहती है। बहुत अधिक तापमान में इनकी प्रजनन क्षमता पर बुरा असर पड़ता है। न्यून पर इनके फीड़ खाने की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे आर्थिक दृष्टि से हानि होती है। खरगोशों के लिए 70 प्रतिशत अपेक्षित आर्द्रता उचित रहती है। बेहतर प्रजनन के लिए दिन में 16 घंटे प्रकाश की आवश्यकता होती है।



भवन व पिंजरे: जंगली अवस्था में खरगोश बिल खोदकर रहते हैं, लेकिन पालतू अवस्था में उन्हें अकेले पिंजरों में रखा जाता है। अंगोरा खरगोश को रखने के लिए भवनों का निर्माण इस ढंग से किया जाना चाहिए, जहां यह बाहरी प्रभावों जैसे सूर्य की तेज सीधी रोशनी, खराब मौसम व अवांछित शोर से बचे रहें। खिड़कियों तथा रोशनदानों पर जाली लगी हो, ताकि कीड़े-मकौड़े, पक्षी, चूहे, नेवले इत्यादि अन्दर न आने पायें। भवन में वायु का प्रभावशाली आवागमन हो।
खरगोशों को गैलवेनाई जड़ आयरन वैल्डेड वायरमैश से बने पिंजरों में रखा जाता है। एक पिंजरों में एक खरगोश रखा जाता है। पिंजरे में आहार तथा पानी के बर्तन इस ढंग से लगाए जाते हैं कि विभिन्न आयु वर्ग के जानवरों को आहार लेने व पानी पीने की सुविधा रहे।
प्रजनन योग्य खरगोशों के लिए पिंजरे का आकार 60 वर्ग सेंटीमीटर तथा अन्य खरगोशों के लिए -60 गुणा 35 सेंटीमीटर रखना चाहिए। बच्चे देने वाली मादाओं के पिंजरे के साथ प्रसव से पांच दिन पहले नैस्ट बॉक्स लगाए जाते हैं, जो प्लाईवुड के बने हों। नैस्ट बॉक्स का आकार 36 वाई 36 वाई 30 सेंटीमीटर होता है।
खरगोशों के लिए आहार: खरगोश शाकाहारी जीव है और घास इसका महत्वपूर्ण आहार है। यह सूखी हरी घास व हरी पत्तीयां जैसे शहतूत, दूब घास, लूसर्नघास, पालक, बरशीम आदि मुलायम हरे पत्तों को खूब खाता है। इसके अतिरिक्त शलजम, गाजर, चुकन्दर, गोभी, बंदगोभी आदि भी इसके मनचाहे खाद्य पदार्थ हैं।
अंगोरा खरगोशों को आहार पैलेट्ज के रूप में दिया जाता है। औसतन एक खरगोश प्रतिदिन 150-175 ग्राम आहार लेता है।
गर्भवती एवं बच्चे दिए हुई मादा के आहार में 100 ग्राम दैनिक वृद्धि हो जाती है। इसके अतिरिक्त 80-100 ग्राम हरी घास व हरी सब्जियां भी देनी चाहिए। एक खरगोश दिन में लगभग 350 मिलीलीटर पानी पीता है।
प्रजनन: केवल स्वस्थ व रोग मुक्त खरगोशों से ही प्रजनन करवाया जाना चाहिए। अंगोरा खरगोश 5-6 माह की आयु में जब इनका भार लगभग तीन किलोग्राम हो जाए, प्रजनन योग्य हो जाते हैं। उत्तेजित अवस्था में मादा की योनी लाल हो जाती है व अपनी ठोढ़ी पिंजरे में मलती हुई पूंछ को खूब हिलाती है। प्रजनन दो से करवाया जाता है।
प्राकृतिक गर्भधान: इसमें मादा खरगोश को नर खरगोश के पिंजरे में ले जाते हैं। समागम का ठीक व उचित समय सायं का रहता है। समागम के अंत में वह एक विशेष आवाज निकालता है। प्राकृतिक गर्भाधान के पश्चात मादा को वापस अपने पिंजरे में छोड़ दिया जाता है।
कृत्रिम गर्भधान: इसमें कृत्रिम वैजाईना की सहायता से वीर्य एकत्रित करके, उसे दूध से पतला किया जाता है तथा इसका एक मिली लीटर प्रत्येक प्रजनन योग्य मादा खरगोश की योनी में छिड़काव किया जाता है।
गर्भाधान के 14 दिन के बाद गर्भ हेतु जांच की जाती है। यदि गर्भधारण न हुआ हो तो दोबारा से मादा को नर के पास ले जाकर समागम करवाया जाता है। गर्भ के 25वें दिन नैस्ट बॉक्स लगा दिए जाते हैं। गर्भित मादा की विशेष देखभाल की जानी चाहिए। गर्भित मादा 31वें दिन बच्चे देती है।
बच्चे जनने के तुरंत बाद मां बच्चों को दूध पिलाने लगती है। जब खरगोश के बच्चों का जन्म होता है, तब उनके शरीर पर बाल नहीं होते। इनका रंग लाल और आंखें बंद होती हैं। तापमान को सामान्य रखने के लिए उन्हें एक ही स्थान पर रखना आवश्यक होता है। मादा अपने बच्चों को 24 घण्टों में एक बार ही लगभग 5-7 मिनट तक दूध पिलाती है और यदि कोई बच्चा दूध पीने से रह जाए तो वह अत्यंत कमजोर हो जाता है। जन्म से 11-12 दिन में वह चुस्त और फुरतीले हो जाते हंै और हरी घास व दाने को मुंह मारने लगते हैं। लगभग 4-5 सप्ताह की आयु होने पर इन बच्चों को मां से अलग कर दिया जाता है। इसे वीनिंग कहते हैं। अंगोरा खरगोश से वर्ष में 5-6 बार बच्चे लिए जा सकते हैं तथा प्रत्येक बार औसतन 6 बच्चे उत्पन्न होते हैं।
ऊन उत्पादन: अंगोरा खरगोश मुख्यत: अपनी बेहतरीन ऊ न के लिए पाले जाते हैं। एक वयस्क खरगोश से वर्ष में 4 बार ऊ न उतारी जाती है। औसतन एक खरगोश 200 से 250 ग्राम ऊन देता है। पहली ऊ न की कटाई खरगोश की 60 दिन की उमर पर कर देनी चाहिए, लेकिन दिसंबर या जनवरी में सर्दी के मौसम में ऊ न नहीं काटनी चाहिए।
अंगोरा खरगोश पालन हेतु अनुकूल है। अंगोरा पालन प्रदेश के कृषकों व बेरोजगार युवक-युवतियों द्वारा अपनाया जा रहा है। आरंभ में खरगोश प्रजनन फार्म नगवाई (जिला मण्डी) में 1984 में स्थापित किया गया था। इसके पश्चात पालमपुर में सन् 1986 में दूसरा खरगोश प्रजनन प्रक्षेत्र खोला गया। इन प्रक्षेत्रों में जर्मन अंगोरा खरगोश रखे जाते हैं। अंगोरा खरगोश की ऊन मुलायम और बारीक होती है, जिसकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। अंगोरा खरगोश पालन के इच्छुक व्यक्तियों को विभागीय प्रक्षेत्रों पर प्रशिक्षण प्रदान करवाया जाता है।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें
खरगोश को पकडऩे व उठाने में विशेष ध्यान देना चाहिए। खरगोश को ऊपर से हाथ को कन्धे पर रखकर दोनों तरफ चमड़ी को पकड़ कर तथा दूर हाथ पेट के नीचे पिछले भाग में रखकर उठाया जाता है। कभी भी खरगोश को कान व टांगों से नहीं उठाना चाहिए।
कौपरोफेजी- खरगोश अपनी मेंगनों का एक भाग दोबारा खा जाता है। यह सामान्य बात है। यह मेंगने आम तौर पर दो प्रकार की करता है। जो मेंगने नरम हल्की हरी सी होती है, उन्हें वापस खा जाता है। खरगोश बैक्टीरियल पाचन का पूरा फायदा उठाता है, जो मेंगने दिन में करता है वह मामूली मटियाली और सख्त होती हैं वह उन्हें नहीं खाता। अंगोरा खरगोश नाजुक व डरपोक जानवर होता है। इसके आसपास विस्फोट, शोरगुल आदि उत्पादन क्षमता पर बुरा प्रभाव डालते हैं। अंगोरा इकाई छोटे रूप में 10-15 खरगोशों से शुरू करनी चाहिए।
सामान्य बीमारियां एवं उनकी रोकथाम
खरगोशों में पाई जाने वाली मुख्य बीमारियों में कक्सीडियोसिस, टलारीमियाय, मयुकोएड एंटरोपैथी, न्यूमोनियाय, आंख आना, रिंग वर्मय, फोड़े इत्यादि प्रमुख हैं। इनकी रोकथम के लिए पिंजरों में आहार व पानी के बर्तनों व अन्य उपयोग में आने वाले उपकरणों को समय पर कीटाणु रहित करना चाहिए। किसी भी अंगोरा कक्सीडियोसिस इकाई का लाभप्रद होना मुख्यत: ऊन उत्पादन तथा ऊन की कीमत तथा आहार के मूल्य पर निर्भर करती है। ऊन का विक्रय ही आय का मुख्य स्त्रोत है। ऊन के इलावा इनकी खाल, मांस तथा युवा खरगोशों के विक्रय से भी आय में वृद्धि होती है। अंगोरा खरगोश इकाईयों को आर्थिक दृष्टि से जीवित रखने तथा खरगोशों की ऊन उत्पादन क्षमता को बनाए रखने हेतु बढिय़ा स्टाकॅ का चयन करना व कम उत्पादन वाले खरगोशों का नियमित रूप से निष्कासन अति आवश्यक है।