Wednesday, May 8, 2013

एक था चिड़ा (कहानी)


चिडा एक डाल पर बैठा हुआ अपने खाली पडे घोंसले को देख रहा था। उसके चेहरे पर चिडचिडाहट थी और रह-रह कर उसकी यह चिडचिडाहट उसके स्वरों में ढल कर आ रही थी.. चिड... चिड.. चिड... चिड..। घोंसले में चिडिया और उसके बच्चे नहीं थे। मुन्ने ने भी दो बार झांककर देखा, सच में घोंसला खाली पडा था। पेड- पौधों से पत्ते झर रहे थे जो बार-बार उसके चेहरे को स्पर्श करते जा रहे थे। मुन्ना अपने चेहरे को इधर-उधर कर उनसे बचने का प्रयास कर रहा था और- उसकी नींद टूट गई।
मुन्ने को याद आया कि कल रात वह दादी से कहानी सुनते-सुनते सो गया था। कहानी में आगे क्या हुआ, यह तो उसे पता ही नहीं चला। संभवत: दादी ने उसे सोया देखकर कहानी आगे नहीं सुनाई होगी या फिर दादी स्वयं भी सो गई होगी क्योंकि मम्मी कह रही थी कि बूढे लोग जल्दी थक जाते हैं। दिनभर कुछ न कुछ करती भी रहती है। आजकल उसकी दादी कुछ दिनों के लिए उसके पास आई हुई थी। कोई बात नहीं, आज कहानी सुनकर ही सोऊंगा- मुन्ने ने स्वयं से कहा।
सुबह के नाश्ते के बाद ही वह दादी के पास जा पहुंचा और लगा जिद करने कि कल वाली कहानी सुनाओ। दादी ने उसे समझाया कि कहानी रात में सुनी जाती है। दिन में कहानी सुनने से आदमी रास्ता भूल जाता है। उसने फिर जिद कीनहीं, मुझे सुननी है.. वही कल वाली कहानी। वह तो सुना दी थी। वह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं सो गया था, बस मुझे कहानी सुननी है।.. आप कहती हैं, रात में सपने में कहानी पूरी हो जाती है परन्तु मैंने तो सपने में भी पूरी कहानी नहीं सुनी और न देखी। अच्छा ठीक है, आज रात में सुन लेना, मैं फिर से सुना दूंगी।
बात तय हो गयी और मुन्ना दिनभर प्रतीक्षा करता रहा कि कब रात हो और वह दादी से कहानी सुने। रात भी हो गई और जब सबने भोजन कर लिया तो मुन्ना फिर दादी के बिस्तर में जा घुसा। उसके विचार से अब सोने का समय हो गया था और उसे दादी से कल वाली कहानी सुननी थी। उसने फिर से दादी को कहानी सुनाने को कहा। दादी ने उससे पूछा-
अच्छा यह बता; तूने कहानी कहां तक सुनी थी? आप शुरू से सुनाइए न..।
अच्छा ठीक है। -दादी ने कहानी शुरू करने के पहले उसे सावधान किया- परन्तु कल की तरह सो मत जाना। मैं बिल्कुल नहीं सोऊंगा, बस आप कहते जाइए।
अच्छा तो सुन एक था चिडा और एक थी चिडिया। दोनों ने पेड की एक डाल पर अपना घोंसला बना रखा था। उनके दो बच्चे भी थे। छोटे-छोटे और प्यारे- प्यारे। उन लोगों ने उनका नाम चीं-चीं और चूं-चूं रखा था। एक दिन चिडिया को कहीं से चावल के ढेर सारे दाने और चिडा को दाल के दाने मिले। दोनों ने सोचा कि आज कुछ बनाया जाए। सप्ताह का अन्तिम दिन था यानि शनिवार। चिडा और चिडिया चाहते थे कि खिचडी बने परन्तु बच्चे का मन था कि पुलाव बने। चिडिया ने पुलाव बनाना ही तय किया।
सो तो नहीं गए? दादी ने बीच में ही पूछा। नहीं दादी।
तो आगे सुनो मुन्ना को सोया नहीं जानकर, दादी ने कहानी आगे बढाई। एक बडा सा पतीला चढाया गया।
मुन्ने ने बीच में ही रोककर उत्सुकतावश जानना चाहा कि चिडा-चिडिया का पेट तो छोटा होता है तो फिर बडा सा पतीला क्यों? और दादी ने समझाया कि गुडियों के बर्तन में से सबसे बडा वाला। चिडा भी साथ देता रहा और दोनों ने मिलकर पुलाव बनाया। पुलाव बडा ही स्वादिष्ट बना।
चिडा ने पेड से पत्ते तोडे और झटपट पत्तों की प्लेट बना डाली। दो डालों पर टहनियों और बडे पत्तों को बिछाकर बैठने की व्यवस्था कर ली गई। सबने जी भरकर पुलाव का आनन्द लिया और अपने-अपने बिस्तरों में आराम करने घुस गए। सबको नींद आ गई। अभी शाम हो ही रही थी कि सहसा चीं-चीं की नींद टूटी- उसके पेट में दर्द था। इतने में चूं-चूं भी उठ बैठा और मतली करने लगा। चिडिया उन्हें संभालने लगी। बच्चों के रोने से घर में शोर मचने लगा। क्या किया जाए, किसे बुलाया जाए? कौन से डाक्टर, कौन से वैद्य की खोज की जाए, चिडा समझ नहीं पा रहा था। वह घबराकर बाहर निकला तभी मुन्ने ने प्रश्न किया-दादी आपने बताया नहीं कि चिडा उदास क्यों था? उसे अपने सपने की बात याद आ गई थी जिसे उसने आज सुबह देखा था जिसमें चिडा चिडचिड करता, उदास बैठा, अपने घोंसले को देख रहा था। अब पूरी कहानी सुनोगे, तब तो समझ में आएगा?
और कितनी लम्बी कहानी है? ज्यादा नहीं, ..पहले तुम चुप रह कर सुनो तो-! अच्छा अब मैं चुप रहूंगा। आप आगे सुनाइए।
चिडा बाहर निकला तो उसकी भेंट उसी पेड पर रहने वाले कौए से हुई। उन दिनों कौए अच्छे वैद्य होते थे और उन्हें दवाओं का अच्छा ज्ञान होता था परन्तु कौए बडे धूर्त होते हैं दुष्ट भी। वह कौआ भी कुछ ऐसा ही था। अपनी धूर्तता और चालाकी से वह दूसरे पक्षियों को बेवकूफ बनाकर कभी उनके अंडों को खा जाता तो कभी उनके बच्चों पर हाथ साफ कर देता। चिडा उससे सावधान रहता था परन्तु अभी तो उसे अपने बच्चों के लिए दवा चाहिए थी। वह कहावत सुनी है न तुमने?
मरता क्या न करता। मुन्ने ने बिना कुछ समझे हां में सिर हिलाया और कहानी आगे बढी। चिडे ने कौए से सब कुछ कह सुनाया और कौए ने झटपट पुडिया बनाकर दी और यह भी सलाह दी कि सावधानी के तौर पर चिडा और चिडिया को भी दवा खा लेनी चाहिए ताकि उनकी तबियत बिगडने न पाए। चिडा ने दोनों बच्चों को दवा खिलाई और दोनों ने स्वयं भी खा लिया। बच्चों की तबीयत में कुछ सुधार हुआ और वे सो गए। शाम हो आई थी।
चुन-चुन, चुन-चुन करते चिडा और चिडिया भी सो गए। जानते हो; दुष्ट कौए ने दवा की पुडिया में बेहोशी की दवा भी मिला दी थी। उसने दोनों बच्चों को चुरा लिया। सुबह चिडे ने चारों तरफ बच्चों को खोजा परन्तु वे न मिले। वह निराश होकर लौट आया और घोंसले के पास एक डाल पर बैठकर चिड-चिडाने लगा। निराश होकर चिडिया भी यह कहती हुई निकल पडी कि एक बार मैं भी देख लूं, शायद मिल जाएं। यहीं तो मैंने कल सुलाया था।
और इस कहानी से हमें क्या सीख मिलती है। बताया तो था कि दुष्ट और दुश्मन का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। कहीं ऐसी भी कहानी होती है?
तो फिर तू ही बता।
दादी बोली। मुन्ने ने कहा- वह सब बात नहीं है- कौआ भी कहीं वैद्य होता है। कौए और चिडिए में दोस्ती भी नहीं होती। बात यह थी कि दोनों बच्चे बडे हो गए थे और दूर- ऽऽ - बहुत दूर चले गए थे इसलिए वे उदास थे।
तेरी ही कहानी सही है। दादी ने गहरी सांस ली।



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