हाल ही में दुनिया भर में फ्री कंटेंट डाउनलोड करवाने वाली साइट पाइरेट बे (Pirate Bay) के को-फाउंडर हांस फ्रेडरिक लेनार्ट नेज को थाईलैंड बॉर्डर पर गिरफ्तार कर लिया गया। वह उन लोगों में से एक हैं, जो इंटरनेट पर मौजूद हर चीज को फ्री उपलब्ध करने की मुहिम का हिस्सा हैं। नई तरह की इस साइबर क्रांति के बारे में बता रहे हैं अमित मिश्रा :
इंटरनेट पर सब कुछ सबका
गूगल और विकीपीडिया जैसे टूल्स के आने के बाद इंटरनेट के बिना जिंदगी की कल्पना करना ही मुमकिन नहीं है। कभी सोच कर देखिए कि अगर ये दोनों ही साइट्स अपनी सर्विस और कंटेंट के लिए पैसे वसूलने लगें तो क्या हाल हो? इस संभावना से ही नई साइबर क्रांति का जन्म होता है। दुनिया के चंद कंप्यूटर इंजीनियरों का मानना है कि इंटरनेट चूंकि सहूलियतों के दरवाजे खोलने का जरिया बन चुका है इसलिए इस पर मौजूद हर चीज फ्री होनी चाहिए। ऐसा कुछ भी रोकने के लिए दुनिया भर के कानूनों का सहारा लिया जा रहा है। लोगों को गिरफ्तार भी किया जा रहा है लेकिन यह मुहिम साल-दर-साल जंगल की आग की तरह फैलती जा रही है। इस क्रांति का हिस्सा बनने वालों में भी दो तरह के लोग हैं - एक वे, जो नियम-कायदों में रह कर इस तरह की छूट देने की मांग कर रहे हैं और दूसरे वे, जो हर हाल में ऐसा कर गुजरने पर आमादा हैं।
टॉरेंट की टक्कर
दुनिया भर में इंटरनेट पर सबकुछ फ्री पाने के जिस ठिकाने पर लोग सबसे ज्यादा जाते हैं, उसका नाम है 'टॉरेंट' (torrent)। इंटरनेट के अजब-गजब क्रांतिकारियों का यह एक ऐसा कारनामा है, जिसे बंद करवाने के लिए दुनियाभर की सरकारें लामबंद हो चुकी हैं लेकिन यह फिर भी बदस्तूर जारी है। यह इंटरनेट का एक ऐसा करिश्मा है, जिसे किसने बनाया यह किसी को पता नहीं। इसे कौन चला रहा है, यह भी किसी को पता नहीं। पता है तो बस इतना कि इस साइट को खुद को सबसे तेजी से अपडेट करना आता है। मूवी हो, सॉफ्टवेयर हो या कोई पॉपुलर किताब, यहां सबकुछ फ्री है।
कैसे काम करता है टॉरेंट का जादू
असल में टॉरेंट एक ऐसा प्लैटफॉर्म है, जहां पर फ्री में कंटेट उपलब्ध कराने वाले और उसे इस्तेमाल करने वाले एक जगह पर आ जाते हैं। टॉरेंट पर फ्री कंटेंट उपलब्ध कराने वाले गुमनाम क्रांतिकारियों ने इंटरनेट पर एक ऐसा जाल बुना है, जो दुनिया के किसी भी कंप्यूटर को होस्ट में तब्दील करके मनचाही जगह पर फाइल को डाउनलोड करने लायक बना देता है। मिसाल के तौर पर अगर आपको कोई हॉलिवुड की फिल्म डाउनलोड करनी है तो टॉरेंट आपको ऐसे किसी कंप्यूटर से कनेक्ट करा देगा, जिस पर यह फिल्म मौजूद होगी और वहां से सीधे ही यह फाइल डाउनलोड हो जाएगी। इतना ही नहीं, इस पूरे साइबर आदान-प्रदान में उस कंप्यूटर की लोकेशन को खास कोडिंग के जरिए छुपा दिया जाता है, जिसमें फिल्म मौजूद है। अगर जांच होती भी है तो वही पकड़ा जा सकता है, जो फिल्म डाउनलोड कर रहा है।
पाइरेट बे के लुटेरे
2003 में स्वीडन के तीन कंप्यूटर एक्सपर्ट्स पीटर सुंडे, गॉटफ्राइड स्वॉथहोम और फ्रैडरिक नेज ने मिल कर ऐसे फाइल शेयरिंग प्लैटफॉर्म को खड़ा किया, जिसने इंटरनेट की दुनिया को बदल कर रख दिया। 'द पाइरेट बे' जिसे साइबर दुनिया के दीवाने टीपीबी के नाम से भी जानते हैं, देखते-देखते फ्री फाइल शेयरिंग के सबसे बड़े प्लैटफॉर्म की तरह उभरा। दुनिया भर में कॉपीराइट और कंटेंट को बेंच कर ज्यादा-से-ज्यादा पैसा कमाने वालों की नींद उड़ गई। पाइरेट बे पर केस दायर किया गया और 2009 में तीनों फाउंडर्स को 1 साल की सजा के साथ हर्जाने के तौर पर 3.6 मिलियन डॉलर (करीब 22 करोड़ रु.) की रकम भरने के लिए कहा गया। रकम भरने से उन्होंने साफ इनकार कर दिया और जेल जाने के लिए तैयार हो गए। इस बीच फेडरिक नेज स्वीडन से भाग निकले और बाकी दोनों को कॉपीराइट से लेकर हैकिंग तक के केस लगाकर जेल भेज दिया गया। वह अब भी अपनी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन साइबर आजादी की लड़ाई से उन्होंने फिलहाल तौबा नहीं किया है।
लॉरेंस लेसिग : साइबर गांधी
जिस तरह से दुनिया भर में अहिंसक तरीके से अन्याय के खिलाफ लड़ाई का चेहरा महात्मा गांधी हैं, कुछ वैसा ही चेहरा साइबर दुनिया को फ्री करने की मुहिम में प्रफेसर लॉरेंस लेसिग का है। प्रफेसर लेसिग वार्टन स्कूल अमेरिका से मैनेजमेंट, यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज इंग्लैंड से फिलॉसफी में मास्टर्स और येल लॉ स्कूल से रिसर्च करने के बाद क्रिएटिव कॉमन्स मूवमेंट का चेहरा बने। 53 साल के प्रफेसर फिलहाल हॉवर्स यूनिवर्सिटी लॉ के प्रफेसर हैं। वह बदलती दुनिया में कॉपीराइट, ट्रेडमार्क और रेडियो फ्रीक्वेंसी स्पेक्ट्रम के कानूनों को फिर से गढ़ने की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि इंटरनेट के युग में इनमें भारी फेरबदल करने की जरूरत है, जिससे इंटरनेट पर मौजूद ज्ञान का खजाना दुनिया में हर इंसान तक पहुंच सके।
क्रिएटिव कॉमन्स
2001 में प्रपेसर लेसिग ने क्रिएटिव कॉमन्स नाम के एक ऐसे प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया, जो कॉपीराइट के कानून के उलट 'कॉपीलेफ्ट' मूवमेंट की बात करता था। इस प्रोजेक्ट से कई होनहार कंप्यूटर एक्सपर्ट्स भी जुड़े और सबने इंटरनेट पर सबके लिए सबकुछ की लड़ाई को आगे बढ़ाया। उनका तरीका किसी कॉपीराइट कानून को तोड़ने का नहीं, बल्कि ऐसे लोगों को एक प्लैटफॉर्म पर लाना था, जो किसी भी तरह के कॉपीराइट या परमिशन लेने की व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते थे। लेसिग इसे इंटरनेट पर मौजूद ज्ञान के बड़े खजाने को ऐसे लोगों से आजाद कराने के मूवमेंट का हिस्सा मानते हैं, जो पैसों की दम पर इंटरनेट पर कंटेंट को कंट्रोल कर रहे हैं। क्रिएटिव कॉमन्स साइट पर जाकर कोई भी खुद की रचना को अपलोड कर सकता है और उसे इस्तेमाल करने के लिए फ्री कर सकता है। इस्तेमाल करने वाले को बस कंट्रीब्यूट करने वाले को क्रेडिट भर देना होता है।
ऐरॉन श्वार्ट्ज : एक सपने की मौत
दुनिया का कोई भी मूवमेंट बिना युवा ताकत के चला पाना मुश्किल है। ऐसे ही एक जोशीले और टैलेंटेड युवा का नाम है ऐरॉन श्वार्ट्ज। बचपन से ही इंटरनेट की दुनिया को जुनून की हद तक चाहने वाले ऐरॉन भले ही कंप्यूटर साइंस की कोई बड़ी डिग्री नहीं ले पाए लेकिन प्रोग्रामिंग का टैलंट जैसे उनके खून में ही था। 10 साल की उम्र से ही उन्होंने प्रोग्रामिंग फील्ड के बड़े अवॉर्ड्स जीतने शुरू कर दिए थे। जवानी की दहलीज तक पहुंचते-पहुंचते उनकी मुलाकात प्रफेसर लेसिग से हो गई। वह भी इंटरनेट पर मौजूद कंटेंट को सबके लिए फ्री करने की मुहिम का हिस्सा बने। इस दौरान उन्होंने अमेरिकन फेडरल कोर्ट की साइट को हैक करके लाखों डॉक्यूमेंट्स को फ्री में डाउनलोड करने के लिए उपलब्ध करा दिया। गौरतलब है कि इसके लिए पहले सरकार पैसे लेती थी। उनके ऊपर कोई चार्ज तो नहीं लगाया गया लेकिन वह एजेंसियों के राडार पर आ चुके थे।
विकीलीक्स में उनकी भूमिका को लेकर उन्हें 6 जनवरी 2011 में गिरफ्तार किया गया। कोर्ट में सुरक्षा एजेंसियों ने उन पर ऐसे कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया, जिसके लिए ऐरॉन को 50 साल तक की कैद और 1 मिलियन डॉलर तक हर्जाना भरना पड़ सकता था। तकरीबन 2 साल तक केस लड़ने के बाद 11 जनवरी 2013 को ऐरॉन ने हॉस्टल के अपने कमरे में खुदकुशी कर ली। ऐरॉन की याद में बनाई गई वेबसाइट पर लिखा है, ' ऐरॉन ने अपनी प्रोग्रामिंग और टेक्नॉलॉजिस्ट की विलक्षण प्रतिभा को खुद का इस्तेमाल खुद को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि इंटरनेट और दुनिया को एक बेहतर और न्यायपूर्ण जगह बनाने के लिए किया।'
भारत और कंटेंट की आजादी
एक तरफ दुनिया इंटरनेट पर आजादी की लड़ाई लड़ रही है, वहीं भारत में फिलहाल इस तरह की मुहिम पर ज्यादा बात नहीं हो रही है। इसकी एक वजह तो इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट और कॉपीराइट जैसे मुश्किल कानूनों का लोगों की समझ से बाहर होना है और दूसरा साइबर कानूनों को सख्ती से लागू न करवा पाने की लाचारी है। साइबर एक्सपर्ट पवन दुग्गल का कहना है कि बड़े ग्रुप तो कॉपीराइट आदि की लड़ाई लड़ सकते हैं लेकिन आम आदमी के लिए यह मुश्किल है। जहां तक बात कंटेंट को फ्री करने की है तो दुनिया भर में यह लड़ाई जोरों से जारी है लेकिन इसके खिलाफ खड़ी मजबूत बिजनस लॉबी के चलते जल्दी आजादी के आसार कम ही नजर आते हैं।
इन्होंने जला रखी है आजादी की अलख
Free Software Foundation : 1985 में रिचर्ड स्टॉलमैन ने इस फाउंडेशन का गठन फ्री सॉफ्टवेयर को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए किया था। यहां पर इंडिपेंडेंट सॉफ्टवेयर डिवेलपर ऐसे जरूरतमंदों को अपने सॉफ्टवेयर उपलब्ध करा सकते हैं, जो इसे खरीद नहीं सकते। यह पूरी तरह से नॉन प्रॉफिटेबल फाउंडेशन है।
Software Freedom Law Center : 2004 में बने इस सेंटर को ईबेन मॉग्लेन ने इस सपने के साथ बनाया कि जब भी दुनिया के लिए फ्री में सॉफ्टवेयर बनाने वालों को लीगल मदद की जरूरत पड़े तो लोग उनके साथ खड़े हों। यह संस्था दुनिया भर के इस्तेमाल के लिए फ्री में सॉफ्टवेयर बनाने वालों को फ्री में कानूनी सलाह और मदद देती है।
Electronic Frontier Foundation (EFF) : 1090 में जॉन गिलमोर, जॉन पेरी बारलो और मिच कापर को खुद पर चल रहे एक केस के दौरान अहसास हुआ कि दुनिया को अब इंटरनेट सिविल लिबर्टी की भी जरूरत है। मतलब साफ था कि सरकार भी इस बात को समझ पाने में असमर्थ थी कि कब कानूनों का उल्लंघन हुआ है और कब यह गलती से हुआ है। ऐसे में EFF ने कई साइबर क्रांतिकारियों का केस लड़ा। मशहूर राइटर डैन ब्राउन की टेक्नो थ्रिलर नॉवल 'डिजिटल फोर्टेस' में भी इस फाउंडेशन का जिक्र आता है।
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