Thursday, January 24, 2013

इनकम टैक्‍स बचाने के सात उपाय, जो सैलरी से नहीं कटने देंगे आपके हजारों रुपये

इनकम टैक्‍स बचाने के सात उपाय, जो सैलरी से नहीं कटने देंगे आपके हजारों रुपये



मेहनत करके लोग पैसा कमाते हैं लेकिन जब यही पैसा इनकम टैक्स के रूप में साल के अंत में आपकी सैलरी से काट लिया जाता है। तो यकीनन यह सबसे कष्ट देने वाला लम्हा होता है। हर कोई चाहता है कि उसका टैक्स कम से कम कटे लेकिन इसके लिए आयकरदाता पूरी तैयारी नहीं कर पाता है। आज हम इनकम टैक्स एक्सपर्ट के शब्दों में आपको वो तरीका बताएंगे जिससे सैलरी से कटने वाला इनकम टैक्स बचाया जा सकेगा। इन तरीकों को अपनाकर आप हजारों रुपये तक हर साल बचा सकते हैं।
 
जनवरी से मार्च वित्त वर्ष के वो महीने होते हैं जब टैक्स प्लानिंग चिंता का सबसे बड़ा मुद्दा होता है। ज्यादा टैक्स कटौती के दायरे में आने वाले वेतनभोगी आखिरी समय में निवेश के ऐसे विकल्प खोजते हैं जहां वे टैक्स बचा सकें। लेकिन समझदारी इसी में है कि विभिन्न इन्स्ट्रूमेंट्स की विशेषताओं और फायदों पर नजर डाल ली जाए।सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर और और द फाइनेंशियल प्लानर्स गिल्ड इंडिया के सदस्य जितेंद्र पी.एस. सोलंकी बता रहे हैं कि टैक्स प्लानिंग के लिए कैसे समझदारी से निवेश करें:  
 
 
1. जीवन बीमा : इसमें आप हर साल प्रीमियम जमा करते हुए टैक्स सेविंग कर सकते हैं। टैक्स बेनिफिट के एक अप्रैल 2012 से हुए बदलाव के अनुसार यदि बेस कवरेज प्रीमियम के 10 गुना से कम है तो टैक्स सेविंग का लाभ नहीं मिल पाएगा। यह शर्त पॉलिसी की पूरी अवधि तक लागू रहती है। टैक्स सेविंग के लिहाज से इसे लेने का फैसला जल्दबाजी में न करें। 
 
2. ईएलएसएस : इक्विटी लिंक्ड सेविंग्स स्कीम भी अच्छे रिटर्न के साथ टैक्स सेविंग का पसंदीदा माध्यम रहा है। इसका मुख्य कारण तीन साल का लॉक-इन पीरियड और निवेश का सरल तरीका है। हालांकि बीते कुछ वर्षों के दौरान शेयर बाजार की अस्थिरता से इसका आकर्षण घटा है। लेकिन बाजार को समझने वालों के लिए अभी भी टैक्स सेविंग के लिए अच्छा इन्स्ट्रूमेंट है। 
 
3. स्मॉल सेविंग्स : पब्लिक प्रोविडेंट फंड लंबी अवधि की प्लानिंग के लिहाज से अच्छा निवेश है। इसमें निवेश की रकम, ब्याज और मैच्योरिटी पर टैक्स नहीं लगता है। हालांकि एक दिसंबर 2011 से इसकी ब्याज दरें बाजार से जोड़ दी गई हैं। फिर भी टैक्स सेविंग के लिए यह अच्छा विकल्प है। एनएससी या डाकघर जमा जैसी अन्य स्मॉल सेविंग स्कीम में निवेश करना आसान है। लेकिन इन पर मिलने वाले ब्याज पर कर लगता है। इसलिए सभी निवेशकों के लिए यह फायदेमंद नहीं होती। 
 
4. एनपीएस : न्यू पेंशन स्कीम अब सबके लिए उपलब्ध है। ऐसे निवेशक जो रिटायरमेंट प्लानिंग के लिहाज से निवेश का एलोकेशन नहीं कर पाते उनके लिए यह अच्छा विकल्प है। नियोक्ता के कॉन्ट्रिब्यूशन से एडिशनल टैक्स बेनिफिट इसे आकर्षक बनाता है। 
 
5. फिक्स्ड डिपॉजिट : टैक्स बचाने के लिहाज से एफडी सबसे आसान विकल्प है। लेकिन इनका ब्याज टैक्स फ्री नहीं है। यह विकल्प उनके लिए ठीक है जो लोअर टैक्स ब्रैकेट में आते हैं। 
 
6. हेल्थ इंश्योरेंस: यह 80सी से ज्यादा टैक्स बेनेफिट देता है। व्यक्ति को पहले अपनी जरूरत को समझकर इसे लेना चाहिए। इसमें टैक्स बेनिफिट एक एडेड एडवांटेज है। 
 
7. आरजीईएसएस : राजीव गांधी इक्विटी सेविंग स्कीम टैक्स लाभ का नया विकल्प है। यह उनके लिए है जिन्होंने शेयर बाजार में कभी निवेश नहीं किया है। इसके तहत 50 हजार रुपए तक की सीमा में जितना भी निवेश करते हैं उसके 50 फीसदी के बराबर अपनी आय में टैक्स बेनेफिट ले सकते हैं। लेकिन इक्विटी स्कीम होने से जोखिम भी जुड़ा होता है। 
 
टैक्स प्लानिंग आपकी फाइनेंशियल प्लानिंग का एक हिस्सा है। इसके उपाय वित्त वर्ष के शुरू में ही कर लेने चाहिए। इससे आखिरी महीनों में आप पर वित्तीय दबाव नहीं पड़ेगा और भागदौड़ से भी बचेंगे। 



इनकम टैक्‍स बचाने के सात उपाय, जो सैलरी से नहीं कटने देंगे आपके हजारों रुपये


निवेश सलाहकारों के मानक हुए और कड़े 
 
 
सेबी के पास कराना होगा पंजीकरण 
 
हर उत्पाद की फीस का होगा खुलासा 
 
सलाह के खिलाफ राय 15 दिन तक नहीं 
 
उत्पादों में होल्डिंग का खुलासा जरूरी 
 
सारे रिकॉर्ड रखने होंगे 5 साल तक 
 
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पूंजी बाजार नियामक सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड (सेबी) ने निवेश सलाहकारों के मानकों को और कड़ा कर दिया है। अब सभी निवेश सलाहकारों को बाध्यकारी रूप से सेबी के पास पंजीकरण कराना होगा। इस मामले में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए सेबी ने बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) व कॉरपोरेट्स से कहा है कि वे निवेश सलाहकारी सेवाओं को अपनी अन्य गतिविधियों से अलग करें। साथ ही, निवेश सलाहकारों को हर प्रोडक्ट पर वसूल की जाने वाली फीस को स्पष्ट करना होगा। सेबी के यह मानक तीन माह में लागू हो जाएंगे। 
 
सोमवार को जारी इस आशय की अधिसूचना में सेबी ने कहा है कि वित्तीय उत्पादों के बारे में सलाहकारी सेवाएं देने वाली सभी संस्थाओं को अब इसके पास बाध्यकारी रूप से पंजीकरण कराना होगा। साथ ही, इन्हें सलाहकारी सेवाओं को वितरण जैसी अन्य गतिविधियों से अलग करना होगा। निवेश सलाहकार बनने के लिए किसी कॉरपोरेट संगठन की न्यूनतम वैल्यू 25 लाख रुपये की होनी चाहिए। व्यक्तिगत निवेश सलाहकारों के मामले में यह वैल्यू एक लाख रुपये रखी गई है। सेबी ने सभी मौजूदा निवेश सलाहकारों को इन पूंजीगत मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक साल का समय दिया है। 
 
निवेश सलाहकारों के काम को ज्यादा जवाबदेह बनाने के लिए सेबी ने कहा है कि अगर किसी ग्राहक को कोई सलाह दी जाती है तो निवेश सलाहकार इसके बाद कम से कम 15 दिनों तक इसके ठीक विपरीत सलाह नहीं दे सकेगा। साथ ही, निवेश सलाहकारों को उत्पाद विशेष पर ली जाने वाली फीस, उत्पादों में खुद की होल्डिंग, निवेश को लेकर जोखिम और वित्तीय उत्पाद जारी करने वाली संस्था के साथ अपने संबंध के बारे में स्पष्ट खुलासा करना होगा। साथ ही निवेश सलाहकारों को पांच साल तक ग्राहकों की केवाईसी, एग्रीमेंट की कॉपी, निवेश को लेकर दी गई सलाह, फीस का डाटा और सलाह दिए जाने के समय का रिकॉर्ड भौतिक या इलेक्ट्रॉनिक रूप में रखना होगा। 
 
सेबी ने निवेश सलाहकारों के लिए प्रमाणपत्र लेने को बाध्यकारी बना दिया है। मौजूदा समय में निवेश सलाहकार का काम कर रही संस्थाओं को छह माह के भीतर यह प्रमाणपत्र सेबी से लेना होगा।प्रमाणपत्र पांच साल के लिए दिया जाएगा और एक्सपायर होने से तीन माह पहले इसका नवीनीकरण कराना होगा। निवेश सलाहकारों के पार्टनरों व उनके साथ काम करने वाले प्रतिनिधियों को भी दो साल के भीतर प्रमाणपत्र हासिल करना होगा। सेबी ने इनके लिए कुछ शैक्षणिक योग्यताएं भी तय की हैं। हालांकि, सेबी ने किसी के भले के लिए सलाह देने वालों, वकीलों व बीमा एजेंटों को इस दायरे से बाहर रखा है।



इनकम टैक्‍स बचाने के सात उपाय, जो सैलरी से नहीं कटने देंगे आपके हजारों रुपये



भारतीय सीईओ पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा कॉन्फिडेंट 
 
पीडब्ल्यूसी सर्वे के निष्कर्ष 
 
विदेशी कंपनियों के सीईओ का विश्वास बढऩे के बजाय अब और घट गया है 
 
अपनी कंपनियों में नई भर्तियों को लेकर भी भारतीय कंपनियों के सीईओ काफी आश्वस्त 
 
पिछले साल भारत में ही सबसे कम कंपनियों ने कर्मचारियों की छंटनी की थी
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भारतीय कंपनियों के सीईओ के कॉन्फिडेंस का कोई जवाब नहीं है। दरअसल, अपने बिजनेस में ज्यादा कमाई और ग्लोबल आर्थिक परिदृश्य में सुधार को लेकर पूरी दुनिया में भारतीय कंपनियों के सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) ही सबसे ज्यादा आश्वस्त हैं। वहीं, दूसरी ओर अन्य सभी देशों की कंपनियों के सीईओ इस साल ग्लोबल अर्थव्यवस्था में सुधार होने और आने वाले समय में बेहतर कारोबारी कमाई को लेकर कुछ खास आश्वस्त नहीं हैं। 
 
कटु सच्चाई तो यह है कि विदेशी कंपनियों के सीईओ का विश्वास बढऩे के बजाय अब और घट गया है। जानी-मानी कंसल्टेंसी फर्म पीडब्ल्यूसी द्वारा द्वारा कराए गए सालाना ग्लोबल सीईओ सर्वेक्षण से ये तथ्य उभर कर सामने आए हैं। यहां आयोजित वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की सालाना बैठक के मौके पर मंगलवार की रात पीडब्ल्यूसी ने अपनी रिपोर्ट जारी की। सर्वे में बताया गया है कि अपनी-अपनी कंपनियों में नई भर्तियों को लेकर भी भारतीय कंपनियों के सीईओ काफी ज्यादा कॉन्फिडेंट हैं। बात अगर पिछले साल की करें तो उस दौरान भारत में ही सबसे कम कंपनियों में कर्मचारियों की छंटनी की गई। डब्ल्यूईएफ की शिखर वार्ता के दौरान अपने 16वें सालाना सीईओ सर्वेक्षण के निष्कर्षों का जिक्र करते हुए पीडब्ल्यूसी ने यह भी बताया, ‘ग्लोबल स्तर पर महज 36 फीसदी सीईओ ने कहा कि वर्ष 2013 में अपनी-अपनी कंपनियों में विकास की अच्छी संभावनाओं को लेकर वे काफी ज्यादा आश्वस्त हैं।’ दरअसल, वर्ष 2012 में 40 फीसदी सीईओ और वर्ष 2011 में इससे भी अधिक 48 फीसदी सीईओ ने ठीक यही बात कही थी। 


इनकम टैक्‍स बचाने के सात उपाय, जो सैलरी से नहीं कटने देंगे आपके हजारों रुपये



आर्थिक मामलों के जानकार अरविंद कुमार सेन बता रहे हैं कि सोने पर लिया गया ताजा फैसला बीमारी को खत्म करने की बजाए, उसके लक्षणों को दूर करने के सरकारी ट्रेंड की एक और मिसाल है। सोने की मांग कम करने की गरज से इस पर लगने वाला आयात शुल्क चार से बढ़ाकर छह फीसदी कर दिया गया है और गोल्ड लोन देने वाली एनबीएफसी से कहा गया है कि गिरवी रखे जाने वाले आभूषणों की कीमत का अधिकतम 60 फीसदी लोन ही दिया जा सकता है। एनबीएफसी (नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कोरपोरेशन) ऐसे वित्तीय संस्थान को कहा जाता है जो कर्ज मुहैया करवाते हैं लेकिन जनता से जमाएं स्वीकार नहीं कर सकते हैं। सोने के आयात शुल्क में इजाफा करना एक ऐसी दवा है जिसकी घुट्टी सरकार कई मर्तबा पिला चुकी है लेकिन इसका असर एक बार भी देखने को नहीं मिला है। बीते साल बजट में तब के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने सोने पर लगने वाला आयात शुल्क दो फीसदी से बढ़ाकर चार फीसदी कर दिया था, मगर सोने के आयात में कहां कमी हुई? अब मौजूदा वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने उसी पुरानी दवा की खुराक दी है लेकिन इस बार दवा मरीज को रिएक्शन करने जा रही है। 
 
सोने पर आयात शुल्क बढ़ाना इस मर्ज की दवा नहीं है और 1990 के दशक में भारत इसके दुष्परिणाम भुगत चुका है। सोने की मांग में तेजी की असली वजहों को दूर किए बगैर इसके आयात को महंगा करने से अंडरग्राउंड कारोबार को हवा मिलेगी। 30 लाख रुपए प्रति किलो से ऊपर बिक रही इस धातु की मांग को पूरा करने के लिए तस्कर नेपाल और दुबई के रास्ते टैक्स रहित सोना भारत भेजना शुरू कर देंगे। जैसा कि 1990 में हो चुका है, अवैध तरीके से किए जाने वाले सोने के इस व्यापार से अर्थव्यवस्था को दोहरा नुकसान होगा। सोने की खपत में भी कमी नहीं आएगी और सरकार सोने पर मिलने वाले टैक्स से भी वंचित रह जाएगी। सवाल उठता है कि आखिर रास्ता क्या है और सरकार क्यों सोने का आयात कम करना चाहती है। दरअसल, सोना ही वह एकमात्र चीज है जिसने पिछले कुछ समय में देश के भुगतान संतुलन को सबसे ज्यादा तहस-नहस किया है। 2008-09 में आर्थिक मंदी के बाद से सोने का आयात बिल 21 अरब डॉलर से बढ़कर 2011-12 में 56 अरब डॉलर का दायरा पार कर चुका है। देश के चालू खाते का घाटा (आयात और निर्यात भुगतान के बीच का फर्क) मौजूदा वित्तवर्ष की आखिरी तिमाही में जीडीपी का 5.4 फीसदी हो गया है और इस इजाफे में 70 फीसदी योगदान सोने का है। जब आयात बिल निर्यात से ज्यादा हो तो चालू खाते को घाटा पैदा होता है और 5.4 फीसदी का आंकड़ा किसी भी लिहाज से अर्थव्यवस्था के लिए कंफर्ट जोन नहीं कहा जा सकता है। 
 
तेल का आयात कम नहीं किया जा सकता है, लिहाजा सोने के आयात में कमी करने के अलावा दूसरी कोई राह नहीं है। सोने में लोगों की इस कदर दिलचस्पी की दो बड़ी वजहें हैं। पहली, डबल डिजीट मुद्रास्फीति के वक्त में शेयर मार्केट, म्युचूअल फंड, बैंक और पोस्ट ऑफिस जमा योजनाएं लोगों को पॉजिटिव रिटर्न देने में नाकाम रही हैं। पिछले पांच साल के दरम्यान सोने की कीमतों में सालाना 25 फीसदी की दर से इजाफा हुआ है और इस रफ्तार ने मुद्रास्फीति में हो रही सालाना सात फीसदी की बढ़त को बहुत पीछे छोड़ दिया है। सोने पर मिलने वाले रिटर्न की इस दर के सामने दूसरी सारी फाइनेंशियल एस्सेट्स फीकी पड़ गई हैं। 2009-10 से घरेलू बचत दर में लगातार आ रही कमी इस बात की तरफ इशारा कर रही है। सोने को सुरक्षित निवेश के रूप में देखने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। सोने की मांग बढऩे की दूसरी वजह यह है कि 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से मची हलचल के कारण दुनियाभर में केंद्रीय विनियामक बैंक अपने रिजर्व को डॉलर या यूरो में रखने की बजाए सोने को प्राथमिकता दे रहे हैं। चीन और ब्राजील जैसी बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाएं अपने रिजर्व का बड़ा हिस्सा सोने में रख रही हैं। ऐसे माहौल में वैश्विक स्तर पर 2008 के बाद से ही सोने की कीमतों में उछाल आ रहा है और इससे सोने का आयात बढ़ता जा रहा है। मांग में यह तेजी लोगों की इस धारणा को पुख्ता कर रही है महंगाई के खिलाफ हैजिंग (जोखिम से प्रतिरक्षा) का सबसे बड़ा हथियार सोना है और इससे मिलने वाले रिटर्न का मुकाबला इक्विटी या बैंक डिपॉजिट नहीं कर सकते हैं। 
 
सोने की मांग में इजाफा करने वाले इन दोनों कारणों को देखा जाए तो आयात शुल्क बढ़ाने की ताजा सरकारी कवायद से नुकसान के सिवाए कुछ नहीं मिलने वाला है। चूंकि लोगों ने सोने को निवेश का जरिया बना लिया है, इसलिए सोने की मांग में कमी लाने के लिए सरकार को निवेश के दूसरे विकल्प आकर्षक बनाने होंगे। अगर सरकार चाहती है कि लोग सोने से हटकर अपना पैसा बैंक और शेयर मार्केट में लगाएं तो इसकी वाजिब वजह उपलब्ध करानी होगी। मसलन फिलहाल बैंक डिपॉजिट पर मिलने वाली आय पर भी टैक्स लगाया जाता है, वहीं पोस्ट ऑफिस डिपॉजिट तो पहले ही समय से पीछे छूट चुकी हैं। सोने का आयात कम करने के लिए बैंक डिपॉजिट पर लगने वाले टैक्स को हटाने के साथ ही बचत खाते पर मिलने वाली नाममात्र की ब्याज दरों में भी इजाफा करना होगा। हालांकि यह कड़वी सच्चाई है कि लंबे समय में मुद्रास्फीति को काबू किए बगैर सोने का आयात कम नहीं किया जा सकता है। गोल्ड लोन देने वाली एनबीएफसी पर चाबुक चलाने का फैसला भी उल्टा असर करेगा। एनबीएफसी से निराश ग्राहक सीधा सूदखोरों के पास जाएगा और ऐसे में पूरी आबादी को संस्थागत बैंकिंग के दायरे में लाने का मकसद ही नाकाम हो जाएगा। वक्त का तकाजा है कि सरकार बुखार की बजाए उसकी वजह का इलाज करे।  


(साभार)

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