Sunday, April 28, 2013

वापसी (कहानी)


नींद खुलते ही कुंज हडबडाकर उठा। बाहर शाम का धुंधलका फैला हुआ था। मेज पर रखी अलार्म घडी छह बजा रही थी। बादलों से भरे आकाश और सुबह से हो रही टिप-टिप बरसात के कारण शाम में ही रात का भ्रम होने लगा था। वह कमरे से निकल कर बरामदे में रखी लंबी-चौडी आरामकुर्सी पर आ बैठा। वहां रखे सारे फर्नीचर साफ-सफाई के बाद उस जगह की गरिमा को पहले सा बनाए हुए थे। बरामदा सुनसान था। मेज पर सुबह का अखबार फडफडा रहा था। उसे उलटते-पुलटते वह मुकुंद बिहारी का इंतजार करने लगा। वह इस इलाके के प्रसिद्ध प्रॉपर्टी डीलर थे। उनके बिना किसी भी बडी जायदाद को खरीदना-बेचना संभव नहीं था।
 मौसम खराब होने की वजह से ही नहीं आ पा रहे थे। तभी उसे जगा पाकर रमिया ने एक कप चाय लाकर मेज पर रख दी।
 कुछ खाने को लाऊं?
 नहीं.. बस रहने दो काकी।
 रमिया कुंज के जन्म से भी पहले से उनके घर में काम करती थी। बूढी हो गई थी, लेकिन मालिक की इकलौती निशानी से मिलने चली आई। काम में मदद के लिए छोटी बहू को भी साथ लाई थी।
 गर्जन के साथ बारिश तेज हो गई। बिजली भी चली गई। घुप अंधेरे के बीच रह-रह कर बिजली का चमकना और ठंडी हवाओं का छू जाना इस समय बहुत भला लग रहा था। थोडी ही देर में उसका मन चंचल पांखी बन सुदूर अतीत की यादों में गोते लगाने लगा, जो बरसों से दिल के किसी कोने में दफन था।
 यह गांव सच्चे अर्थो में वह बोधिवृक्ष था, जिसकी छांव में उसे ज्ञान मिला था जीवन के हर पहलू को जानने-समझने का।
 जैसे कल की ही बात हो.., जब कभी तेज हवाएं चलतीं, उसके कदम घर में नहीं ठहर पाते थे। अम्मा की डांट का डर भी नहीं रोक पाता था। हवा के संग-संग आम के बगीचे में उडता-फिरता। आम के एक-एक टिकोरे के पीछे लपकता, बच्चों के साथ मिलकर शोर मचाता और उसके पीछे भागता पुराना नौकर यमुना, जिसे अम्मा दौडाती थीं ताकि उसे घर लाया जा सके। मगर वह यमुना को भी दौडा-दौडाकर थका देता। घर आता तो अम्मा के प्रवचन शुरू हो जाते, तुम्हें शर्म नहीं आती, ऐसे गंदे बच्चों के साथ, एक-एक टिकोरे के लिए झपटते, वो भी अपने ही बगीचे में। बोलो कितने टिकोरे चाहिए? यमुना को भेज कर अभी मंगवा देती हूं।
 अम्मा को कौन समझाए कि टिकोरा चुनकर लाने में जो मजा है वह एक टोकरा पा जाने में कहां है। अपने लिए नरम भुट्टा छांटना भी उसे बहुत पसंद था। कई भुट्टों में छेद करके देखता, तब कोई नरम भुट्टा मिलता। यमुना की नजर पडती तो वह शोर मचा देता, अम्मा से शिकायतें लगाता। संकट की घडी में उसे बचाते खेत के मचान पर बैठे दीनू काका। झट से उसे मचान पर चढा कर चादर में छुपा लेते और यमुना भन्नाता हुआ पूरे खेत में उसे खोजता। कभी-कभी अम्मा को जाने कैसे पता चल जाता कि उसे छुपाने में दीनू काका का हाथ है। फिर तो उसके साथ-साथ दीनू काका के लिए भी दसियों कसीदे पढ देतीं। अम्मा की जली-कटी सुन कर भी काका शांत रह जाते, भौजी, आप भी नन्ही सी जान के पीछे पडी रहती हैं। खेलने-कूदने दीजिए। यही तो समय है उसके खेलने-कूदने का..,
 हां..हां.. क्यों नहीं? इसका खेलना-कूदना तो देख ही रही हूं। ऐसा ही हाल रहा तो यह भी मचान पर बैठ चिडिया उडाया करेगा।
 भौजी आप जितना चाहें मुझे कोसें, कुंज के लिए कुछ न कहें। एक दिन यह खानदान का नाम रोशन कर देगा।
 दीनू काका की नजरों में उसके लिए अगाध प्रेम देख कर कभी-कभी अम्मा हैरान रह जातीं। काका के नैन-नक्श तीखे थे, लेकिन एक पैर जन्म से ही मुडा था।





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