बच्चों के पालन-पोषण का भारतीय तरीका भले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरा न उतरता हो, मगर भारतीय परवरिश की कुछ मजबूत कडियां हैं, जिन्हें चाहकर भी नकारा नहीं जा सकता। हमारी परवरिश में कुछ खामियां हैं तो ढेरों खूबियां भी हैं। कैसे अपने परवरिश के तरीके की खामियों को दूर किया जाए और अपने बच्चे को पूरी दुनिया के मुकाबले बेहतरीन परवरिश दी जाए,
दुनिया के हर देश और प्रांत में बच्चों की परवरिश का तरीका अलग है। परवरिश की परंपरा चाहे जो हो, पर नियम हर जगह एक जैसे होते हैं। परवरिश के इन नियमों को उम्र की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। ये नियम हर उम्र के बच्चों पर लागू होते हैं। छोटी-छोटी बातें, जो हमें तोतली भाषा में बड़ी अच्छी लगती हैं, बच्चों के बड़े होने पर उनके मुंह से निकली वही बातें बुरी लगने लगती हैं। इसलिए बच्चों के खड़े होते ही उनकी बेहतर परवरिश के नियमों का पाठ शुरू कर दिया जाना चाहिए। लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि आप जिन अच्छी आदतों को अपने बच्चों में देखना चाहती हैं, उन्हें अपनी आदतों में पहले शामिल करें। सर गंगाराम अस्पताल की वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. रोमा कुमार के मुताबिक, बच्चों की बेहतर परवरिश उनके बेहतर भविष्य को सुनिश्चित करती है। दो से दस साल के बच्चों की परवरिश के दौरान कुछ बातों को ध्यान में रखकर आप उनका बेहतर भविष्य सुनिश्चित कर सकती हैं।
सेक्सुएलिटी एजुकेशन है जरूरी, सेक्स एजुकेशन के लिए करें इंतजार
बच्चों को सेक्सुएलिटी एजुकेशन देना बहुत जरूरी है। सेक्सुएलिटी एजुकेशन और सेक्स एजुकेशन में अंतर है। सेक्सुएलिटी एजुकेशन का मतलब अच्छे और बुरे टच (छूना) के अंतर से है। किस तरह का स्पर्श गलत है और किस तरह का स्पर्श सही है, इसका अंतर बच्चों को पता होना चाहिए। ज्यादातर भारतीय बच्चों को इसका अंदाजा नहीं रहता, जबकि बहुत कम उम्र से ही उन्हें इन सारी चीजों को झेलना पड़ता है। खासकर घर में आए दूर के रिश्तेदारों द्वारा कई बार ऐसी हरकत की जाती है, लेकिन बच्चे उसे समझ नहीं पाते। अपने बच्चों में स्पर्श पहचानने की क्षमता विकसित करें, ताकि वे उसका विरोध कर सकें। किसी भी दुर्घटना से खुद को बचा सकें और अपनी आत्मरक्षा कर सकें। सेक्सुएलिटी एजुकेशन देने की शुरुआत काफी कम उम्र से की जा सकती है, जैसे कि तीन साल की उम्र से ही बच्चों को ये बताना शुरू कर दें कि अगर उन्हें कोई व्यक्ति गलत तरीके से छूता है तो वे उसका विरोध करें और आकर माता-पिता को बताएं।
इसके विपरीत सेक्स एजुकेशन के लिए बच्चों के परिपक्व होने का इंतजार करें। भारतीय परिवेश में लड़कों के लिए परिपक्वता की उम्र 13 साल मानी जाती है और लड़कियों के लिए 11 साल के बाद। माना जाता है कि 13 साल की उम्र से किशोरों की समझदारी का स्तर इतना हो जाता है कि उन्हें सेक्स से संबंधित जानकारियां दी जा सकती हैं, जिससे वे गलत और सही में भेद कर सकें, जबकि लडम्कियों में दो साल पहले ही वह स्तर आ जाता है। लड़कियां 11 साल में ही परिपक्व हो जाती हैं।
परवरिश में अनुशासन है जरूरी
अनुशासन के बिना परवरिश नमक के बगर दाल जैसी है। बच्चे अनुशासित हों, लेकिन दबे हुए नहीं। अनुशासन का मतलब बच्चों का डराना नहीं होता। आपको अनुशासन और डर में अंतर करना होगा। कई माता-पिता बच्चों को अनुशासित करने के लिए मारपीट का सहारा लेते हैं। यह सही नहीं है। इससे स्थिति बिगड़ सकती है और बच्चा जल्द ही विद्रोह कर सकता है।
खुद भी सही काम करें
बच्चों से उम्मीद करने से पहले माता-पिता को भी अपनी आदतों में सुधार करने की जरूरत है। यानी जो आप बच्चों से चाहते हैं, पहले उसे खुद करके दिखाएं।
मसलन, यदि आप चाहती हैं कि बच्चे डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाएं तो आपको भी ऐसा ही करना होगा। टीवी के सामने खाना न खाना, देर रात टीवी न देखना, चीजों को सही जगह पर रखना, किताबों के साथ कुछ समय गुजारना आदि कुछ आदतें हमें खुद में विकसित करनी होंगी, तभी बच्चे भी उन्हें अपनाएंगे।
जिद को टालें नहीं
बच्चे अक्सर किसी चीज के लिए जिद करते हैं। हम उनकी कई जिद पूरी कर देते हैं और कई बार ये कहकर टाल देते हैं कि अभी तुम इसके लिए छोटे हो, बड़े हो जाओ फिर तुम्हारी यह बात मानेंगे। डॉ. रोमा कुमार के मुताबिक, यह सही तरीका नहीं है। बच्चों की हर जिद पूरी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन इसके लिए उन्हें जायज वजह बताएं। उन्हें ये कहें कि जिस चीज की तुम मांग कर रहे हो वह ठीक नहीं है। हम तुम्हारी इस जिद को पूरा नहीं कर सकते।
बातचीत है जरूरी
बच्चों के साथ खुलकर बात करें। उनके साथ सिर्फ खुशियों के पल ही नहीं, अपने दुख भी बांटें। बच्चे आपको और घर की परिस्थितियों को समझेंगे। पर ध्यान रखें कि बच्चों पर इसका गहरा असर न हो। इससे उनकी अपनी सोच प्रभावित हो सकती है।
घर में वैल्यू सिस्टम विकसित करें
घर में एक वैल्यू सिस्टम का होना जरूरी है। वैल्यू सिस्टम से मतलब है, आप घर में या कहीं भी बच्चों के सामने गालियां न दें। उनके सामने कोई गलत बात न कहें। बच्चे जब अभिभावकों को गाली देते हुए सुनते हैं, उन्हें वह सही लगता है। अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए वे भी गालियों का इस्तेमाल करने लगते हैं। खुद नियमों को न तोड़ें, क्योंकि बच्चों की मानसिकता बन जाती है कि वे भी कभी-कभी नियम तोड़ सकते हैं।
समय देना है जरूरी
आज शहरों में ज्यादातर माता और पिता दोनों वर्किंग होते हैं। ऐसे में बच्चों को माता-पिता का पर्याप्त साथ नहीं मिल पाता। हाल ही में जारी हुई एक रिपोर्ट के मुताबिक इन दिनों शहरों में अभिभावक अपने बच्चों के साथ औसतन चार घंटे गुजारते हैं, जो उनके विकास के लिए काफी नहीं हैं।
उम्र के हिसाब से बदलें अपना रोल
बढ़ती उम्र के साथ माता-पिता को अपना रोल भी बदलना चाहिए। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा हो, उससे दोस्त की तरह व्यवहार करें, ताकि वह आपसे अपनी चीजें बांट सके, अपनी बातें कह सके, उसके दिमाग में क्या चल रहा है आपके साथ साझा कर सके। उसके मन में किसी बात को छुपाने का डर न हो। ऐसा करने से बच्चों का बौद्धिक और मानसिक विकास सही तरीके से होता है और वे जिदंगी में आने वाली चुनौतियों का सामना बेहतर तरीके से कर पाएंगे।
गलत बात पर वाहवाही नहीं
कम उम्र में ड्राइविंग सीखना, किसी को धोखा देना, मदद न करना, तोतली भाषा में दूसरों को गाली देना, छोटी उम्र में ही दूसरों को मारने का इशारा करना आदि बातें, जिनकी हम शुरुआत में तारीफ करते हैं, दरअसल बच्चों की बुद्धि पर ये नकारात्मक असर डालती हैं। अच्छा हो अगर बच्चों की उम्र सीमा को समझें। इसे तोड़ने से रोकें। बच्चा कम उम्र में ही ड्राइविंग सीख ले तो इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि आप उसे ड्राइविंग की आजादी ही दे दें। बच्चे की उम्र कम हो या ज्यादा, गलत बात को कभी बढ़ावा कभी न दें। उन्हें नियम तोड़ना न सिखाएं।
कुछ कमियां जहां सुधार है संभव
इहबास (इंस्टीटय़ूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइसंसेज), नई दिल्ली में मनोविज्ञान के एसो. प्रोफेसर ओम प्रकाश के मुताबिक, भारतीय परवरिश दुनिया के किसी दूसरे देशों से बिल्कुल अलग है। उनकी कुछ खास बातें हैं, जो कहीं और नहीं दिखतीं। लेकिन कुछ खामियां भी हैं, जो यहां की परवरिश पर सवालिया निशान लगा देती हैं।
उम्र के साथ-साथ बच्चों के लिए अपने व्यवहार में बदलाव करें। हमारी परवरिश में इसका चलन नहीं है। अपने बच्चों के साथ जैसा हम पांच साल की उम्र में व्यवहार करते हैं, वैसा ही दस वर्ष की उम्र में और उसके उम्रदराज होने पर भी काफी हद तक हमारा रवैया वैसा ही होता है। भारतीय परिवेश में 11 वर्ष के बाद लड़की में और 13 वर्ष के बाद लड़के में परिपक्वता आ जाती है, इसलिए इस उम्र के बाद उन्हें आत्मनिर्भर बनना सीखना चाहिए।
भारतीय परवरिश में बच्चों की हमेशा माता-पिता पर निर्भरता बनी रहती है। बात चाहे छोटे-बड़े फैसले की हो या किसी कोर्स की, भारतीय बच्चे अपने माता-पिता पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं। निर्भरता माता-पिता और बच्चों के बीच की बॉन्डिंग को मजबूत तो करती है, मगर एक सीमा के बाद यह बच्चे को दबाने लगती है।
माता-पिता या बड़ों द्वारा फैसले थोपने की प्रथा भी गलत है। सवाल करियर का हो या शादी का, हमेशा घर के बड़े अपनी मर्जी से ही फैसला करना चाहते हैं। कुछ सीमा तक यह बच्चों को सुरक्षा का एहसास दिलाती है, पर एक सीमा के बाद उनमें मनोविकार पैदा होने लगते हैं। वे बहुत ज्यादा दबाव महसूस करने लगते हैं, उनमें चिड़चिड़ापन, तनाव आने लगता है। वे प्राकृतिक रूप से अपनी पूरी काबिलियत नहीं दे पाते। इसलिए बच्चों को थोड़ा स्पेस देना जरूरी है ताकि बच्चे खुद को समझ सकें और अपनी कमजोरियों व ताकतों को पहचान सकें।
बच्चों में तीन साल की उम्र से ही नैतिक मूल्य विकसित करना जरूरी है। किसी किताब या ग्रंथ की सहायता से ऐसा करना संभव नहीं है। इसके लिए माता-पिता को खुद एक रोल मॉडल की तरह काम करना होगा।
(साभार)
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