Thursday, April 18, 2013
वो सपने ही क्या जो सच में न तब्दील हों
हैं तो गृहिणी, पर शौक है पर्वतारोहण का। रीना कौशल धर्मशक्तु के इसी शौक ने उन्हें पूरी दुनिया में एक अलग पहचान दी, जब वो साउथ पोल पर जाने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
बर्फीली राह पर हर रोज 8-10 घंटे की यात्रा और लगातार 40 दिनों के सफर के बाद एक ऐतिहासिक उपलब्धि। यह सुनने में भले ही थोड़ा आसान लगे, लेकिन इस उपलब्धि को हासिल करना एक बड़े संघर्ष की सफलता थी। यह सफलता थी भारतीय पर्वतारोही रीना कौशल धर्मशक्तु की, जिन्होंने बर्फ से ढके दक्षिणी ध्रुव पर भारतीय झंडा लहरा दिया था। यूं तो यह दुनियाभर की 8 पर्वतारोही महिलाओं की संयुक्त यात्रा थी, लेकिन रीना के लिए यह सफलता इसलिए बहुत बड़ी थी, क्योंकि उनसे पहले दक्षिण ध्रुव पर कोई भारतीय महिला नहीं पहुंच पाई थी। लगातार 40 दिनों तक, -40 डिग्री सेल्सियस तापमान के बीच लगभग 900 किलोमीटर की यात्रा तय कर उन्होंने 38 वर्ष की उम्र में 2010 में यह रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया था। यह यात्रा कॉमनवेल्थ की स्थापना के 60 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित की गई थी, जिसका नाम केस्परस्काई कॉमनवेल्थ अंटार्कटिक अभियान रखा गया था।
अंटार्कटिक आइस ट्रैक पर स्कीइंग करते हुए एक कदम भी आगे बढऩा आसान नहीं, क्योंकि उस बर्फीले माहौल में जब 130 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चलती थी, तो खड़ा रहना भी मुश्किल होता था। ऐसे में कंधे पर खाना-पीना समेत 80 किलोग्राम का अपना सामान लिए आगे बढ़ते जाना असंभव-सा लगने वाला काम था, लेकिन वे लोग अभियान पर निकल चुके थे। ऐसे में सामने केवल मंजिल नजर आ रही थी। ब्रूनी, साइप्रस, घाना, जमाइका, न्यूजीलैंड, सिंगापुर और ब्रिटेन की महिलाओं के साथ भारत की ओर से शामिल रीना 8 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनकर ही इतना रोमांचित थीं कि विजेता बनने के सपने आंखों में उमडऩे-घुमडऩे लगे थे। पर्वतारोहण और स्कीइंग के लंबे अनुभव पर भरोसा था और आखिर उस भरोसे ने उन्हें दक्षिणी ध्रुव पर फतह हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला का ताज पहना ही दिया था।
रीना बताती हैं, 'मेरे लिए वह साल बेहद खास बन गया था। एक तरफ मेरे पति लवराज सिंह ने पृथ्वी की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर फतह हासिल की थी और मुझे धरती के सबसे निचले बिंदु पर पहुंचने में सफलता मिली थी। मैं पंजाबी परिवार से हूं, लेकिन पिताजी आर्मी में थे, उस वजह से पूरे देश में घूमने का मौका मिला था। वैसे बचपन दार्जिलिंग में बीता था, जहां हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीटय़ूट से माउंटेनियिरग कोर्स करने का मौका मिल गया था। उसके बाद तो हिमालय के कई अभियानों में शामिल होने का मौका मिला। अलास्का, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में मैं पर्वतारोहण का अनुभव हासिल कर चुकी थी। लेकिन दक्षिणी ध्रुव की यात्रा बिल्कुल अलग बात थी।Ó
'टीम में शामिल होने के लिए आवेदन पत्र भर तो दिया, लेकिन इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं लग रही थी कि उसमें चयन हो पाएगा। हालांकि अपने ऊपर भरोसा था। जब मालूम हुआ कि उस अभियान के लिए 800 आवेदन पत्र पहुंचे हैं तो उम्मीद कम हो गई थी। आखिरकार 16 महिलाओं का चयन किया गया था, जिन्हें उस अभियान के लिए आयोजित होने वाली विशेष ट्रेनिंग में शामिल होने का मौका मिला। मेरे लिए यह खुशी का मौका था कि उन 16 महिलाओं में मैं भी थी। नॉर्वे और न्यूजीलैंड में ट्रेनिंग शुरू हुई। अब मेरा उत्साह काफी बढ़ चुका था। वैसे पर्वतारोहण के लिए मैं हर चुनौती का सामने करने में खुद को तैयार कर लेती थी, लेकिन यह अपनी तरह का अलग अनुभव था। अपनी तैयारी और पति के प्रोत्साहन ने आखिरकार वह जज्बा और जुनून पैदा कर दिया था, जिसने बर्फीली हवा के विपरीत रफ्तार का सामना करते हुए दक्षिण ध्रुव पर पहुंचा दिया।Ó
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